Opinion : खंडित जनादेश की व्याख्या का एक नियम क्यों नहीं?
कर्नाटक में जिस तरह से खंडित जनादेश आया वह नई परिस्थिति नहीं है. पहले भी खंडित जनादेश की ऐसी जटिल स्थितियां बन चुकी हैं, लेकिन दिक्कत ये रही कि उन परिस्थितियों में एक से फैसले नहीं हुए. यानी अलग-अलग किस्म की नजीरें हैं.
कर्नाटक कांड गुत्थी बन गया. दो दिन पहले राजनीतिक पहेली बन गया था और इस समय कानूनी मसला बनकर हमारे सामने है. वैसे राज्यपाल की इच्छा से येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई जा चुकी है, लेकिन इसी बीच आधी रात सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खोलकर सुनवाई भी हुई और येदियुरप्पा को शपथ दिलाए जाने को चुनौती दे दे गई. यानी यह मान लेने में कोई दुविधा नहीं होना चाहिए कि कर्नाटक एक गुत्थी बन गया और अब इसे सुलझाने की कोशिश होनी चाहिए. कम से कम इतना तो तय हो ही जाना चाहिए कि अगर कर्नाटक जैसी स्थिति आगे कहीं और बने तो हमारे पास पहले से निश्चित व्यवस्था हो.
कोई नई परिस्थिति नहीं है यह
कर्नाटक में जिस तरह से खंडित जनादेश आया वह नई परिस्थिति नहीं है. पहले भी खंडित जनादेश की ऐसी जटिल स्थितियां बन चुकी हैं, लेकिन दिक्कत ये रही कि उन परिस्थितियों में एक से फैसले नहीं हुए. यानी अलग-अलग किस्म की नजीरें हैं. जब भी ऐसी स्थिति आई तो अपने हित में जो नजीर माफिक लगीं.. उसका हवाला देकर फैसला कर दिया गया. लगभग हर बार यही कहा गया कि इस मामले में राज्यपाल का स्वविवेक ही सबकुछ है.
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संप्रभुता किसकी
यानी मसला यह है कि अपने लोकतंत्र में चुनाव के बाद ऐसी परिस्थितियां कई बार बनने के बावजूद हम ऐसी वैधानिक व्यवस्था नहीं बना पाए, जिसके आधार पर निर्विवाद फैसला किया जा सके. विधान के अभाव में हमने राज्यपाल रूपी संस्था के विवेक को यह अधिकार दे दिया कि वह जैसा चाहे फैसला कर लिया करें. वैसे राज्यपाल के स्वविवेक में यह शर्त नत्थी है कि वह पहले से बने विधान के दायरे में रहकर ही अपने विवेक का इस्तेमाल करें. इस तरह विधान ही सर्वोपरि है. गौरतलब है कि हम सिर्फ लोकतंत्र ही नहीं हैं बल्कि उससे भी ऊंची चीज़ यानी वैधानिक लोकतंत्र हैं, इसीलिए हमारे लोकतंत्र में संप्रभुता अगर किसी की है तो वह विधान संविधान की ही है. इसीलिए विधायिका, न्यायपालिका या कार्यपालिका को संप्रभु नही माना जाता और इसीलिए हर मामले में सबसे पहले कानून बनाकर रखने का काम किया जाता है. अब अगर जनआकांक्षा या जनादेश को पढ़ने का नियम ही हम न बना पाए हों तो इससे ज्यादा खराब बात और क्या हो सकती है.
सुप्रीम कोर्ट का दखल फिर एक मौका है
ऐसा मौका पहले भी कई बार आ चुका है. लेकिन न्यापालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच प्रभुत्व का फैसला कभी नहीं हो पाता. अगर सिर्फ कर्नाटक के मसले को सामने रखें तो यहां राज्यपाल के स्वविवेक यानी प्रभुत्व या संप्रभुता की बात दिखती है. कर्नाटक कांड में जो हुआ वह राज्यपाल के इसी स्वविवेक के आधार पर हुआ. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने येदियुरूप्पा के शपथ ग्रहण समारोह पर हाल फिलहाल रोक लगाने से इनकार कर दिया. हालांकि इस मसले पर विचार के लिए अदालत ने आगे की तारीख जरूर दे दी. इसका मतलब है कि अदालत ने इसे विचार के लायक माना है. अब जब इस स्तर पर फिर से बात उठी है तो कुछ न कुछ नया फैसला तो होगा ही. वह फैसला नजीर बनकर कानून की शक्ल लेगा. इसे ही लॉ ऑफ प्रिसिडेंस कहते हैं. बेशक यह आगे काम में आएगा, लेकिन क्या ऐसी नई व्यवस्था बन पाना आसान है.
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न्यायपालिका की भी अपनी सीमा है
यहां एक बार फिर दोहराने की जरूरत है कि अपना लोकतंत्र किसी की भी संप्रभुता को स्वीकार नहीं करता. इसमें अप्रत्यक्ष रूप से जनता की ही संप्रभुता समझी जाती है. जनता ही लोकतांत्रिक व्यवस्था की निर्माता है यानी तीनों व्यवस्थाओं की नियंता है. बस जनता पर एक ही प्रतिबंध है कि वह अपने बनाए संविधान से बंधी रहती है. इसी आधार पर न्यायपालिका यह फैसला करती है कि जनता के बनाए संविधान के मुताबिक क्या सही है और क्या गलत. न्यायपालिका पर भी यह बंध है कि वह अब तक स्वीकृत संविधान में ही सही या गलत का तर्क ढूंढे. यहां यह गौर कराया जा सकता है कि कर्नाटक जैसी परिस्थितियां पहले भी आई हैं, इसी तरह तब भी गंभीर विचार विमर्श हुए हैं, औपचारिक सुनवाइयां हुई हैं, लेकिन कोई एक और सिर्फ एक सिद्धांत नहीं बन पाया, जिसके आधार पर किसी चुनाव के बाद खंडित जनादेश की सम्यक व्याख्या की जा सके. क्या इसी सिद्धांत के निर्धारण का काम आज नहीं हो जाना चाहिए?
अकेली न्यायपालिका पर यह जिम्मेदारी डालना कितना ठीक?
फिलहाल मसला खंडित जनादेश की व्याख्या करने के नियम का है. इसमें दिक्कत यह है मौजूदा दौर में मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना की प्रवत्ति बढ़ रही है, लेकिन भिन्न-भिन्न मतों में क्या यह तय नहीं हो सकता कि नैतिक क्या है और अनैतिक क्या है. यानी लोकतंत्र के लोक के लिए हितकारी क्या है और अहितकारी क्या है? इसे तय करने की जिम्मेदारी न्यायपालिका पर डालना उस पर अतिरिक्त बोझ डालना है. वह मुख्य रूप से संविधान के मुताबिक सही गलत को ही देखती है. अब बचा राजनीतिक तबका सो हम यह देख ही रहे हैं कि वे अपने-अपने हिसाब से अपने अपने हित के लिए अलग-अलग मौकों पर अलग अलग तर्क देते हैं. कुछ राजनीतिक मानकर चलने लगे हैं कि सत्ता किसी भी साधन से आए उसके बाद जनहित का कार्य करने में वे नैतिकता का निर्वाह कर लेंगे. यानी नैतिकता का महत्व साधन में हो या साध्य में हो यह तय नहीं हो पा रहा है. यह ऐसा जटिल प्रश्न है कि जिसका उत्तर पाने के लिए सोचविचार अब विद्वत समाज ही कर सकता है. देश के इसी विवेकवान तबके पर यह जिम्मेदारी आन पड़ी है कि नैतिक अनैतिक के भेद पर कम से कम निसंकोच चर्चा तो शुरू करें. ये बातें उठेंगी तो विधायिका तक भी पहुंच जाएंगी और विधान की व्याख्या करने में न्यायपालिका की भी मदद करेंगी. वरना हम अतंर्विरोधी नजीरों का बहाना लेकर विवाद ही करते रहेंगे.
(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)