जब आकाशवाणी 25 रुपए में कराता था हिंदी कमेंटरी, तब क्रिकेटर कतराते थे
सन 1975 से 1982 तक तो रेडियो की हिंदी कमेंटरी का स्वर्णकाल था. टेलिविजन तब था नहीं. पूरा देश रेडियो लगा कर दिलचस्पी के साथ कमेंटरी सुनता था.
देश भर में हिंदी दिवस मनाया जा रहा है. हिंदी के नाम से सियासत करने वालों की फिर बन आई है. मैं पिछले 50 वर्षों से हिंदी में क्रिकेट कमेंटरी कर रहा हूं. हिंदी कमेंटरी की शुरुआत से इस स्थापित करने तक का सफर मैंने तय किया है. आजकल तो बड़े बड़े क्रिकेट खिलाड़ी हिंदी कमेंटरी में अपनी बहुमूल्य सेवाएं देने में जुटे हैं. मुझे याद है कि जब आकाशवाणी 25 रुपए प्रतिदिन में कमेंटरी कराता था, तब क्रिकेट खिलाड़ी अपने आप को इससे अलग रखते थे, अब पांसा पलट गया है. हिंदी को देश की भाषा कह कर स्वयं को इसके जरिए आगे करने की होड़ मच गई है. कई भूतपूर्व खिलाड़ियों केा अब लगने लगा है कि हिंदी की क्रिकेट कमेंटरी के जरिए हिंदी की सेवा करने के कार्य के लिए उन्हें ही भेजा गया है. अर्थतंत्र कैसे इंसान को चलाता है, इसका ज्वलंत उदाहरण है.
जब सन 1968 में मैंने हिंदी क्रिकेट कमेंटरी की शुरुआत की थी, तब बड़ी खिलाफत हुई थी. खिलाफत करने वालों में अधिकांश हिंदी भाषी लोग ही थे. अंग्रेजों के इस शालीन खेल में हिंदी का क्या काम- ये कहकर लोग ताने कसते थे. जब हिंदी कमेंट्री स्थापित होने लगी. शुरुआत में दुविधा यह हुई कि हिंदी अच्छी जानने वालों को चुनें या क्रिकेट की अच्छी जानकारी रखने वालों को. जिनकी हिंदी अच्छी थी, उन्हें क्रिकेट की जानकारी कम थी. जिन्हें क्रिकेट की जानकारी थी, उनकी हिंदी कमजोर थी.आकाशवाणी को तब ऐसे तालमेल की जरूरत थी, जिसमें अच्छी हिंदी व क्रिकेट की अच्छी जानकारी का समन्वय हो.
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सन 1975 से 1982 तक तो रेडियो की हिंदी कमेंटरी का स्वर्णकाल था. टेलिविजन तब था नहीं. पूरा देश रेडियो लगा कर दिलचस्पी के साथ कमेंटरी सुनता था. मेरे पास दक्षिण के असंख्य लोगों के पत्र आते थे, जो लिखते थे कि हिंदी केवल हिंदी फिल्मों व हिंदी की क्रिकेट कमेंटरी के जरिए सीख रहे हैं. तब अच्छी भाषा व कहने अंदाज की भी बड़ी तारीफ होती थी. आज जब टीवी का जोर हो गया है, तब ध्यान खेल रहे खिलाड़ियों की तस्वीरों पर ज्यादा और कमेंटेटर की भाषा पर कम हो गया है.
मुझे याद है, बरसों पहले हमारे एक जान पहचान वाले व्यक्ति इंग्लैंड यात्रा पर गए थे. उन्हें ज्यादा अंग्रेजी आती नहीं थी. अंग्रेजी फर्राटेदार बोलने वाले को वह बड़ा प्रतिभाशाली मानते थे. वहां से लौटने के बाद वह वह कहने लगे, इंग्लैंड जा कर मैं तो हैरान रह गया. वहां तो छोटा से छोटा बच्चा फर्राटेदार अंग्रेजी बोलता है. मैं मुस्करा पड़ा. मैंने कहा, अंग्रेजी उनकी मातृभाषा है, तो बच्चे भी अंग्रेजी ही बोलेंगे ना. हमारे यहां इसी तर्ज पर हिंदी कमेंटरी कराई जा रही है. जो ठीक जानते हैं, वह तो ठीक है. पर जो नहीं जानते हैं वे अर्थ का अनर्थ कर देते हैं. उदाहरण के तौर पर क्षेत्ररक्षण के दौरान घायल हो कर लड़खड़ाते खिलाड़ी को देख कर इन महान क्रिकेटर से कमेंटेटर बने शख्स ने कहा, उनका चालचलन खराब हो गया है.
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कुछ क्रिकेट खिलाड़ी कहते हैं, हिंदी भी कोई भाषा है. बस बात को समझाते आना चाहिए. व्याकरण की दृष्टि से सही हिंदी बोलने की क्या जरूरत है. बड़े बड़े विदेशी चैनल्स हैं, कि देश की भाषा में क्रिकेट की बात के नाम पर हमारी मातृभाषा का मखौल उड़ा रहे हैं. वे तो क्रिकेट खिलाड़ियों के नाम का उपयोग कर के अपनी टीआरपी बढ़ाने की फिक्र में लगे हैं. इस बढ़ी हुई टीआरपी का उपयोग विज्ञापनों की आय बढ़ाने में किया जाता है. उन्हें हमारी भाषा से कोई प्यार तो है नहीं. उन्हें अपनी व्यावसायिक भूख पूरी करने की फिक्र है.
मैं इसलिए कहता हूं कि हिंदी को मातृभाषा से उठा कर राष्ट्रभाषा का दरजा कोई विदेशी नहीं दिलाएगा. यह काम हमें खुद ही करना होगा. इसलिए हिंदी के खिलाफ किए जाने वाले किसी भी दुस्साहस को जमीनी स्तर पर ही रोकना होगा. टेलिविजन के खेल चैनलों पर हिंदी के प्रयोग को भ्रष्ट होने से बचाना होगा. जो मातृभाषा से प्यार नहीं करता, वह देश से भी प्यार नहीं कर सकता. इसलिए कहा जाता है कि भाषा का संस्कारों से सीधा संबंध होता है. इसलिए हिंदी दिवस पर कसम खाएं कि भाषा की अस्मिता को बचाए रखना है.