"लछमी देवी दर दर भटकें बेबस निर्धन चार टके को
दुर्गा पर गुंडे लहटे हैं निर्बल अबला जान समझ के.
सरस्वती को दिया मजूरी डांट दपटकर बेलदार ने,
लिया अंगूठा मस्टर बुक पर काटपीट कर ठेकेदार ने.
मातृशक्ति का पर्व मनाते जाएं  हम हर वर्ष
रात जागरण, भजन कीर्तन क्या बढ़िया उत्कर्ष."


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कई साल पहले महिला सशक्तिकरण विषय पर आयोजित भाषण प्रतियोगिता में एक छात्रा ने कुछ ऐसी ही टूटी फूटी कविता के साथ बोलना शुरू किया था. मैं निर्णायक था. इस छात्रा के बोलने के बाद मैंने अनाधिकार ही घोषणा कर दी कि अब इससे ज्यादा बोलने को कुछ बचा नहीं है. प्रतियोगिता सरकारी थी, लिहाजा आयोजक यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि लाडली लक्ष्मी योजना से लेकर महिलाओं से जुड़ी जितनी योजनाएं हैं, प्रतिभागी उस पर बोलेंगे. कई छात्राएं तैयारी के साथ अच्छा बोलीं भी कि सरकार क्या-क्या कर रही है. लेकिन, उस छात्रा ने नाम के प्रतीकों को जोड़कर महिलाओं की स्थिति को जिस सहजता से बयां किया वह झिंझोड़ देने वाला रहा.


अगले पखवाड़े से मातृशक्ति का नौ दिन का पर्व शुरू होगा. इसके कुछ महीने बाद वैभव की देवी लक्ष्मी मैय्या की दीवाली आएगी. फिर वसंत पंचमी को हम सरस्वती पूजन करेंगे. यह सनातन से करते आ रहे हैं और आगे भी इसी उत्साह और पवित्रता के साथ करते जाएंगे. दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती यही तीन नाम हैं जो हम लोग अपनी बच्चियों का सबसे ज्यादा रखते हैं. नए जमाने में इन नामों के पर्यायवाची ढूंढ़ के रखते हैं. एक शक्ति की देवी, मधुकैटभविध्वंसिनी, महिषासुरमर्दनी, रूप,यश,शक्तिदायनी. एक ऐश्वर्य, वैभव की देवी- गरीबों का छप्पर फाड़कर धनधान्य से भर देने वाली. एक ज्ञान,मेधा बुद्धि,चातुर्य की अधिष्ठात्री. वेद,पुराण, कथाओं में अद्भुत बखान है इन देवियों का. कथाओं में तो ये ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों को अपनी अंगुलियों में नचाए रखती हैं. ये कहानियां युगों से चलती चली आ रही हैं. जिस देश में मातृशक्ति की इतनी महत्ता रही हो उस देश को तो कायदे से स्वर्ग होना चाहिए. महिलाओं की स्थिति हर दृष्टि से विश्व में सर्वोपरि होनी चाहिए. पर है क्या..? 


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दुनिया के प्रायः सभी समर्थ देशों ने पर्यटन पर जाने वाली महिला नागरिकों को यह एडवायजरी जारी कर रखी है कि यदि वे भारत जाएं तो जरा संभल के. विश्व में हमारी ख्याति महिलाओं पर बुरी नजर रखने वालों की है. मतलब वे हमें अव्वल दर्जे के दुष्कर्मी मानते हैं. कब क्या घटित हो जाए भगवान जाने. हालात तो ऐसे हो गए हैं कि जो भगवान के करीब दिखते हैं, वे भी ऐसी घटिया हरकतों को अंजाम देने लगे हैं. जेल में गुरमीत राम रहीम की चर्बी अभी तक अच्छे से पिघल भी नहीं पाई थी कि फलाहारी बाबा आ गए. वे भी नारी उद्धार करते पकड़े गए. कई बाबा जेल में हैं. मुहिम चले तो नब्बे फीसदी जेल पहुंच जाएं. 


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नारी, जो शक्ति की प्रतीक है, वह इतनी निर्बल और बेबस क्यों?. इतने तो जानवर भी बेबस नहीं हैं. अभी भी स्त्रीधन, भोग की वस्तु समझी जाती है. मधुकैटभ, महिषासुर, गली-गली, सड़क-सड़क, दफ्तर-दफ्तर, बस, ट्रेन, हवाई जहाज हर जगह मौजूद है. इन राक्षसों की माटी की प्रतिमा को शेरों से नुचवाइए या त्रिशूल से छेदिए. असली तो सड़क पर घूम रहे हैं, मठ मंदिरों, आश्रमों में घात लगाए बैठे हैं. बडे़ दांत, नाखून और सींग वाले नहीं. रेशमी अंग वस्त्रम से सुसज्जित. बचकर कहां जाइएगा.


शुरुआत ही कुछ ऐसी है. अंकुरण के साथ ही मशीन से पता लगाया पेट में है..गर्भ में पल रही है... वहीं मार दो. सुपारी लेने के लिए सफेद कोट पहने आलावाले खड़े हैं. कौन भगवान है यहां जो नृसिंह की तरह ऑपरेशन थियेटर फाड़ के प्रकट हो जाए और प्रह्लाद की तरह बचा ले उस नन्ही अजन्मी को... ज़ो बच भी गई उनमें न जाने कितनी दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती नाम वाली होंगी. उनके पीछे बचपन से न जाने कितने मधुकैटभ पड़े होंगे. कितने ढोंगी हैं हम. दुर्गा कोख में वध्य. राक्षस सड़क पर आजाद. यही चल रहा है, यही चलेगा. ये कोई नई बात, नया ज्ञान नहीं है. इन सबके बावजूद ..फिर भी जयकारा लगाते जाइए बोलिए दुर्गा मैय्या की जय...


हर साल नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट जारी होती है. प्रदेशों में होड़ सी मची रहती है कि महिलाओं के साथ अत्याचार में कौन आगे है..? भ्रूण हत्या कहां ज्यादा होती है? एक प्रदेश के मुखिया ने कैफियत दी कि, चूंकि महिलाओं के मामले में हम संवेदनशील हैं, थाने में रिपोर्ट दर्ज करते हैं, इसलिए आंकड़ों में हम आगे हैं. ज्यादा दुष्कर्मी त़ो वो प्रदेश हैं जहां महिलाओं पर अत्याचार भी होता है और कोई रिपोर्ट भी दर्ज नहीं होती है. वे शायद सही कहते हैं. महिला अत्याचार के आधे से ज्यादा मामले गरीबी और लोकलाज की वजह से दबे रहते हैं. महिलाओं पर जुल्म वहां ज्यादा है, जहां सभ्य लोग रहते हैं. जो जितना बड़ा शहर, वो उतना ही बड़ा दुष्कर्मी. दिल्ली में सत्ता का सिंहासन है. यहां कानून बनता है, लागू होता है, न्याय की सर्वोच्च पीठ भी यही है और सबसे बड़े मानवाधिकारवादी भी यही बैठते हैं. लेकिन, क्राइम ब्यूरो बताता है कि हर मिनट इस महानगर में कहीं न कहीं किसी की इज्ज्त उतरती है.


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इससे बेहतर तो वह असभ्य गांव हैं, जहां शिक्षा और संस्कृति नहीं पहुंच पाई है. वनवासियों के बीच अभी भी महिलाओं का रसूख है. ग्रामीण क्षेत्रों के परिवारों में महिला मुखियागीरी का औसत 36 प्रतिशत है,जबकि शहरों में मात्र 9 प्रतिशत. विधायी संस्थाओं, यानी ल़ोकसभा, विधानसभाओं में हर नौ निर्वाचित पुरुष के बाद एक महिला है. यह औसत वैश्विक पैमाने पर 20 प्रतिशत कम है. महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में बांग्लादेश और श्रीलंका हमसे आगे है. नारी अर्धांगिनी कही जाती हैं. भवानीशंकर जब एकाकार होते हैं तो अर्धनारीश्वर बनते हैं. नर-नारी समानता ईश्वरीय आदेश है. हर देवी का नाम देवता से पहले आता है. राधा-कृष्ण,सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण, गौरी-शंकर. इस संस्कृति की दुहाई देने वाले देश में नारी अभी तक पुरुष के घुटने से ऊपर नहीं आ पाई है. नगरीय और पंचायत चुनावों में जहां इन्हें थोडा़ प्रतिनिधित्व मिला वहां पतियों ने इन्हें अपनी छाया से ही मुक्त नहीं किया. नाम के साथ पुछल्ला तो है ही काम में भी यही दल्ला हैं.


हम मातृपूजक लोग कितने ढोंगी हैं. कभी इस बात को तजबीजिए कि, मुंह से हर क्षण झरने वाली गाली सबसे ज्यादा किसके नाम से दी जाती है. क्या ये सच नहीं है कि..मां और बहन के नाम से? गालियां पुरुषवाचक क्यों नहीं? हर क्षण हमारे इर्द गिर्द मातृशक्ति के साथ शाब्दिक व्यभिचार होता है. हम इसे सुनते भर नहीं बल्कि शामिल भी होते हैं. यह व्यभिचार भी एक तरह से भीषण अत्याचार है, लेकिन इसकी रपट कहां हो? कौन लिखे? आखिरकार, गुनहगार तो हम सभी हैं. नौ दिन देवी पूजने का अर्थ कहां रह जाता है. क्यों करते हैं हम नाहक के ये कर्मकाण्ड. उस बच्ची की वो कविता जो शुरुआत में आपने बांची उससे बड़ी मीमांशा ग्रंथ रच देने पर भी नहीं होगी. चलिए इस नवरात्रि में इन्हीं सब मसलों पर विचार करते हैं. क्योंकि, यह पंडालों में डीजे की धुन पर नाचने व दुर्गा मैय्या की जय बुलाने से ज्यादा जरूरी है.


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)