तारे जमीन पर फिल्म में हिंदी क्लासरूम का एक सीन हैं जिसमें हिंदी के टीचर बच्चों से कविता पाठ करने के लिए एक पेज खोलने के लिए बोलते हैं. कविता का शीर्षक होता है ‘दृष्टिकोण’-
ऊपर से देखूं तो है खुला आसमान
बादलों से भरा भरा तेरा ये जहान
जब तक ना तरस जाएं पीने को हाथी
या कूद के दिखाएं ये मेरे साथी
साइकल की घंटी या कंकड़ या माटी
या तुझ पर बरस जाए अंधे की लाठी
तब सब को दिखे है तू पानी सी नदी
तू तो हे तू अपनी प्यारी सी नदी.
फिल्म के मुख्य किरदार ईशान से इस कविता का अर्थ समझाने के लिए कहा जाता है तो वह बोलता है- जो दिखता है हमको लगता है वो है और जो नहीं दिखता है हमको लगता है वो नहीं है लेकिन कभी-कभी जो दिखता है वो नहीं होता और जो नहीं दिखता है वो होता है. इस बात पर शिक्षक नाराज होकर उसे फटकार देता है और दूसरे बच्चे से कहता है कि वो समझाए. दूसरा बच्चा कविता की एक रटी रटाई व्याख्या सुना देता है. बाद में ईशान के बगल में बैठा बच्चा बोलता है कि कविता का सही अर्थ तो तुमने समझाया बाकियों ने तो रटे हुए उत्तर दिये.


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फिल्म का यह सीन हमारी शिक्षण व्यवस्था और ज्यादातर शिक्षकों के पढ़ाने के तरीके को बताता है. जहां हम सिर्फ पढ़ा रहे हैं, सिखा कुछ नहीं रहे हैं. यह सिलसिला प्ले स्कूल से शुरू होता है और तब तक चलता है जब तक आप पढ़ रहे होते हैं. दरअसल शिक्षा के नाम पर हमने खानापूर्ति करना सीख लिया है. अगर हम आधुनिक भारत में शिक्षा के विकास पर नज़र डालें तो हमें समीतियां बहुत नज़र आती हैं, सुझाव भी बहुत दिखते हैं लेकिन बदलाव उस स्तर का नज़र नहीं आता है. अगर शुरू से देखें तो-


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1813 में लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में लाया गया चार्टर एक्ट वो शुरुआत थी जिसने हमारे देश में शिक्षा का भट्ठा बैठाना शुरू किया. लॉर्ड मैकाले ने जिस शिक्षा की बात की थी उसके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य ऐसे वर्ग को तैयार करना था जिसे नौकरियों पर रखा जा सके ताकि भारत की जनता पर शासन करने में आसानी हो सके. 1854 में वुड्स डिसपैच समिति ने माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा शुरू कर चली आ रही शिक्षा व्यवस्था में सुधार पर बल दिया जिससे आने वाली पीढ़ी व्यावसायिक जीवन के लिए तैयार हो पाए.


हंटर कमीशन 1882 ने व्यावसायिक और व्यापारिक शिक्षा पर बल दिया, सरकार ने शिक्षा के प्रबंध के लिए व्यापारियों से अनुदार राशि लेने का नियम बनाया और कुल मिलाकर शिक्षा में निजी हस्तक्षेप की शुरुआत हुई. बस खास बात ये थी की आयोग ने महिला शिक्षा पर ज़ोर देने को कहा था. 1929 में आई हार्टोग कमेटी ने भी पुरानी बातों को ही अलग अंदाज़ में कहा बस पहली कक्षा में प्रवेश लेने वाले जो बच्चे 4-5 कक्षा तक आते आते स्कूल छोड देते थे, उन्हें रोकने के लिए सरकार को कुछ सुझाव दिये.


1935 में सार्जेंट प्लान के तहत प्रांतीय सरकारों को स्वायत्तता दी गयी. उस दौरान उच्च शिक्षा का तो विस्तार हुआ लेकिन माध्यमिक शिक्षा अब भी सुस्त ही थी. इसके बाद 1984-49 में राधाकृष्णन आयोग आया. इसने शारीरिक प्रशिक्षण और दूसरी सामूहिक क्रियाओं पर ज़ोर दिया . आयोग का इस बात पर विशेष जोर था कि माध्यमिक स्तर से ही शिक्षा के साथ साथ भौतिक और शारीरिक विज्ञान के मूल सिद्धांत की जानकारी दी जाए. ग्रेज्यूएशन के तीन साल होने का सुझाव भी इसी आयोग का था.


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डॉ. लक्ष्मण स्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में सन् 1952 में 'माध्यमिक शिक्षा आयोग' की स्थापना की गयी जिसने शिक्षा में विविधता लाने, वस्तुनिष्ट परीक्षा की पद्धति को अपनाने, सांकेतिक अंक देने और उच्च तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम में एक कोर सब्जेक्ट अनिवार्य करने की सलाह दी. प्रो. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में 1964-66 में कोठारी आयोग ही वो पहला आयोग था जिसने विस्तार से भारतीय शिक्षा पद्धित का अध्ययन किया और इसी का नतीजा था कि 1968 में 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति' का जन्म हुआ.


1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को केंद्रीय मंत्रिमंडल की स्वीकृति मिली. इस नीति की अहम बातें थी- देश के सभी भागों में शिक्षा के समान ढांचे अपनाना, शिक्षा में धीरे-धीरे निवेश को बढाया जाना, कमजोर वर्ग के छात्रों के लिए छात्रवृत्ति योजनाएं जिससे वो पढ़ाई के लिए प्रेरित हो, स्कूल स्तर पर विज्ञान, तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा पर खास ध्यान दिया जाना चाहिए. 1985 में प्रो कुलदैस्वामी की अध्यक्षता में शिक्षा कार्यदल बनाया गया. इसका उद्देश्य व्यावसायिक औऱ तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देना था.


1986 में इस बात को  महसूस करते हुए कि शिक्षा में व्यापक बदलाव किये जाने की ज़रूरत है इसे ध्यान में ऱखते हुए 'शिक्षा की चुनौती-नीतिगत परिप्रेक्ष्य' नाम से एक प्रपत्र भारत सरकार ने बनाया. इसमें जो बात कही गई उसके हिसाब से 21 वीं सदी की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बच्चों को तैयार किया जाना चाहिए. 1990 में आचार्य राममूर्ति समिति बनी जिसने शिक्षा में आर्थिक, क्षेत्रीय और लिंगभेद से पैदा होने वाली विषमताओं पर ध्यान देने की बात कही जिससे समानता औऱ सामाजिक न्याय स्थापित हो सके इसके अलावा कौशल विकास औऱ सेमिस्टर सिस्टम शिक्षा में मोड्यूल जैसी बातों के बारे में बात रखी.


1992 में आई यशपाल कमेटी ने प्राथमिक शिक्षा को रोचक बनाने, उबाऊ और गुणवत्ताहीन परीक्षा प्रणाली को रोचक बनाने और शिक्षा को तकनीक से जोड़ने की बात कही. साथ ही पहली बार शिक्षा में बच्चों के बस्ते के बोझ को कम करने की बात भी रखी. इसके बाद जनार्दन रेड्डी की अध्यक्षता में आई संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी कोई नई बात नहीं कही गई बस पुरानी बातों में ही थोड़ा संशोधन किया गया.


2005 में एनसीएफ यानि शिक्षा का लक्ष्य क्या होना चाहिए, इस बात को लेकर प्रो. कृष्ण कुमार के नेतृत्व में जो एनसीईआरटी के निदेशक थे शिक्षा में सुधार को लेकर कुछ अहम बदलाव की बात कही गई. इसके अनुसार शिक्षा का लक्ष्य बच्चे के स्कूली जीवन को उसके घर आस-पड़ोस के जीवन से जोड़ना होना चाहिए. उन्हें बात करने का मौका दिया जाना चाहिए. उन्हें सुना जाना चाहिए. शिक्षा का दूसरा लक्ष्य आत्मज्ञान है. तीसरा लक्ष्य मूल्य शिक्षा को अलग से न होकर पूरी शिक्षा की प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए. हर बच्चें में अपना कौशल होता है उसे विकसित करने का प्रयास किया जाना चाहिए. इसमें खास बात यह कही गई है कि शिक्षा को मुक्त करने वाली प्रक्रिया के रूप मे देखा जाना चाहिए.


अहम बात ये है कि 100 साल से भी अधिक वक्त से चल रहे शिक्षा के इस विकास में हमने सिर्फ तकनीक और व्यावसायिक शिक्षा के विकास पर जोर दिया. दरअसल पढ़ना है क्योंकि अच्छी नौकरी मिल सके, पढ़ना है क्योंकि कमाना है . इसी सोच का नतीजा है कि हमारी शिक्षा औऱ पढ़ाने के तरीकों में बीते सौ सालों में कोई व्यापक बदलाव नज़र नहीं आता है . हम जिसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कहते हैं उसके मायने ऐसी शिक्षा से होना चाहिए जो हर बच्चे के काम आए, इसके साथ ही हर बच्चे के विकास में समान रूप से उपयोगी हो. ऐसी शिक्षा में बच्चों के सामने समस्या और उसके समाधान के बारे में सोचने की परिस्थिति तैयार की जानी चाहिए जो भविष्य में उसके काम आ सके.


रविन्द्र नाथ टैगौर ने शिक्षा को लेकर कहा है कि  स्वतंत्रता की मौजूदगी में ही शिक्षा को अर्थ और औचित्य मिलता है. उन्होंने तात्कालीन स्कूलों को 'शिक्षा की फैक्‍ट्री, बनावटी, रंगहीन, दुनिया के संदर्भ से कटा हुआ और सफेद दीवालों के बीच से झांकती मृतक के आंखों की पुतली' कहा था. बच्चों को किस तरह पढ़ाया जाना चाहिए और शिक्षकों के पढ़ाने के तरीके पर पीएचडी कर चुकी अनविति अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं कि किस तरह उनकी बेटी को गुणा, भाग, जोड़ लगाना समझ नहीं आ रहा था और स्कूल में कोर्स आगे बढ़ गया था जिसने उनकी बेटी को चिंता में ला दिया था. उसे लगने लगा था कि वह पीछे रह जाएगी लेकिन उन्होंनें अपनी बच्ची को समझाया कि वो पिछड़ रही है तो कोई बात नहीं है लेकिन वो पहले नींव मजबूत करे, अगर शुरुआत ही ठीक नहीं होगी, तो रट-रट कर कितना आगे बढ़ा जा सकता है. अनविति का अनुभव हमारे देश के हर पालक का अनुभव है.


दरअसल शिक्षण संस्थान और शिक्षक बच्चों को पढ़ा नहीं रहे हैं उनका कोर्स पूरा करवा रहे हैं. अगर कोई शिक्षक 'जागृति' फिल्म के शिक्षक की तरह बच्चों को क्लासरूम से इतर बाहर ले जाकर पढ़ाना चाहता है उन्हें दुनिया दिखाना चाहता है, उन्हें डांट कर या मार कर नहीं खेल कर सिखाना चाहता है तो शिक्षण संस्थानों का प्रबंधन ही उस पर हावी हो जाता है. खानापूर्ति करने में लगे हुए शिक्षण संस्थान बस यह चाहते हैं कि जो किताब में लिखा हो वो पढा दिया या बता दिया जाए. समझ में आना न आना उनकी जिम्मेदारी नहीं है. शिक्षण संस्थानों का यह अपना दृष्टिकोण है जिसे वे बच्चे पर डालना चाहते हैं.


(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)