‘‘कठिनाइयों से रीता जीवन मेरे लिए नहीं है. मेरे तूफ़ानी मन को यह स्वीकार नहीं है. मुझे तो चाहिए एक महान ऊंचा लक्ष्य और उसके लिए उम्र भर संघर्षों का अटूट क्रम. ओ कला! तू खोल मानवता की धरोहर. अपने अमूल्य कोषों के द्वार मेरे लिए खोल. अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में मैं अखिल विश्व को बांध लूंगा. छिछला, निरूद्देष्य और लक्ष्यहीन जीवन मुझे स्वीकार नहीं.’’


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कला के सच्चे क़िरदार की सृजनात्मक बेचैनियों, हौसलों और हासिल होते सपनों के आसपास ठहरता मार्क्स का यह कहा एक ऐसे धुनी, ज़िद्दी और काबिल रंगकर्मी के जीवन का सार है जिसके एक सिरे पर आज उपलब्धि की आभा दमक उठी है. ज़िक्र भोपाल की रंगबस्ती के बाशिंदे आलोक चटर्जी का, जिन्हें हाल ही में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय की सर्वोच्च प्रशासनिक कमान सौंपते हुए राज्य सरकार ने बतौर निदेशक चुन लिया है. सूबे के संस्कृति महकमे के अधीन सात बरस पहले स्थापित नाट्य विद्यालय के प्रथम निदेशक के रूप में ‘बिदेसिया’ से मशहूर रंगकर्मी संजय उपाध्याय ने अपनी व्यापक दृष्टि और सघन ऊर्जा से इस संस्था में रंगकला के अध्ययन, अध्यापन और व्यवहारिकी के गुणात्मक मानक तय किए. आलोक ने संजय के निदेशकीय कार्यकाल में अभिनय प्रभाग के प्रमुख होने के नाते नवागत रंगकर्मियों की संभावना को तराशा जिसकी शिनाख़्त पिछली कई प्रस्तुतियों में कायम रही. बहरहाल, संजय और आलोक, दोनों ही राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली के स्नातक रहे. आलोक इस अर्थ में जुदा कि वे स्वर्ण पदक से सम्मानित स्नातक हैं. 



 
आलोक की प्रतिभा के पक्ष में यह शुभ  है कि उन्हें संस्कृति की बुनियादी समझ अपने कुल-कुटुंब से विरासत में मिली. उनके नाना कालीकट भट्टाचार्य ने देहरादून में रहते अनेक नाटकों में अभिनय किया. मां चित्रा भारती को संगीत से गहरा अनुराग था और पिता निशीथ कुमार चटर्जी खुद अपने समय के उद्भट रंगकर्मी थे. यही थाती थी जिसके उत्तराधिकारी के रूप में आलोक ने रंगमंच की चैखट पर सधे पांव प्रवेश किया. आलोक कृतज्ञ भाव से अपने रंग गुरुओं को सुमिरते हैं और बावाकुड़ी वेंकटरमन कारंत, बंसी कौल, अलखनंदन मोहन महर्षि और राम गोपाल बजाज के सानिध्य को सौभाग्य की तरह रेखांकित करते हैं. इन सभी संयोगों के संश्लेश से आलोक की आभा कुछ ऐसी निखरी कि उनके अभिनय के सम्मोहन में दर्शक से लेकर आला दर्जे़ के निर्देशक और कला के पारखी बिंधते रहे हैं. 


आलोक ने संकीर्णताओं और ख़ानाबंदियों से खु़द को आज़ाद रखा है. यही वजह है कि छोटे शहरों, क़स्बों से लेकर महानगरों के संघर्षशील रंगकर्मियों और मुंबई की मंडी तक उनका राब्ता रहा है. एनएसडी, एफटीआई, अनुपम ख़ेर एक्टिंग स्कूल और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता संस्थान ने उन्हें मानपूर्वक अध्यापन और कार्यशालाओं के विशेषज्ञ बतौर आमंत्रित किया. अपनी शख़्सियत के इन तमाम रंगों के बीच आलोक ख़ुद को साधते रहे हैं. फिलहाल मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के सुचारू संचालन की चुनौती है. स्वायत्तता और पराई मंशाओं के बीच बेहतर तालमेल बनाए रखने के लिए इस नवागत निदेशक को ‘धीरोदात्त नायक’ की तरह पेश आना होगा.


संस्कृति विभाग की ओर से जारी आदेश के मुताबिक इस पद पर आलोक चटर्जी का कार्यकाल तीन साल का होगा. यह एक सकारात्मक पक्ष है कि वे नाट्य विद्यालय की सभी गतिविधियों और कार्यपद्धति से परिचित हैं, जो उन्हें तीन साल के कार्यकाल में संस्थान में जरूरी कायापलट करने में मददगार साबित होगा. नई जिम्मेदारी संभालते हुए चटर्जी ने नाट्य विद्यालय को लेकर अपनी प्राथमिकताओं का खुलासा कर दिया है, जिनका प्रस्ताव वे संस्कृति विभाग को भेजेंगे और कार्यकारिणी की अनुमति के बाद प्रस्ताव को मूर्तरूप देने की कोशिश करेंगे.


बकौल आलोक उनकी प्राथमिकता रहेगी कि मप्र नाट्य विद्यालय दूसरे संस्थानों की नकल न करे, बल्कि मप्र की कला और संस्कृति को मुखपत्र की तरह वह सामने रखे. प्रदेश की लोककलाओं को स्कूल से जोड़ने का कार्य किया जाएगा. भोपाल और मप्र के रंगकर्मी स्कूल की गतिविधियों में भाग लेंगे. प्रदेश के अलग-अलग शहरों में वहां के पुराने रंग समूहों के साथ कार्यशालाएं की जाएंगी. एक्सपर्ट ड्रामा स्कूल के प्रतिनिधि होंगे, जो नई अभिनय तकनीक से अवगत कराएंगे. क्षेत्रीय कला-संस्कृति पर आधारित नए नाटक समय तैयार किए जाएंगे. चटर्जी जोड़ते हैं कि स्कूल में छात्रों के लिए पाठ्यक्रम की अवधि एक साल से दो साल और एक साल की इंटरशिप के साथ ही पुस्तकालय का समय बढ़ाने की योजना है. कला-संस्कृति से जुड़ी देशभर में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं की संख्या में भी इज़ाफा होगा. बौद्धिक संवर्धन कार्यक्रम के तहत कविता, चित्रकारी, गायन, नृत्य के साथ विद्यार्थियों से संवाद स्थापित हो सकेगा. आलोक कहते हैं कि बीते 50 सालों में अभिनय की दुनिया में कई बड़े बदलाव आए हैं. इसी को देखते हुए भावी अभिनेताओं को अभिनय की नई मायथालॉजी का अध्ययन कराया जाएगा. आलोक ऐसी कई नई योजनाओं के साथ आत्मविश्वास से भरे हैं.


बहरहाल, अभिनय की प्रखर दीप्ति से आलोकित इस फ़नकार की फ़कीराना फ़ितरत में लयबद्ध होते रंगकर्म की तासीर कुछ ऐसी कि कबीर याद हो आते हैं- ‘‘हमन है इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या’’! जो इस क़िरदार को क़रीब से जानते हैं उन्हें मालूम है कि नाटक और केवल नाटक के लिए आलोक को मरण का त्योहार भी स्वीकार रहा. समझौते के द्वार पर उनकी कसम ने कभी सिर नहीं झुकाया. दमोह (मध्यप्रदेश) में पैदा हुए आलोक और एक सुदूर इरादे की उंगली थामें दिल्ली का रास्ता पकड़ा. वहां से गुरु कारंत की आवाज़ पर रंगमंडल भारत भवन में दाखिला ले लिया. इस बीच मुंबई ने कई बार पुकारा पर आलोक अपनी सौगंध पर टिके रहे. कारंत काल कवलित हुए और रंगमंडल का हसीन सपना भी एक दिन ज़मींदोज़ हो गया. अन्य कलाकारों के साथ आलोक के लिए भी यह गहरा आघात ही था. उन्होंने ‘दोस्त’ के नाम से खुद का रंग समूह बनाया. नए कलाकार जुटाए. नाट्य प्रस्तुतियों का सिलसिला शुरू किया. पर यह सब ‘जीवन के रंगमंच’ की सांसों को थामने के लिए नाकाफी रहा. यही इम्तिहान का वक्त भी था. फांका-कशी का दौर आया. आलोक के पांव डगमगाए भी पर नियति ने हाथ थाम लिया.


 डेथ आॅफ सेल्समेन, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, शकुंतला की अंगूठी और मृत्युंजय के इस किरदार का यकीन उस सुबह को लौटाने के लिए काफी था जहां एक छोर पर ‘नटसम्राट’ का चरित्र रंगमंच पर उनके अभिनय जीवन की स्वर्ण रेखा खींचने को आतुर था. रंगमंडल के दिनों के साथी और सिने दुनिया के चर्चित कला निर्देषक जयंत देशमुख थियेटर की ओर लौटने की ख़्वाहिश लिए एक दिन भोपाल आए और एक रात की ‘बैठक’ में उन्होंने आलोक से ‘नटसम्राट’ की हामी भरवा ली. बस, यही प्रस्थान बिंदु था आलोक के नए उत्कर्ष का. आलोक ‘गणपत बेलवलकर’ के चरित्र में जैसे स्वयं के क़िरदार को जी रहे थे. ऐतिहासिक मंचन और बेतहाशा तारीफें. सम्मान और पुरस्कारों का नया सिलसिला शुरू हुआ. ...और इसी रवानगी में एक दिन उनके निदेशक बनने की सुर्खी फैल गई. मध्य प्रदेश के नाट्य विद्यालय पर पूरे भारत की नज़र है. इसलिए भी कि मध्यप्रदेश ही नहीं, अन्य सूबों से भी तरुण कलाकार रंगकर्म की तालीम लेने इस संस्थान में प्रवेश पाते रहे हैं.


देश की शायद ही कोई ऐसी रंगविभूति हो जो इस विद्यालय में बाहैसियत विशेषज्ञ आमंत्रित न की गई हो. आलोक के लिए गुज़िष्ता सात साल विद्यालय में रहते जैसे अपने भीतर एक भावी निदेशक की संभावना का उजास भी फूट रहा था और नामालूम होकर भी जैसे वे प्रशिक्षण के दौर से गुज़र रहे थे. आलोक की आमद का व्यापक स्वागत हुआ है तो कुछ शिविरों में उनकी प्रशासनिक क्षमताओं को लेकर आशंकाएं भी तैर रही हैं. आलोक का अपना मिज़ाज है. उनका रंगदर्शन, दृष्टि और दिशाएं इस संस्थान को लेकर कुछ अलहदा हैं जो चली आ रही रवायत में निश्चय ही नया अध्याय जोड़ेगी. अपने वक्ती दौर के रंगकर्म के चाल-ढाल और बनती, बिगड़तीं संवरती तस्वीर से वे वाबस्ता हैं. आलोक ने भारतीय रंगमंच की ऐतिहासिक परंपराओं तथा उसके आधुनिक स्थापत्य का गहरा अध्ययन किया है. वे स्मृति, ज्ञान और अनुभव से समृद्ध हैं और वाचिक पर उनकी गहरी पकड़ है. खरोचों, मुश्किलों और मुस्कुराहटों का जश्न मनाना उन्हें रास आता है इसलिए नए मंसूबों के साथ जीना उन्हें गवारा है. वे समावेशी मानसिकता से नाट्य विद्यालय में नई चेतना का स्फुरण करना चाहते हैं. श्यामला हिल्स के ‘रागबंध’ परिसर में नई आहटें आना शुरू हो गई हैं. आमीन!


(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)