मानवता के हित में सबसे बड़ा काम करने वालों को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है. दुनिया के हर छोटे बड़े देश के मीडिया में नोबेल पुरस्कार पाने वालों की चर्चा बड़े शौक से होती है. मानवता के हित में कार्य करने वालों केे पिछले कामों को भी निकालकर देखा जाता है. लेकिन अपने देश में इस बार नोबेल पुरस्कार पाने वालों की ज्यादा चर्चा नहीं हुई.


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बहरहाल कई क्षे़त्रों में यह पुरस्कार हर साल दिया जाता है. इस साल भी भौतिकी, रसायन, चिकित्साशास्त्र, शांति, अर्थशास्त्र के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कारों का एलान हो चुका है. इन क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्यों के लिए जिन्हें ये पुरस्कार मिले उनके योगदान की थोड़ी बहुत चर्चा हुई भी, लेकिन सिर्फ एक रस्म के तौर पर ही. वैसे वैज्ञानिक क्षेत्र में किसी के योगदान की समीक्षा करना आसान भी नहीं है. समीक्षा के लिए उस क्षेत्र में विशेषज्ञता की दरकार होती है. खासतौर पर अर्थशास्त्र के क्षेत्र में इस बार नोबेल पाने वाले दो अर्थशास्त्रियों के शोध कार्यों की चर्चा मीडिया में बहुत ही कम दिखी. जबकि अर्थशास्त्र ही वह क्षेत्र है जिसे मानव जीवन के दूसरे क्षेत्रों का निर्धारक माना जाता है. ये बात सही हो या गलत? लेकिन है ये एक हकीकत कि इस समय दुनिया में लगभग हर देश की राजनीतिक सत्ताएं अपने देश की आर्थिक वृद्धि को ही मानव विकास मान रही है.


इस लिहाज़ से भी अर्थशास्त्र को ही सभी विज्ञानों का निर्धारक क्यों नही माना जा सकता. आइए देखते हैं कि इस बार दुनिया के इन दो विद्धानों को उनके किन उल्लेखनीय कार्यों के आधार पर नोबेल के लिए चुना गया है? या चुननेवालों ने उन्हें क्यों चुना होगा?


प्रोफेसर नोर्डहाउस और रोमर को साझातौर पर मिला है नोबेल
इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल येल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर. विलियम डी नोर्डहाउस और न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पॉल रोमर को साझेतौर पर मिला है. नोर्डहाउस 77 साल के हैं और रोमन 62 के. लंबे समय से अपने अपने काम पर लगेे रहने के कारण दोनों के ही काम का दायरा इतना बड़ा है की एक नजर में उनके शोधकार्यो को देख पाना खुद में एक बहुत बड़ा काम है. बहरहाल ये दोनों विद्धान कई दशकों से आर्थिक विकास के निर्धारकों और पर्यावरण संगत आर्थिक विकास के तरीकों की खोज में लगे हैं. गौरतलब यह भी है कि इस बार का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर किए गए कामों पर केन्द्रित है. प्रोफेसर नोर्डहाउस ने 4 दशकों से ज्यादा समय जलवायु परिवर्तन और उससे हो रहे नुकसान को आर्थिक रूप से देखने में लगाया है. वहीँ प्रोफेसर रोमर ने तकनीकी आविष्कारों को बढ़ावा देने और उसे आर्थिक विकास से जोड़ने पर काम किया है. दोनों विद्वानों के कामों में एक समानता भी है. दोनों ही मानते हैं कि किसी देश के आर्थिक विकास में लोकनीतियों के जरिए बदलाव लाने में सरकारी भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है. यह भी गौरतलब कि इन पुरस्कारों की घोषणा से कुछ घंटे पहले ही संयुक्त राष्ट्र के एक पैनल ने कहा था कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान से होने वाली तबाही को सीमित करने के लिए तुरंत ही लोकनीतियों में बड़े बदलावों की जरूरत है. नोबेल पुरस्कार समिति ने भी कहा है कि इस बार के विजेताओं का चुनाव इस बात पर भी जोर देने के लिए है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की कितनी ज्यादा ज़रूरत है.


पुरस्कार पर दोनों की अलग अलग प्रतिक्रियाएं
पुरस्कार मिलने के फौरन बाद प्रोफेसर नोर्डहाउस और प्रोफसर रोमर की प्रतिक्रियाओं काफी अलग थी. जहाँ नाॅर्दोस ने निराशा जताई कि वह अब तक खुद अपने ही देश में अपने किए कामों को लागू नहीं करवा पाए. उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन को रोकने की नीतियां अभी विकसित किए गए उपायों से बहुत ज्यादा पीछे हैं. वहीं प्रोफेसर रोमर की प्रतिक्रिया काफी आशावादी थी. उनका कहना था की सरकारें तकनीकी बदलाव की मदद से बहुत कुछ हासिल कर सकती हैं. मसलन जिस तरह ओजोन लेयर को हानि पहुचाने वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन के एमिशन को काबू में लाने में दुनिया को काफी सफलता मिली थी वैसे ही सरकारों की पहल से जलवायु परिवर्तन के दूसरे कारणों से भी निपटा जा सकता है. आइए देखते हैं कि आखिर हैं कौन ये दोनों विद्वान.


प्रोफेसर. विलियम डी नोर्डहाउस के उल्लेखनीय कार्य
अमेरिका की विश्व प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी एमआईटी से 1967 में नोर्डहाउस ने अर्थशास्त्र में डोक्टरेट की थी. उसके बाद वे येल यूनिवर्सिटी में मेम्बर ऑफ फैकल्टी बन कर आ गए और हमेशा वहीं रहे. वैसे तो उन्होंने आर्थिक वृद्धि के सूचकों से जुड़े मुद्दों और मापने के तरीकों पर भी काफी काम किया है. लेकिन नोर्डहाउस ने पिछले 4 दशकों में अपना ज्यादातर समय सरकारों को जलवायु परिवर्तन के परिणामों को सीमित करने के लिए आर्थिक उपायों को अपनाने के लिए राजी करने में लगाया है. अंग्रेजी में इसे ग्रीन एकांउटिंग कहते हैं. ग्रीन एकांउटिंग से मोटे तौर पर यह मतलब लगाया जाता है कि प्र्यावरण को हुए नुकसान को आर्थिक वृद्धि के साथ रखकार समीक्षा करना. सन 1970 के आस पास जब विश्व में प्रदूषण को लेकर चिंताएं बढ़ने लगीं तब नोर्डहाउस सहित कई अर्थशास्त्रियों ने प्रदूषण-कर लगाने को प्रभावी उपाय माना था.


प्रोफेसर नोर्डहाउस के सबसे प्रासंगिक कार्यों में कार्बन एमिशन को टैक्स के दायरे में लाए जाने की व्यवस्था की रूपरेखा बना कर देना भी है. उनका कहना रहा है कि सरकारों को प्रदूषण फैलाने वाले उद्यमों से पर्यावरण और लोगों के स्वास्थय को पहुंचाई हानि का हर्जाना लेने की नीति बनानी चाहिए. यह संकल्पना काफी लम्बे समय से अर्थशास्त्रियों के बीच एक बड़ा आकर्षक उपाय है. नोर्डहाउस नें नोबेल पुरस्कार की घोषणा के बाद भी यह बात दोहराई कि प्रदूषण कर लगाने के आलावा और कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है. जलवायु परिवर्तन से फसल बर्बाद होने और सूखा और बाढ़ जैसी कई विपत्तियों से होने वाले घाटे की कीमत का सही अनुमान लगाने के लिए प्रोफेसर नोर्डहाउस ने एक आर्थिक मॉडल विकसित किया था. इस मॉडल को उन्होंने डाइनेमिक इंटीग्रेटेड क्लाइमेट-इकॉनमी मॉडल कहा. उन्होंने कहा कि इस मॉडल का नाम इस बात की तरफ इशारा करता है कि हम जानते बूझते हुए पृथ्वी के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. नोबेल कमिटी ने भी कहा किप्रोफेसर नोर्डहाउस को ग्रीनहाउस गैसों से हो रहे नुकसान से निपटने का सबसे प्रभावी उपाय विकसित करने के लिए सम्मानित किया जा रहा है.


नोर्डहाउस के बनाए तरीके आज भी उद्योग मानकों के रूप में काम में लिए जाते हैं. संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट ‘डेंजर्स ऑफ क्लाइमेट चेंज’ का आधार भी प्रोफेसर नार्दोस की दी परिकल्पना ही है. इस रिपोर्ट में कहा गया है की किसी बड़े हादसे को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को मिल कर वैसा काम करना होगा जैसा इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया.


प्रोफेसर पॉल रोमर के उल्लेखनीय कार्य
बासठ साल के प्रोफेसर रोमर ने अपनी डॉक्ट्रेट शिकागो यूनिवर्सिटी से की. उनके उल्लेखनीय कार्यों में आर्थिक विकास के निर्धारकों को समझने और विकसित करने के कार्य शामिल हैं. प्रोफेसर रोमर ने नवोन्वेश और आविष्कारों को विकास का बहुत बड़ा निर्धारक माना. उनका कहना है कि तकनीकी आविष्कार को इस समय कोई देवीय चीज़ के रूप में देखा जाता है जबकि इसे लोकनीति का हिस्सा होना चाहिए. रोमर के मुताबिक आविष्कार कोई मौसम की तरह नहीं है जिस पर मानव का नियंत्रण न हो बल्कि यह एक टूल की तरह है जिसे नियंत्रित भी किया जा सकता है और जिसे बढ़ावा भी दिया जा सकता है. रोमर ने 1980 और 1990 के दशक में लिखे शोध पत्रों में इसी संकल्पना को विकसित करने का काम किया. अपने शोधअध्ययन के बाद उनका सुझाव है कि सरकारें अविष्कारों को बढ़ावा देने के लिए शोध कार्यों में निवेश करें. सरकारों को ऐसे कानून बनाने चाहिए जो इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी की ओनरशिप को गवर्न कर सकें और नई खोजों को पुरस्कृत कर सकें.


सन 2015 में छपे अपने एक आलेख में रोमर ने किसी देश की वृद्धि को सिर्फ आंकड़ों से निर्धारित करने वाले कई दूसरे अर्थशास्त्रियों की आलोचना की थी. वे इसे ‘उंजीपदमेे’ कहा करते थे. उनका कहना था की कई बार आंकड़े राजनीतिक ज्यादा हो जाते है जिन्हें दिखाया विज्ञान की तरह जाता है.


रोमर को 2016 में वर्ल्ड बैंक का चीफ इकोनॉमिस्ट भी बनाया गया था. लेकिन 15 महीने के अंदर ही वल्र्ड बैंक के द्वारा जारी की जाने वाली रेटिंग्स में राजनीतिक प्रभाव के कारण गड़बड़ी देखने के बाद उन्होंने उस पद से इस्तीफा दे दिया था. यानी हम मानकर चल सकते हैं कि रोमर राजनीतिकों के लिए अरुचिकर रहे हैं.


रोमर ने पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन की समस्या पर कहा था कि इस समय समस्या यह कि लोग सोचते हैं की पर्यावरण को बचाना बहुत खर्चीला और मुश्किल काम है. और इसी बेबसी के कारण वे लोग इस समस्या को समस्या मानने से ही इनकार कर देते हैं. और ऐसा बर्ताव करते हैं जैसे वे इस समस्या के बारे में जानते ही नहीं. लेकिन अगर सरकारें चाहें तो नागरिकों के साथ मिलकर इस काम को उसी तरह कर सकती हैं जिस तरह क्लोरोेफ्लोरो कार्बन को कम करने के लिए काम किया गया था.


अब अगर भारतीय संदर्भ में रोमर के काम को देखें तो पहली नज़र में ही दिखता है कि हम शोध, आविष्कार या नवोन्मेश को अपने बूते के बाहर मानकर चल रहे हैं. और ऐसा इसलिए मान रहे हैं कि इन कामों पर पर्याप्त खर्च करने की हमारी हैसियत अभी नहीं बन पाई. भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां आज भी आधी से ज्यादा आबादी कृषिकर्म पर निर्भर हो और कृषि के क्षेत्र में शोध पर हमारा बजट नगण्य हो तो रोमर के सुझाव पर आगे और बात करने का फायदा ही क्या है? लेकिन यह भी तो हम देख रहे हैं कि औद्योगिक क्षेत्र में शोध और विकास पर निजी क्षेत्र का खर्च खूब बढ़ रहा है. यानी रोमर के दिए ज्ञान की पुष्टि जिस तरह से उद्योग व्यापार के क्षेत्र में हो रही है उसी तरह कृषि क्षेत्र में क्यों नहीं हो सकती? खासतौर पर उस देश में जहां लोकतंत्र हो और उस लोकतंत्र की अधिसंख्य आबादी कृषि पर निर्भर हो.


बहरहाल नोर्डहाउस और रोमर को नाबेल दिया जाना बाकी दुनिया के लिए भले ही उतनी बड़ी बात न मानी जा रही हो लेकिन भारतीय संदर्भ में उसे महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए था. खासकर आज के समय में जब भारत का केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड एक इमरजंसी प्लान यानी आपात योजना बनाने की सोच रहा हो, तब तो इन विद्धानों की खूब चर्चा होनी चाहिए थी. लेकिन अफसोस, अबतक यह चर्चा उतनी दिखी नहीं.


(लेखिका, मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)