मध्यप्रदेश में कर्मचारी संगठन के राजनीति में आने के मंतव्य
सामान्य एवं पिछड़ावर्ग कर्मचारी अधिकारियों के संगठन ‘सपाक्स’ ने राजनीतिक खेल साधने के लिए खुद मध्यप्रदेश के चुनावी मैदान में उतरने की घोषणा कर सभी को चौंका दिया है.
मध्यप्रदेश में 2018 के अंत में विधानसभा चुनाव होना है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सक्रियता के साथ बीजेपी तो प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ की नियुक्ति के साथ कांग्रेस चुनाव मोड में आ चुकी हैं. कांग्रेस के बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन की खबरों को फिलहाल बसपा के प्रदेश अध्यक्ष ने खारिज कर दिया है मगर पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ संगठित हुए सामान्य एवं पिछड़ावर्ग कर्मचारी अधिकारियों के संगठन ‘सपाक्स’ ने राजनीतिक खेल साधने के लिए खुद चुनावी मैदान में उतरने की घोषणा कर सभी को चौंका दिया है.
सपाक्स यानि सामान्य एवं पिछड़ावर्ग कर्मचारी अधिकारियों का संगठन एक विशुद्ध कर्मचारी का संगठन था जो अनुसूचित जाति-जनजाति अधिकारी-कर्मचारी संगठन यानी अजाक्स के खिलाफ तैयार किया गया था. इसका एकमात्र उद्देश्य सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति में आरक्षण का विरोध करते हुए शिवराज सिंह सरकार की याचिका का सामना करना था. इससे कुछ आगे यह अनारक्षित वर्ग के कर्मचारियों के हितों का संरक्षण करने का लक्ष्य लिए हुए था. मगर सपाक्स के उद्देश्यों में सेंधमारी हुई और अब ऐलान कर दिया गया है कि सपाक्स एक राजनीतिक संगठन है और यह इस साल के अंत में होने वाले मप्र विधानसभा चुनाव में सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ेगा.
गौरतलब है कि मप्र में पिछले ड़ेढ दशक से कांग्रेस के सत्ता से बाहर रहने की मुख्य वजहों में से एक पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था रही है. वर्ष 2002 में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने का कानून बनाया था. पदोन्नति में आरक्षण का लाभ अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग को ही दिया जाता है. पिछड़ा वर्ग को पदोन्नति में आरक्षण नहीं दिया जाता है. राज्य में पिछड़ा वर्ग को नौकरियों में चौदह प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है. अनुसूचित जाति वर्ग के लिए बीस एवं जनजाति वर्ग के लिए सोलह प्रतिशत पद सरकारी नौकरियों में आरक्षित हैं. वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में दिग्विजय को पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने का कोई लाभ नहीं मिला था. कांग्रेस बुरी तरह से चुनाव हार गई थी.
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लगभग दो साल पहले मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने के लिए बनाए गए कानून एवं नियमों को असंवैधानिक मानते हुए निरस्त कर दिया था. इस निर्णय के खिलाफ प्रदेश सरकार के सुप्रीम कोर्ट में चले जाने से गैर आरक्षित वर्ग के सरकारी अधिकारी एवं कर्मचारी नाराज हैं. सपाक्स संगठन इसी नाराजगी की उपज है. यही कारण है कि संगठन का विस्तार कर्मचारियों के मध्य अधिक है. इस संगठन को जमीनी स्तर पर सामान्य वर्ग का कोई खास समर्थन नहीं मिला. इसलिए अब सपाक्स समाज नाम से अलग संगठन बनाया गया है.
इस संगठन के संरक्षक रिटायर्ड आईएएएस अधिकारी हीरालाल त्रिवेदी संरक्षक हैं. ‘सपाक्स समाज’ के संरक्षक हीरालाल त्रिवेदी का कहना है कि हमारा संगठन राजनीतिक संगठन हो गया है और चुनाव में हम हर ऐसे संगठन से तालमेल करेंगे जो हमारी विचारधारा और उद्देश्यों से सहमत होंगे. जहां आरक्षित समाज के सांसद, विधायक और जनप्रतिनिधि अपने समाज के हितों के लिए किसी भी हद तक जाते है, वहीं हमारे समाज के जनप्रतिनिधि दब्बू और डरपोक बने हुए है. ऐसे जनप्रतिनिधियों को जाग्रत करने के उन्हें सबक सीखाने की भी जरूरत है. इसके लिए सड़क पर उतरकर आंदोलन करना होगा. त्रिवेदी ने यह भी कहा कि वर्ष 2030 तक आरक्षण मुक्त भारत बनेगा. इसकी नींव हमने आज रख दी है. यह बयान बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि बसपा की नेता मायावती देतीं हैं. जो सुप्रीम कोर्ट में याचिका को फैसले तक नहीं ला पाए और अब आरक्षण मुक्त भारत की बात कर रहे हैं.
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उल्लेखनीय है कि मप्र विधानसभा की कुल 230 सीटें हैं. इनमें 148 सामान्य सीटें हैं. अनुसूचित वर्ग के लिए 35 और जनजाति वर्ग के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं. आरक्षण के मुद्दे पर बीजेपी और कांग्रेस अभी साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं. इससे सामान्य वर्ग नाराज है. सरकारी नौकरी में सामान्य वर्ग के अधिकारियों एवं कर्मचारियों की संख्या पांच लाख से भी अधिक है. इतने कर्मचारियों की नाराजगी का लाभ लेने के लिए सपाक्स राजनीति में उतरना चाहता है.
कांग्रेस की कोशिश है कि किसी भी सूरत सरकार विरोधी वोटों का विभाजन न हो. सपाक्स के उम्मीदवार यदि सामान्य सीटों पर चुनाव लड़ते हैं तो वोटों का विभाजन भी होगा. सत्ता विरोधी वोटों के विभाजन से बीजेपी को लाभ होना तय माना जा रहा है. यही वजह हैं कि सपाक्स के राजनीति में उतरने को सत्ता पक्ष के रणनीतिकारों की सफलता कही जा रही है. इसकी वजह भी साफ है. पिछले कुछ उपचुनाव और नगरीय निकाय चुनावों में सपाक्स के कारण नुकसान हुआ है. अगर वह खुद मैदान में उतरेगा तो सत्ता के प्रति नाराजी से मिलने वाले वोट थोकबंद न होंगे. विभाजित विपक्षी मत सत्ता पक्ष को राहत ही देगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)