दर्द का पैगाम देती सड़कें
आपाधापी,जनसंख्या वृद्धि और नित्यप्रति बढ़ते वाहनों ने जिन्दगी की परिभाषा ही बदल दी है. आज सीधा-सादा जीवन मुश्किलों से भरा हो गया है, आवश्यकताएं बढ़ती जा रही हैं.
यूं तो चिट्ठी, तार,फोन से सुख-दुख की कुछ ना कुछ खबर आती ही रहती है, पर सड़कों से आती मौत की खबर वास्तव में बहुत दर्दनाक हैै. असमय काल के मुख में समा जाना, हादसों का शिकार हो जाना, उस परिवार के लिए कितना दुखद है जो हंसती खेलती जिन्दगी गुजार रहा हो. सड़कों का सीना चीरकर तेज रफ्तार दौड़ती असंख्य गाड़ियां और बाइक कई बार गन्तव्य स्थल पर पहुंचने से पहले ही हादसों का शिकार हो जाती हैं. पता नहीं कितनी जिन्दगियां असमय ही मौत के मुंह में समा जाती हैं.
आपाधापी,जनसंख्या वृद्धि और नित्यप्रति बढ़ते वाहनों ने जिन्दगी की परिभाषा ही बदल दी है. आज सीधा-सादा जीवन मुश्किलों से भरा हो गया है, आवश्यकताएं बढ़ती जा रही हैं. जीवन की क्षणभंगुरता के बारे में तो पहले से ही मालूम था पर आज जीवन बहुत ही असुरक्षित हो गया है. हर दिन अखबारों में छपी असंख्य खबरों में से ज्यादातर सड़क हादसों की शिकार जिन्दगियों की सूचनाएं होती है. दिल दहल जाता है, कच्ची उम्र में यूं जिन्दगी को खत्म होते देखकर. युवाओं का बाइक के प्रति बढ़ता आकर्षण और जुनून भी कम जानलेवा सिद्ध नही हो रहा है. सड़कों पर दौड़ती तेज रफ्तार बाइक उनके लिए मौत की सवारी बनती जा रही है. कितनी युवा जिन्दगियां सड़कों पर दम तोड़ती नजर आ रही हैं.
व्यक्तिगत इच्छाएं बढ़ती जा रही हैं, जिन्दगी छोटी पड़ती जा रही है. कम उम्र में वाहनों को सड़कों पर लेकर चल देना और यातायात के नियमों को ना मानना जिन्दगी के हक में उचित नहीं है.सड़क हादसों से विचलित होकर मन घर से निकलने में भी डरने लगता है. अखबारों की सुर्खियां और भी भयभीत कर देती हैं, जब पढ़ते हैं पूरा का पूरा परिवार सड़क हादसे का शिकार हो गया. नित्यप्रति होती दुर्घटनाओं से आहत मन अनिष्ट की आशंका से ही ग्रसित रहता है.
किसी बिमारी से, किसी अन्य कारण से जिन्दगी खत्म हो तो सब्र भी आ जाए, पर हंसता खेलता परिवार सड़क हादसे का शिकार हो जाए ये बड़ा दर्दनाक है. इस दर्द की पीड़ा से हम और आप कहां तक प्रभावित हैं ये विचारणीय है.जिन्दगी इतनी सस्ती और छोटी नहीं होनी चाहिए.
सड़कों की तरफ निगाह डालें तो सड़कें भी कम पीड़ित नहीं हैं. रात दिन दौड़ते वाहनों से सड़कें भी रंग में रंगी दिखाई देती हैं. ऐसा लगता है जैसे इन्हें भी लाल रंग रास आने लगा है, तभी तो कभी इन्हें खूनी सड़कें, कभी जानलेवा सड़कें, कभी निगलती सड़कें कहा जाने लगा है. इन सड़कों को भी कहां एक पल का विश्राम मिल पा रहा है. दिन-रात अपनी छाती पर झेलती रफ्तार से ये कितनीे विचलित हो जाती होंगी और कई बार उग्र भी हो जाती होंगी. इनकी उग्रता को मौत का नाम दे दें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.
(रेखा गर्ग सामाजिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)