झारखंड चुनाव: JMM के वह पांच दांव जिससे चित् हो गई भाजपा
झारखंड में भाजपा को धराशायी कर सत्ता की चाभी छीनने वाली झामुमो गठबंधन ने क्या तरीके अपनाए वह अपने आप में किसी उपलब्धि से कम नहीं. आदिवासी बाहुल्य इलाके में झामुमो जैसी पार्टी को जिसके मुखिया शिबू सोरेन खुद ही आदिवासी समाज के हितैषी माने जाते हैं, उनके लिए भाजपा को एंटी-आदिवासी साबित कर पाना बहुत मुश्किल नहीं रहा. जानिए कैसे-
रांची: झारखंड मुक्ति मोर्चा के फिलहाल के सर्वेसर्वा हेमंत सोरेन अपने आवास पर साइकिल राईड का मजा ले रहे थे और काफी खुश थे. हों भी क्यों न ? यह खुशी झारखंड के नतीजों की वजह से आई है जिसमें झामुमो गठबंधन ने बड़ा उलट फेर किया है. झामुमो गठबंधन स्पष्ट बहुमत के साथ सरकार बनाने जा रही है, और जब हेमंत सोरेन का मुख्यमंत्री पद पर शपथ लेना औपचारिकता मात्र ही रह जाए तो ऐसे में वह खुश क्यों न हों.
लेकिन सवाल यह है कि आखिर क्या ऐसे फैक्टर्स झारखंड चुनाव में अहम रहे जिसकी बदौलत महागठबंधन सत्ता का सुख भोगेगी ? सवाल यह भी है कि क्या कारण रहा कि प्रधानमंत्री के डबल इंजन सरकार का सफल नारा झारखंड में असफल रहा ?
कुछ यूं है चुनाव के बाद झारखंड की तस्वीर
झारखंड में तस्वीर अब बिल्कुल साफ हो गई है कि अगर महागठबंधन में सबकुछ ठीक रहा तो झामुमो प्रमुख हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे. फिलहाल झामुमो 28 सीटों पर बढ़त बनाए हुए है. वहीं कांग्रेस 14 सीटों पर अपनी जीत की राह सुनिश्चित करती हुई दिख रही है और राजद 1 सीट पर आगे है.
झामुमो की जीत में कहीं न कहीं भाजपा के निवर्तमान मुख्यमंत्री रघुबर दास का हाथ है. चौंक गए न! लेकिन यह बात बिल्कुल सही है. दरअसल, रघुबर दास का झारखंड में पार्टी की पूरी कमान को हाईजैक कर लेना कई भाजपा नेताओं को रास नहीं आया और ना ही पार्टी कार्यकर्ताओं को और ना ही जनता को. कई ऐसे कारण हैं जिसकी वजह से झामुमो की वापसी हुई है.
जानिए क्या हैं वह पांच कारण
भाजपा के आंतरिक कलह का मिला फायदा
झामुमो को सत्ता के शिखर पर पहुंचने के लिए इस बार बहुत मशक्कत नहीं करनी पड़ी. आधा काम कांग्रेस और राजद के एक साथ आने की वजह से और भाजपा में आपसी कलह की वजह से आसान हो चुका था.
झामुमो को बस रही सही कसर चुनावी सभाओं के दौरान भाजपा के खिलाफ दम झोंक कर प्रचार कर देना था. इस मौके को महागठबंधन ने बड़े अच्छे तरीके से भुनाया. भाजपा के अंदर चुनाव के दौरान हुई कलह और पुराने पार्टी नेताओं का पार्टी का साथ छोड़ देना सीधे तौर पर महागठबंधन को फायदा पहुंचा गया.
दूसरा कारण:- भगवा झंडे को बताया एंटी-आदिवासी एजेंडे वाली पार्टी
झारखंड जैसे आदिवासी बहुल इलाके में झामुमो को वोटरों को लुभाने में बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. आदिवासी समाज अपने अधिकारों को लेकर काफी डरे हुए रहते हैं. झामुमो के संस्थापक शिबू सोरेन इनके बड़े नेता माने जाते हैं.
हेमंत सोरेन को बस अपनी पार्टी के इस छवि को और मांझ कर चमका देना था जिससे बड़ा वर्ग उनके पाले में आ गिरे. हुआ भी वहीं हेमंत सोरेन और महागठबंधन ने अपने हर चुनावी सभा में आदिवासियों के अधिकारों की दुहाई दे-दे कर भाजपा के खिलाफ एक एंटी-आदिवासी वाला माहौल तैयार कर दिया जो सीधे आ कर महागठबंधन की झोली में गिरा.
प्रधानमंत्री के भाषण का किया दुष्प्रचार
चुनावी सभाओं के दौरान भाजपा आलाकमान के नारों और वादों ने भी भगवा झंडे का बेड़ा गर्क किया तो वहीं झामुमो को तो जैसे बल्ले पर बॉल फेंक डाली जिसे बस उसे हल्के पॉवर के साथ बाउंड्री के बाहर मार देना था.
पहली लूपहोल प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान निकाला गया जब उन्होंने बार-बार डबल इंजन सरकार की दुहाई दे कर झारखंड की जनता को भाजपा को चुनने की अपील की. झामुमो ने उसे इस अंदाज में कैश किया कि जैसे कह रहे हों कि राज्य में भी भाजपा की सरकार हुई तभी प्रदेश का भला हो पाएगा.
भाजपा पर आदिवासियों के आरक्षण छीनने का किया मिथ्याप्रचार
इसके अलावा गृहमंत्री अमित शाह के चुनावी वादे ने भी भाजपा का ही खेल बिगाड़ दिया जब उन्होंने झारखंड जैसे आदिवासी बाहुल्य इलाके में ओबीसी आरक्षण का मुद्दा छेड़ दिया.
झामुमो जो पहले से ही आदिवासियों के काफी करीब थी, उसने गृहमंत्री के बयान को यह कह कर दुष्प्रचारित किया कि वे झारखंड में आदिवासियों के आरक्षण में कटौती कर पिछड़ी जातियों को देने का मन बना लिया है और अगर वे सरकार में आए तो ऐसा करना तय मानो. आदिवासियों को यह डर और सताने लगा.
मुर्गा-भात की राजनीति ने वोटिंग की रात को दिखाया कमाल
इसके अलावा झारखंड में गैर-आदिवासी सीएम होना भाजपा को बहुत अखरा. दरअसल, झारखंड का आदिवासी समाज किसी बाहरी और उनके समाज से बाहर के व्यक्ति को सीएम पद का असल दावेदार नहीं मानते. इस बीच चुनाव में वोटिंग के एक दिन ठीक पहले वाली परंपरा का पता भी उन्हें नहीं था या वे उसे अच्छे तरीके से कैश नहीं कर पाए. दरअसल, वोटिंग के एक दिन पहले झारखंड में मुर्गा-भात और लाल पानी का प्रचलन है.
आदिवासी समाज में किस परिवार में कितने वोटरों की संख्या है, उसके हिसाब से वोट के बदले राशन का वितरण किया जाता है. हालांकि, आचार संहिता और स्वस्थ लोकतंत्र के हिसाब से यह गलत हो सकता है लेकिन आदिवासियों के हिसाब से तो उनका वहीं नेता जो उनकी असल देखभाल और जरूरतों का ख्याल रखता हो. यहां भी झामुमो ने भाजपा सहित अन्य पार्टियों पर बढ़त बनाई.