हवाई गठबंधन सुर्खियां बटोर सकते हैं वोट नहीं...
बीएसपी प्रमुख मायावती ने जिस तरह के बयान देकर इस गठबंधन का पटाक्षेप किया उससे लगता है कि दोनों दल अलग ही नहीं हुए हैं, बल्कि उनके नेताओं में मनमुटाव भी हुआ है. अगर मायावती के बयानों को गौर से देखा जाए तो बयान कुछ कुछ उसी तरह के हैं जैसे बयान लोकसभा चुनाव होने से पहले सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने दिए थे.
लोकसभा चुनाव 2019 में जबरदस्त हार के बाद उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का गठबंधन आखिरकार औपचारिक तौर पर टूट गया. बीएसपी प्रमुख मायावती ने जिस तरह के बयान देकर इस गठबंधन का पटाक्षेप किया उससे लगता है कि दोनों दल अलग ही नहीं हुए हैं, बल्कि उनके नेताओं में मनमुटाव भी हुआ है. अगर मायावती के बयानों को गौर से देखा जाए तो बयान कुछ कुछ उसी तरह के हैं जैसे बयान लोकसभा चुनाव होने से पहले सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने दिए थे.
नेताजी तब कह रहे थे कि गठबंधन करके सपा यूपी में आधी से कम सीटों पर चुनाव लड़ रही है, इससे पार्टी का जनाधार कम होगा. मायावती ने आरोप लगाया है कि सपा अपना वोट बसपा को नहीं दिला सकी. हालांकि तथ्य इसके उलट तस्वीर दिखा रहे हैं. बसपा को पिछले लोकसभा चुनाव में यूपी में एक भी सीट नहीं मिली थी, वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी 405 सीटों वाली विधानसभा में महज 19 सीटों पर सिमट गई थी.
लेकिन सपा से गठबंधन करने के बाद लोकसभा चुनाव में बीएसपी शून्य से 10 सीटों पर पहुंच गई, वहीं सपा को पिछले लोकसभा चुनाव में भी 5 सीटें मिली थीं और इस चुनाव में भी पांच सीटें ही मिली हैं. इस गठबंधन की नाकामी के बावजूद इतना समझ तो आता ही है कि इस बार सपा-बसपा के साथ आने से मुस्लिम वोटों का बंटवारा नहीं हुआ. इसीलिए विपक्ष को इस बार 16 सीटें मिल गईं, जबकि पिछली बार 7 सीटें ही मिली थीं.
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लेकिन दूसरी बात यह समझ में आई कि सपा के पारंपरिक वोटर यादव और बसपा के पारंपरिक वोटर दलित ने एक दूसरे की पार्टी को बहुत उत्साह से वोट नहीं दिया. गठबंधन के प्रत्याशी अपनी जाति का वोट भी नहीं बटोर पाए. असल में विपक्षी दलों को यहीं पर सोचने की जरूरत है.
कांशीराम
वह क्या वजह रही कि बसपा का दलित वोटर गठबंधन के सपा प्रत्याशी को वोट देने के बजाय बीजेपी की तरफ गया. ठीक यही बात सपा के पारंपरिक वोटर के बारे में कही जा सकती है, जहां से बसपा प्रत्याशी मैदान में था. यानी इन दोनों दलों के पारंपरिक वोटर के लिए गठबंधन से ज्यादा आकर्षण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि का रहा. लेकिन यह सब कैसे हुआ?
इसकी एक बड़ी वजह यह देखिए कि सपा और बसपा दोनों ही पार्टियां लंबे आंदोलनों की पैदाइश थीं. बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम ने लंबे समय तक जमीन पर संगठन का काम किया. उन्होंने दलित मध्यमवर्ग की एक ऐसी फौज तैयार की जो गांव-गांव में दलित समाज के लिए ओपिनियन मेकर का काम करता था. उनकी इस जमीनी मेहनत ने बसपा को न सिर्फ दलित स्वाभिमान का प्रतीक बना दिया, बल्कि बसपा दलितों की आशाओं का इकलौता दीपक बनकर उभरी. कांशीराम की बसपा में दलितों के साथ अति पिछड़ी जातियों को भी पूरी भागीदारी मिली और कुछ हद तक मुसलमान भी उसके साथ आए. इसीलिए 1990 के दशक में जब बसपा को सवर्णों का वोट नहीं मिलता था, तब भी बसपा को 60 के करीब विधानसभा सीटें मिल जाती थीं.
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सीटों की वृद्धि की यह गति धीमी थी, लेकिन इस दौरान जमीन पर बसपा का कैडर बहुत तेजी से सक्रिय था. इस गति को तेज करने के लिए मायावती ने दलित, ब्राह्मण की सोशल इंजीनियरिंग की और 2007 में पूर्ण बहुमत से यूपी की सीएम बनीं. लेकिन सत्ता प्राप्ति के साथ ही बसपा का बहुजन मिशन शिथिल पड़ने लगा.
मुलायम सिंह यादव
इसी तरह समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने 1970 के दशक से ही गैर कांग्रेसवाद की लड़ाई शुरू की थी. 1989 में सत्ता में पहुंचने से पहले उन्होंने जमीनी काम किया और गांव-गांव तक अपने आदमी तैयार किए. मुलायम सिंह के बारे में कहा जाता है कि वे अपने हर कार्यकर्ता को नाम से पुकारते हैं. सपा की यह खासियत रही कि जब पार्टी सत्ता में होती तो अपने कार्यकर्ताओं को फायदा पहुंचाने में कोई संकोच नहीं करती और जब विपक्ष में होती तो लगातार आंदोलनों में सक्रिय रहती. सपा के आंदोलनों का नारा अक्सर हल्ला बोल रहा करता था.
मोदी लहर
इस तरह से देखा जाए तो सपा और बसपा दोनों आंदोलनों के जरिए यूपी में उभरीं और स्थापित हुई थीं. लेकिन 2014 से देश में जब से प्रधानमंत्री मोदी की लहर चली है, तब से ये पार्टियां आंदोलन के बजाय समीकरण भरोसे हो गई हैं. जबकि 2014 के चुनाव में ही मोदी साबित कर चुके थे कि देश में एक नई राजनीति की शुरुआत हो चुकी है. उन्होंने जिस तरह से बीजेपी की सीटें एक झटके में बढ़ाकर तीन गुनी कर दी थीं, उससे ही पता चलता था कि यह किसी जाति या धर्म के समीकरण का मामला नहीं है, बल्कि देश में एक नए किस्म के जोश का समावेश है.
राजनीति में समीकरणों का इस्तेमाल यथास्थिति या छोटे मोटे बदलावों को रोकने में कामयाब हो सकता है, लेकिन किसी जोशीले नारे का मुकाबला उसी जोश से दिया जा सकता है. लेकिन 2014 से 2019 के बीच सपा और बसपा दोनों दलों ने एक भी जन आंदोलन खड़ा नहीं किया. जन आंदोलन तो छोड़िये वे प्रदेश के किसी मुद्दे को राष्ट्रीय मुद्दा तक बनाने में विफल रहे. जनता से संवाद और जनता की सहानुभूति हासिल करने का यह आजमाया हुआ तरीका छोड़कर दोनों दल यह मानते रहे कि उनका वोट बैंक उनका बंधुआ है, जिसे नया कुछ ऑफर किए बगैर भी वह उनके साथ बना रहेगा.
अब जब सपा और बसपा का गठबंधन टूट चुका है. अजित सिंह के राष्ट्रीय दल की सुनवाई नहीं हो रही है और कांग्रेस पहले से ही अलग है, तो बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश का मैदान साफ है. विपक्षी दलों के पास अब दो ही विकल्प हैं कि या तो आखिरी मुगल की तरह अपने महलों तक महदूद होकर रह जाएं, या फिर समाज से जुड़ने की कवायद शुरू करें. ये दोनों ही रास्ते उन्हें तुरंत सत्ता दिलाने वाले नहीं हैं, लेकिन दूसरे रास्ते से उनके जीवित बचे रहने की संभावना जरूर बनी रहेगी.
अब उन्हें जो भी करना होगा जमीन पर करना होगा क्योंकि हवाई गठबंधन सुर्खियां तो बटोर सकते हैं वोट नहीं.
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)