चुनाव आयोग ने अपने अवधारणा पत्र में लिखा है कि चुनाव का घोषणा पत्र व्यक्ति, समूह, राजनीतिक दल या सरकार द्वारा प्रकाशित एक ऐसा दस्तावेज होता है, जिसमें उनके मंतव्यों, सोच और विचारों की घोषणा होती है. इससे पता चलता है कि वे भविष्य में किस तरह का बदलाव लाना चाहते हैं. आक्सफोर्ड शब्दकोष के मुताबिक यह राजनीतिक दलों की नीतियों और लक्ष्यों की एक लोक घोषणा होती है. इससे उनकी विचारधारा और नीतियों के बारे में स्पष्ट जानकारी मिलती है. इससे पता चलता है कि राजनीतिक दल समाज, समाज के विविध तबकों और उनकी जरूरतों-अपेक्षाओं को किस नज़रिए से देखते-समझते हैं. मतलब यह है कि चुनाव का घोषणा पत्र बेकार सा दस्तावेज नहीं है. यह उन बिंदुओं का संकलन होता है, जो वास्तव में हर एक व्यक्ति और उसके जीवन को प्रभावित करने वाले हैं. अतः इसे नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए. बहुत जरूरी है कि अकादमिक अनुसंधान, नागरिक समूहों और मीडिया में इनका सघन विश्लेषण हो. इससे चुनावों के दौरान होने वाली बेकार की और नुकसान पंहुचाने वाली बहसों के असर को सीमित किया जा सकेगा.


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बहरहाल यह दिखाई देने लगा है कि शैक्षिणक स्तर, जागरूकता और जन आन्दोलनों की प्रक्रिया के कारण महिलाओं, अनुसूचित जाति-जनजाति और किसानों के मुद्दों को चुनावी प्राथमिकताओं और घोषणा पत्रों में स्थान मिलने लगा है; लेकिन ऐसे में भी बच्चों के मुद्दे प्राथमिक से नदारद हैं. चूंकि समाज की राजनैतिक चेतना बढ़ी है, इसलिए विद्यालयीन शिक्षा को अब महत्वपूर्ण स्थान मिलने लगा है; किन्तु बच्चों के अन्य संवेदशील मुद्दे बहस से बाहर है. चूंकि 18 साल की उम्र तक ये लोग चुनावी लोकतंत्र में सीधे कोई भूमिका नहीं निभाते हैं, इसलिए राजनीतिक दल “संवेदनाओं” के आधार पर बात कर लेते हैं; किन्तु समानुभूति पूरी तरह से नदारद है. व्यापक सामाजिक समझ तो यही है कि बच्चे कोई स्वतंत्र इकाई नहीं हैं. वे तो वयस्कों पर निर्भर हैं, अतः उनके बारे में कोई प्रत्यक्ष बात करने की जरूरत नहीं है; यह एक कमज़ोर सोच है. विकास के दौर में वयस्कों ने अपने हित इतने व्यापक कर लिए हैं, कि उन्हें बच्चों के हित दिखाई देना बंद हो गए हैं. चुनावी सन्दर्भ में बच्चों के मुद्दों को चर्चा में लाने का मतलब है देश की 42 प्रतिशत वर्तमान जनसंख्या और 100 प्रतिशत भविष्य के बारे में ठोस विचारधारा और योजना बनाना. 18 वर्ष की उम्र तक बच्चों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर रखा जाता है और अचानक से एक दिन उन्हें वयस्क मान लिया जाता है और उन्हें मतदान करने के लिए भेज दिया जाता है; क्या वे जाति, वर्ग, लैंगिक भेदभाव, आर्थिक असमानता के सूचकों के आधार पर निर्णय लेने लायक परिपक्व हो पाते हैं. भारत में वयस्क बनना 18 साल की प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक दिन का बदलाव है.


मध्य प्रदेश में 32 सामाजिक संस्थाओं ने 27 जिलों के 5000 से ज्यादा बच्चों के की आवाज़ को इकठ्ठा करके “बच्चों के लिए लोकतंत्र’ का अभियान चलाया और 270 बिंदुओं का व्यापक बालकेंद्रित घोषणापत्र (जिसमें कृषि, पर्यावरण, वित्तीय व्यवस्था, रोज़गार, परिवहन, खाद्य सुरक्षा, पोषण सरीखे व्यापक पाठ शामिल थे) राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों को बार-बार सौंपा, ताकि लोकतंत्र के पर्व में बच्चे बहिष्कृत न हो जाएँ. इनमें से 91 बिंदुओं को कांग्रेस और भाजपा के घोषणा पत्रों में स्थान मिला.


हमें यह मानना चाहिए कि पिछले 15 सालों में (वर्ष 2003-04 से 2018) बच्चों के मुद्दों को चुनावी प्रक्रिया में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए कई प्रयास हुए हैं और इन प्रयासों का असर दिखा भी है. यह सही है कि कृषि संकट, जलवायु परिवर्तन, बेरोज़गारी सरीखे व्यापक मुद्दों का बच्चों के जीवन पर भी गहरा असर होता है, किन्तु इनसे निपटने के लिए भी बच्चों को एक इकाई के रूप में स्वीकार किया जाना जरूरी है क्योंकि चुनावी घोषणा पत्र भविष्य के लिए भी लोकनीति निर्धारित करते हैं. बच्चों को एक विशेष नज़रिए से स्वतंत्र इकाई के रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि वर्तमान में राजनीतिक विचारक, नीति निर्माता और राजनीतिक नेतृत्व उन्हें महिलाओं के मुद्दों का विस्तार मान कर चलता है. यह नज़रिए ठीक नहीं है. चूंकि घोषणा पत्र विचारधारा, मंतव्यों, नीतियों, योजनाओं और प्राथमिकताओं का संकलन होता है, इसलिए जरूरी है कि उनमें बच्चों की मौजूदगी को तलाशा जाए.


अभी मध्य प्रदेश विधानसभा की भारी हलचल के बीच से गुज़र रहा है. राजनीतिक दृष्टिकोण से ये चुनाव बहुत संवेदनशील है. इनमें सबसे अहम् टक्कर कांग्रेस और भाजपा के बीच है, इनके घोषणा पत्र जारी हो चुके हैं, बहुजन समाज पार्टी ने कोई घोषणा पत्र जारी नहीं किया है. इन घोषणा पत्रों का बच्चों के अधिकारों के नज़रिए से विश्लेषण एक रोचक कहानी कहता है. बात साफ़ है कि बच्चों के अधिकार के मुद्दे भी आर्थिक-राजनीतिक नज़रिए से बहुत धारदार और संवेदनशील हो सकते हैं. कांग्रेस के घोषणा पत्र (जिसे वे वचन पत्र कह रहे हैं) में 50 क्षेत्रों या विभागों (कृषि, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य, आदिवासी, महिला-बाल विकास आदि) के अंतर्गत कुल 974 बिंदु शामिल हैं, जिनमें से 184 (19 प्रतिशत) ऐसे बिंदु हैं जो बच्चों के जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं. कांग्रेस का घोषणा पत्र मध्य प्रदेश के विभागीय ढाँचे के अनुरूप बनाया गया है.


चूंकि मध्य प्रदेश के सामने नवजात शिशु मृत्यु दर, महिलाओं के स्वास्थ्य, कुपोषण, संचारी-असंचारी बीमारियों के फैलाव, प्रजनन स्वास्थ्य और बच्चों के अवरुद्ध विकास से सम्बंधित समस्याओं की गंभीर स्थिति है; अतः बच्चों से सम्बंधित मुद्दे महत्वपूर्ण हो जाते हैं. भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणा पत्र (जिसे वे दृष्टि पत्र कह रहे हैं) में कुल 511 बिंदुओं में से 141 ऐसे बिंदुओं को शामिल किया है, जो बच्चों को प्रभावित करते हैं.


पहले थोड़े संवेदनशील पहलू – भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव के घोषणा पत्र में बाल अधिकार के अन्तराष्ट्रीय स्वरुप – जीवन, विकास, सहभागिता और संरक्षण के अधिकारों में से तीन (सहभागिता को छोड़) को स्थान दिया है; जबकि भारतीय जनता पार्टी ने बच्चों के जीवन और विकास के अधिकार को ही स्थान दिया है, उन्होंने बच्चों के संरक्षण और सुरक्षा के अधिकार को लगभग छोड़ ही दिया है. केवल एक बिंदु महिलाओं के संरक्षण के साथ जोड़ा गया है. कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में बच्चों के साथ होने वाले अपराधों, लैंगिक शोषण, बाल मजदूरी, बाल विवाह और भिक्षावृत्ति जैसे मुद्दों को महत्वपूर्ण माना और यह तय किया कि इनसे सम्बंधित क़ानून को बेहतरी के साथ लागू किया जाएगा. न्याय के लिए द्रुत मार्गी अदालतें होंगी, पुलिस को संवेदनशील भी बनाया जाएगा और सामाजिक अभियान भी संचालित होंगे. भाजपा इन बिंदुओं पर खामोश रही है कि 15 साल से सत्तारूढ़ होने के बाद भी वह बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं करवा पायी; किन्तु दुखद यह है कि वह विषय की संवेदनशीलता को अब भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है.


यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि मध्य प्रदेश के चुनावी घोषणा पत्रों में बच्चों के खेल के अधिकार को एक विशेष स्थान मिला है. दोनों की प्रमुख राजनीतिक दलों ने हर गाँव और सभी स्कूलों में खेल के मैदान, खेल की सुविधाओं, प्रशिक्षण, प्रतियोगिताएं के आयोजन और प्रतिभाओं को उभारने के लिए पहल करने की घोषणा की है.


घोषणा पत्रों का मंतव्य, प्राथमिकताओं और राजनीतिक विचारधारा के आधार पर गहराई से किया गया विश्लेषण यह बताता है कि स्कूली शिक्षा का विषय मुख्य धारा की राजनीति में स्थान बना चुका है क्योंकि इससे वर्तमान आर्थिक विकास के लक्ष्यों का बहुत सीधा सम्बन्ध है. भाजपा ने स्कूली शिक्षा पर 22 बिंदु रखे हैं, जबकि कांग्रेस ने 42 बिंदुओं का उल्लेख किया है. भाजपा ने सोचा है कि स्कूलों के साथ आंगनवाडियों को जोड़ दिया जाएगा. यह स्पष्ट नहीं है कि क्या वह आंगनवाड़ी केन्द्रों को बाल विकास और देखरेख केन्द्रों में बदलेंगे या नहीं! स्कूलों में अधोसंरचना यानी सुरक्षा दीवार, खेल के मैदान, पानी-शौचालय, बिजली और उनका रख-रखाव आदि, का विकास करने का भी वायदा है. कांग्रेस ने गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के विस्तार के वायदे के तहत शिक्षकों की नियुक्ति, प्रशिक्षण, खेल-संगीत सरीखी गतिविधियां जोड़ने और आदिवासी भाषा में शिक्षा देने की बात कही गई है. कांग्रेस का कहना है कि हर गाँव में कम से कम एक शैक्षणिक संस्थान होगा. छात्रवृत्ति की राशि में वृद्धि होगी और इसे मूल्य सूचकांक से जोड़ा जाएगा. कोई भी बच्चा स्कूल से बाहर न हो, इसके लिए व्यवस्थाएं बनायी जायेंगी.


बहरहाल जैसा कि चुनाव आयोग की मार्गदर्शिका कहती है कि घोषणा के क्रियान्वयन और आर्थिक संसाधनों का खाका भी स्पष्ट किया जाना चाहिए, उसका उल्लेख घोषणा पत्रों में नहीं है. दोनों ही मुख्य दलों ने समान स्कूल/शिक्षा प्रणाली लाने के लिए कोई वायदा नहीं किया है, यानी भेदभाव बरकरार रहेगा.


भाजपा ने विश्वस्तरीय मानकों पर 100 आदर्श कन्या उपासना स्मार्ट स्कूल स्थापित करने की बात कही है; यानी अन्य स्कूलों के मानक दोयम दर्जे के बने रहेंगे; साथ ही दृष्टि पत्र में आदिवासी समाज की भाषा को शिक्षा में शामिल करने का भी कोई इरादा नहीं दिखा. गुणात्मक शिक्षा के अधिकार को साफ़ तरीके से परिभाषित नहीं किया गया है.


स्वास्थ्य के विषय को भी घोषणा पत्रों में तवज्जो मिली है. कांग्रेस ने अपने 48 बिंदुओं में उल्लेख किया है कि प्रदेश के हर नागरिक को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से चिकित्सा महाविद्यालय के स्तर तक गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध करवाई जायेंगी, जिला अस्पतालों की व्यवस्था को बेहतर बनाया जाएगा और हर गाँव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या उप स्वास्थ्य केंद्र में से कोई न् कोई स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध होगा. संस्थागत प्रसव और नवजात शिशु स्वास्थ्य सेवाएं 10 किलोमीटर के दायरे में उपलब्ध होंगी, प्रसव पूर्व स्वास्थ्य सेवाएं 80 प्रतिशत तक बढ़ाई जायेंगी. भाजपा के दृष्टि पत्र में कहा गया है कि स्वास्थ्य क्षेत्र के नीतिगत लक्ष्यों के साथ साथ आरोग्यता को भी आधारभूत सिद्धांत बनायेंगे और अच्छे-स्वास्थ्य जीवन का अनुभव सुनिश्चित करेंगे. बहरहाल मध्य प्रदेश के पास एक अदद स्वास्थ्य नीति भी नहीं है. दृष्टिपत्र में स्वास्थ्य को अधिकार नहीं माना गया है, पर सुलभ, किफायती (मुफ्त नहीं) और न्याय संगत स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के माध्यम से सार्वभौमिक कवरेज का वायदा किया गया है. दृष्टि पत्र में स्वास्थ्य के बिंदु मूलतः आयुष्मान भारत भारत योजना के ही बिंदु दिखाई देते हैं. इसमें आशा, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और विद्यालयीन शिक्षकों सहित अन्य विभागों द्वारा संचालित निवारक स्वास्थ्य देखभाल गतिविधियों को एकीकृत बनाने की बात कही गई है और हर जिला अस्पताल में बिस्तरों की संख्या 500 करने और ट्रामा सेंटर बनाने का वायदा है. दोनों राजनीतिक दलों ने स्वास्थ्य को नागरिक का अधिकार और राज्य का कर्तव्य नहीं माना है और चिकित्सा शिक्षा के निजीकरण से पनपे संकट को खत्म करने के लिए लोकशिक्षा व्यवस्था का वायदा नहीं किया है.


कुपोषण के विषय पर दृष्टि पत्र में कहा गया है कि विशेष समन्वित रणनीति से 5 साल तक के बच्चों के कुपोषण की पहचान और प्रबंधन होगा, पोषण पुनर्वास केंद्र खुलेंगे और आंगनवाड़ी को पोषण वाटिका के रूप में विकसित किया जाएगा; इसी तरह कांग्रेस ने कुपोषण और एनीमिया खत्म करने के लिए हर संभव प्रयास करने की बात कही है. दोनों की दलों ने समुदाय आधारित प्रबंधन, पोषण कार्यक्रम में अंडे और संस्कृति सम्मत खाद्य पदार्थों के प्रावधान और पोषण आहार के पूर्ण विकेन्द्रीकरण का वायदा नहीं किया है. कांग्रेस ने वचन दिया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत दाल और खाने का तेल दिया जाएगा; किन्तु भाजपा ने दाल और तेल का वायदा नहीं किया है. उल्लेखनीय है कि प्रधानमन्त्री मातृत्व वंदना योजना में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत दिए गए मातृत्व हकों को बेहद सीमित और कठिन कर दिया गया है.  भाजपा ने मातृत्व हकों (जो आज महिलायें की सबसे बड़ी जरूरत और हक है)का कोई उल्लेख ही नहीं किया है; बहरहाल कांग्रेस ने असंगठित क्षेत्र की महिलाओं के लिए 90 दिन की मजदूरी या 21 हज़ार रूपए का प्रावधान करने का वायदा किया है.


मध्य प्रदेश के निर्माण को 62 साल हो गए हैं; और अब तक राज्य में “समग्र बाल नीति” नहीं बनायी गई है. कांग्रेस ने वचन पत्र में यह नीति बनाने का वायदा किया है. ऐसा लगता है कि भाजपा राज्य की जिम्मेदारियों को और सीमित करते हुए, निजीकरण और महिलाओं-बच्चों के कुछ बुनियादी मुद्दों पर जनपक्षीय सोच नहीं रखती है.


यह अपेक्षा थी कि मध्य प्रदेश के प्रमुख राजनीतिक दल बच्चों के नज़रिए से समाज निर्माण की सोच रखेंगे और ढांचागत पहल करेंगे; ऐसे विषयों पर इन्होने नाउम्मीद किया. वचन और दृष्टि पत्र में यह उल्लेख नहीं है कि राज्य सरकार “बच्चों के लिए बजट आवंटन और प्रस्तुतिकरण” की व्यवस्था करेगी, गांव और सामाजिक-आर्थिक विकास की योजनाओं को बनाने में बच्चों की सहभागिता होगी, पर्यटन और आर्थिक विकास के क्षेत्रों में बच्चों के संरक्षण के नज़रिए से अंकेक्षण होगा. वास्तव में राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि वे बच्चों के प्रति भावुकता का नहीं, बल्कि समानुभूति का नज़रिए अपनाएँ; तभी वे समाज की 42 प्रतिशत जनसँख्या और लोकतंत्र को सम्पूर्णता में सीख-समझ पायेंगे.


(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)