'सैनिटरी नेपकिन पर जीएसटी जीरो', यह और कुछ इसी खबर वाले अन्य तरह के शीर्षकों को 22 जुलाई के अखबारों में मुख्य जगह मिली. हांलाकि जीएसटी परिषद ने अपनी बैठक में कुल 46 निर्णय लिये थे. उनमें से सैनिटरी को टैक्स मुक्त करने की खबर हेडलाइन बनी. यदि चाहें, तो घोर नैतिकवादी यहां यह एक जायज शिकायत कर सकते हैं कि सैनिटरी की जगह 'राखी' को लिया जाना चाहिए था. इसे भी इसी बैठक में टैक्स फ्री किया गया था. इसका भी संबंध सैनिटरी की तरह महिलाओं से ही है, और वह भी प्रेम से परिपूर्ण एक पवित्र बंधन वाले त्यौहार से. और यह भी कि इस निर्णय के एक महिने के बाद ही रक्षाबंधन का त्यौहार भी था. किन्तु बाजी मार ले गया सैनिटरी नेपकिन जिसे आज भी दुकानदार से मांगने से पहले लड़कियां इधर-उधर देखती हैं कि कोई देख तो नहीं रहा है. और फिर धीरे से इतने बुदबुदाहट के साथ बोलती हैं कि दुकानदार को बिना सुने ही समझना पड़ता है. आज उसी वस्तु की इतनी खुलेआम घोषणा.


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जी हां, बदल रहे ('बदल गए' नहीं) समाज के मिजाज की बारीकियों को इन्हीं तरीकों से पकड़ा और भांपा जा सकता है. यदि हम इसे समझ और स्वीकार करके अपने विधि-विधानों में उसके अनुसार बदलाव कर लेते हैं, तो उसके विकास की गति को पंख लगाने वाले कहलाने लगते हैं. अन्यथा जैसा कि हिन्दी के महान उपन्यासकार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था, 'परम्परायें तो टूटेंगी ही, वे अपने साथ समाज को भी तोड़ डालेंगी.'


अक्षय कुमार की फिल्म 'पैडमेन' को भारतीय समाज के सभी वर्ग के लोगों ने जिस खुलेपन के साथ स्वीकार करके उसे अपने सिर-माथे पर लगाया, वह इस बात की खुलेआम घोषणा है कि 'हम चाहते क्या हैं?' यह कहीं न कहीं एक घुटते हुए समाज का एक खुला मांग पत्र है.


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केरल के एक प्रसिद्ध मंदिर सबरीमाला का मामला भी कुछ इसी प्रकार का है, लेकिन थोड़े अप्रत्यक्ष रूप से. इस मंदिर में दस से पचास वर्ष की आयु की महिलाओं (सभी महिलाओं का नहीं) का प्रवेश वर्जित था. क्यों? इसलिए, क्योंकि इस आयु के दौरान वे रजस्वला होती हैं, जिसके कारण वे अपवित्र हो जाती हैं. मंदिर की इस परम्परा को न्यायालय में चुनौती दी गई. और न्यायालय ने संविधान का सहारा लेकर अपना फरमान सुना दिया कि मंदिर सार्वजनिक सम्पत्ति है. यदि पुरुषों को प्रवेश की अनुमति है, तो फिर महिलाओं को भी मिलनी चाहिए. पूजा करना महिलाओं का संवैधानिक अधिकार है, और मंदिर में कोई भी जा सकता है.


इससे पहले इसी तरह के दो अन्य मामले भी चर्चा में आये थे. इनमें एक मामला शनि शिंगणापुर का था, तो दूसरा हाजी अली दरगाह का. अलग-अलग धार्मिक समूहों से जुड़े इन दोनों मामलों में न्यायालय ने महिलाओं को प्रवेश दिये जाने के निर्णय सुनाए.


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इस तरह की घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में फ्रांस की विचारक एवं नारीवादी आंदोलन की प्रमुख सिमोन द बोउआर का एक विश्‍व प्रसिद्ध वाक्य अनायास याद आ जाना स्वाभाविक है. उन्होंने लिखा था, 'महिलायें पैदा नहीं होती. वे बनाई जाती हैं.' नारी को लेकर पुरुष प्रधान समाज ने जो भी मान्यतायें गढ़ीं और परम्पराएं बनाईं, उनका उद्देश्‍य उन्हें हीनता का बोध कराना रहा. ‘मासिक धर्म’ के तीन दिनों में उन्हें अपवित्र मानकर समाज ने उनमें अपनी ही देह से नफरत करने के बीज डाल दिये. फिर विडम्बना यह कि प्रति चन्द्रमाह में होने वाली इस प्राकृतिक क्रिया को ‘धर्म’ (मासिक धर्म) भी कहा.


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अब वक्त बदल गया है. धीरे-धीरे समाज की चेतना में यह सत्य प्रवेश करने लगा है कि यह न तो कोई अपवित्र घटना है, और न ही कोई शर्मनाक कार्य. फिर इसकी बात करने में शर्म कैसी. इस तरह के खुले समाज में ही सच्ची मानवता के तत्व विकसित हो सकते हैं.


(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)