मप्र की कुल जनसंख्या की लगभग 20 प्रतिशत आबादी आदिवासी है. जनगणना 2011 के मुताबिक, मध्यप्रदेश में 43 आदिवासी समूह हैं. इनमें भील-भिलाला आदिवासी समूह की जनसंख्या सबसे ज्यादा 59.939 लाख है.
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विधानसभा चुनाव 2018 के पहले मप्र की राजनीति में इनदिनों एक नई तस्वीर में रंग भरे जा रहे हैं. ये रंग वास्तव में आदिवासी एकता के नारे के साथ उभरे हैं. आदिवासी युवाओं के एकता नारे ने आदिवासियों का परंपरागत रूप से नेतृत्व करनी वाली कांग्रेस की बैचेनी बढ़ा दी है तो भाजपा के लिए भी यह परेशानी का सबब बन गया है.
मप्र की कुल जनसंख्या की लगभग 20 प्रतिशत आबादी आदिवासी है. जनगणना 2011 के मुताबिक, मध्यप्रदेश में 43 आदिवासी समूह हैं. इनमें भील-भिलाला आदिवासी समूह की जनसंख्या सबसे ज्यादा 59.939 लाख है. इसके बाद गोंड समुदाय का नंबर आता है, जिनकी आबादी 50.931 लाख हैं. इसके बाद कोल (11.666 लाख), कोरकू (6.308 लाख) और सहरिया (6.149 लाख) का नंबर आता है. यूं तो आदिवासी आबादी 20 प्रतिशत हैं, लेकिन सामाजिक और मानव वैज्ञानिक विविधताओं के कारण यह आबादी कभी व्यापक राजनीतिक दबाव समूह की तरह पेश नहीं हुई है. अब मालवा-निमाड़ में नए समीकरणों से आदिवासी राजनीति नई करवट लेती प्रतीत हो रही है.
सामाजिक एवं मानवशास्त्रीय अध्ययनों में सिद्ध हुआ है कि मध्यप्रदेश ईसा काल के पहले से आदिवासियों की आश्रय स्थली रहा है. इतनी पुरानी आबादी होने के बाद भी यह समूह प्रदेश के विकास के साथ कदमताल नहीं कर पाया है. मध्यप्रदेश में भौगोलिक विभिन्नता की तरह ही आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अवस्थाएं भी अलग-अलग हैं. मालवा-निमाड़ में अधिक राजनीतिक चेतन्यता दिखाई देती है तो सहरिया और कोरकू आदिवासियों में ये सजगता अपेक्षाकृत रूप से कम है. समय-समय पर प्रदेश की राजनीति में आदिवासी नेतृत्व तेजी से उभरता है और फिर अचानक गायब हो जाता है. फिर भी जमुना देवी, दिलीप सिंह भूरिया, कांतिलाल भूरिया, फग्गन सिंह कुलस्ते और अब कुंवर विजय शाह, अंतरसिंह आर्य, ओमप्रकाश धुर्वे, रंजना बघेल, निर्मला भूरिया जैसे नेताओं ने आदिवासी राजनीति को धार दी है.
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आदिवासी वोट बैंक मूलरूप से कांग्रेस के साथ रहा है. कुछ वर्षों पहले ये भाजपा के पास आया. यही कारण है कि 47 आरक्षित सीटों में से 32 सीटों पर भाजपा और 15 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है. इसके अलावा प्रदेश में 30 सीटें ऐसी हैं जो आदिवासियों के लिए आरक्षित तो नहीं है, लेकिन उन पर आदिवासियों का वोट निर्णायक होता है. प्रदेश में लोकसभा की 29 में से 6 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित है. इनमें से 5 सीटों पर भाजपा और 1 सीट पर कांग्रेस काबिज है. 6 के अलावा 4 अन्य सीटों पर आदिवासी वोट प्रतिशत फेरबदल करने में सक्षम है.
इस बीच, आदिवासी इलाकों में जय आदिवासी युवा शक्ति यानी जयस के नाम पर एक नई ताकत का उभरना नए राजनीतिक संकेत दे रहा है. 2013 में मध्यप्रदेश के बडवानी जिले में पहली फेसबुक आदिवासी पंचायत बुलाई गई, जिसमें करीब ढाई सौ लोग शामिल हुए. इस पंचायत के बाद आदिवासी अधिकारों के लिए इस संगठन ने आकार लिया. बीते वर्ष महाविद्यालयों के छात्र संघ चुनावों में एक तरफा जीत हासिल कर जयस ने अचानक ध्यान आकृष्ट किया था. कयास है कि आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों पर अपने उम्मीदवार खडे कर यह संगठन दोनों ही पार्टियों के वोट को काटेगा. संगठन आदिवासी इलाकों में भयंकर भूखमरी, कुपोषण, पलायन, बिजली, बेराजगारी, सड़कें और बदतर स्वास्थ्य सेवाओं जैसे मुद्दों को उठा रहा है. 5वीं अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों को स्वशासन प्रदान करने के लिए संसद में कानून भी बनाया गया, लेकिन इतने सालों के बाद आज तक उसे पूर्ण रुप से लागू नहीं किया गया.
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इन्हीं सब मुद्दों को लेकर जनता और संसद का ध्यान आकर्षित करने के लिए जयस 1 अप्रैल से संसद का अनिश्चितकालीन घेराव कर रहा है. जयस के नेता आदिवासियों का पारंपरिक नेतृत्व करने वाले नेताओं पर परिवारवाद का आरोप लगा रहे हैं. वे कह रहे हैं कि अब समाज के सक्रिय युवा जयस के जरिए नीतियां बनाने वाले संस्थानों जैसे विधानसभा और लोकसभा में पंहुचकर आदिवासियों के अधिकारों की बात उठाएंगे. विधानसभा चुनाव 2018 में जयस अन्य राजनीति दलों के साथ गठबंधन को तैयार भी हैं. यानि कि मप्र के आदिवासी युवाओं की यह जागृति प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण का नया परचम लहरा सकती है.
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)