नई दिल्ली: पश्चिम बंगाल की चुनाव के दौरान बहुत सारे मुद्दों पर चर्चा हो रही है. इन मुद्दों में सबसे बड़ा सीएए और एनआरसी का मुद्दा है. पिछले कई चुनावों से बांग्लादेशी घुसपैठियों को लेकर राजनीति गरमाई रहती है. लेकिन इन मुद्दों की आड़ में  कुछ एवं मुद्दे हमेशा से पीछे छूट जाते हैं  जिनका वास्ता लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से होता है.


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ऐसा ही एक मामला चुनावी माहौल में जी हिंदुस्तान के सामने आया है जो कि एक तरह से बांग्लादेशी घुसपैठियों से ही जुड़ा है. लेकिन इसका नुकसान भारत के किसानों को सालों से उठाना पड़ रहा है. कितनी सरकारी आईं और गईं, लेकिन बांग्लादेश की सीमा पर बसे सीमांत गांवों के किसानों का मुद्दा जस का तस है और कोई भी उसका स्थाई समाधान ढूंढने की कोशिश नहीं कर रहा.



बांग्लादेश के बॉर्डर पर स्थित एक गांव है गोचरी, जो कि स्वरूप नगर विधानसभा क्षेत्र में आता है. यहां की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि सड़क के एक तरफ भारत है तो दूसरी ओर बांग्लादेश. वर्तमान में दोनों देशों के बीच की इस सीमा पर बाड़ नहीं हैं.


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इस वजह से यह घुसपैठियों के लिए बांग्लादेश से भारत में घुसने के लिए मुफीद जगहों में से एक है. सुरक्षा बलों को चकमा देकर घुसपैठिए अपने मंसूबों को अंजाम देने में सफल हो जाते हैं. ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सुरक्षा बलों के जो प्रोटोकॉल हैं वो किसानों के लिए परेशानी का सबब बन रहे हैं. कहा जाए तो ये नियम जमीन वाले किसानों को भूमिहीन में तब्दील कर रहे हैं.  



वहीं किसानों के सामने ये मुसीबत है कि जमीन होते हुए भी वो अपनी पसंद और मौसम के अनुकूल फसल खेतों में नहीं उगा सकते. ये उनके लिए परेशानी की बड़ी वजह है,आखिर वो करें तो करें क्या? उनके पास गुजर-बसर का कोई और साधन नहीं है. सरकारें उनकी इस समस्या का कोई समाधान नहीं निकाल रही हैं. ऐसे में चुनावी मौसम में वो अपनी परेशानी सभी दलों के सामने इस आस में रख रहे हैं कि शायद उन्हें इसका समाधान मिल जाए.  


सीमा पर जो गांव हैं वहां की मिट्टी जूट की खेती के लिए मुफीद है. मौसम और वातावरण भी जूट की खेती के अनुकूल है. लेकिन सरकारी नियमों के कारण यहां के लोग जूट की फसल इन खेतों में नहीं कर पाते हैं. बारिश की शुरुआत होते ही इन खेतों में पानी भर जाता है. अगर किसान इनमें गेहूं, धान या जूट में से कुछ भी उगाते हैं तो वो सब डूब जाता है. ऐसे में उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है.


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ऐसे में इनके पास एकमात्र विकल्प हाई क्रॉप उगाना बचता है यानी ऐसी फसल जो ऊंची हो और बारिश के पानी में ना डूबे. जूट ही इन किसानों के पास एक मात्र विकल्प शेष बचता है लेकिन वो सीमा सुरक्षा बल के जवान किसानों को जूट की खेती नहीं करने देते हैं. सुरक्षा के प्रोटोकॉल के अंतर्गत हाई क्रॉप कल्टिवेशन की मनाही है.  



बीएसएफ सहित अन्य सैन्य बलों का तर्क है कि अगर सीमांत गावों में जूट की खेती करने की छूट किसानों को दी जाती है तो इन फसलों के पीछे छिपकर घुसपैठिए भारत में घुसने में कामयाब हो सकते हैं. सुरक्षा के मद्देनजर वो इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं.


166 साल पुराना है जूट मिलों का इतिहास


कपास के बाद जूट सबसे प्रमुख नेचुरल फाइबर है जिसका उपयोग बड़े पैमाने पर होता है. इसकी खेती मौसम, सीजन और मिट्टी पर निर्भर करती है. अंग्रेजों के दौर से ही कोलकाता और उसके आसपास के इलाकों में जूट की खेती और उद्योग खूब फले फूले.


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भारत में पहली जूट मिल की स्थापना साल 1855 में हुई थी. इसके बाद धीरे-धीरे इनकी संख्या में बढ़ोत्तरी होती गई. बीसवी शताब्दी के पहले दशक तक जूट मीलों की संख्या बढ़कर 59 हो गई थी. पहले विश्वयुद्ध के दौर में जूट उत्पादन क्षमता में तेजी देखने को मिली.



कोलकाता के अलावा देश के अन्य हिस्सों में भी जूट मिलों की शुरुआत हुई. पहले आंध्र प्रदेश में तीन, उत्तर प्रदेश में एक मील की स्थापना हुई. 1940 तक भारत में जूट मिलों की संख्या बढ़कर 108 तक पहुंच गई थी. दूसरे विश्व युद्ध ने जूट उद्योग की तरक्की में ब्रेक लगाया 1945 तक मिलों की संख्या 111 तक पहुंच सकी.


भारत के कुल उत्पादन में पश्चिम बंगाल की 80 प्रतिशत भागीदारी


भारत दुनिया का सबसे बड़ा जूट उत्पादक देश है. पूरी दुनिया में होने वाले जूट उत्पादन का साठ प्रतिशत भारत में होता है. पश्चिम बंगाल की भारत के जूट उत्पादन में 80 प्रतिशत भागीदारी है. निचले गंगा के मैदान में बड़े पैमाने पर जूट की बड़े पैमाने पर खेती की जाती है. खासकर मिदनापुर, बर्धमान, 24 परगान (उत्तरी और दक्षिण), मालदा और मुर्शीदाबाद जिलों में जूट की सबसे ज्यादा खेती होती है.


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