क्या है आखिर झारखंड में उलट फेर की असली वजह? जानिए पांच कारण
झारखंड चुनाव में झामुमो गठबंधन जादुई आंकड़ें को पार कर चुकी है. और फिलहाल बढ़त बनाने की ओर तेजी से बढ़ रही है. भाजपा हालांकि सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी लेकिन यह प्रदेश में सरकार बनाने के लिए नाकाफी है. अब आखिर क्या है भाजपा की हार के पीछे का कारण, आइए जानते हैं.
रांची: झारखंड चुनाव में नतीजों का रूख अब थोड़ा साफ होने लगा है. प्रदेश में झामुमो महागठबंधन भाजपा को रिप्लेस करती हुई नजर आ रही है. हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झामुमो, कांग्रेस और राजद ने भाजपा का लगभग सुपड़ा साफ कर दिया है. झारखंड में वोटिंग के दौरान ही यह कयास लगाए जाने लगे थे कि भाजपा को इस बार प्रदेश में नुकसान उठाना पड़ सकता है. पार्टी के अंदर पहले से ही नोंक-झोंक के कारण कमान भाजपा के हाथ से निकल कर झामुमो के हाथों चली गई. लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर किन वजहों से पांच साल पूरा करने वाले पहले मुख्यमंत्री बनने के बाद भी रघुबर दास का नेतृत्व जनता ने नकार दिया ?
भाजपा की हार के पांच कारण:-
सहयोगी दलों को नजरअंदाज करना पड़ा भाजपा को महंगा
महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ छोड़ देने के बाद भाजपा ने झारखंड में अपनी राह अलग और अकेले रखने की पहली गलती की. भाजपा ने अपने पुराने सहयोगी दल आजसू को दरकिनार कर अकेले ही चुनावी मैदान में उतरने की हिमाकत की. पार्टी को इसका नुकसान ज्यादा हुआ.
आजसू ने तकरीबन 20 से भी अधिक सीटों पर भाजपा का कामा बिगाड़ दिया. जहां भी आजसू उतरी, वहां वोटें भाजपा की ही कटी. आजसू उम्मीदवारों को जितने मत मिले, उन्हीं मतों ने कई सीटों पर झामुमो के उम्मीदवारों को फायदा पहुंचाया.
आपसी कलह ने पार्टी का किया खूब नुकसान
झारखंड भाजपा के अंदर की जिच और आपसी कलह ने पार्टी का सबसे ज्यादा नुकसान किया. इस चुनाव में भाजपा के कई पुराने सहयोगियों और सहयोगी दलों ने पार्टी का दामन छोड़ या तो किसी और पार्टी में शामिल हो गए या निर्दलीय ही दावा ठोंक दिया. इसका सीधा असर पार्टी के पारंपरिक वोटरों पर या यूं कहें कि कैडर वोट पर पड़ा.
सरयू राय सरीखे पुराने नेताओं का नाराज हो कर अलग हो जाना, जिसके बल पर पार्टी ने झारखंड में शुरुआती दिनों में अपनी पैठ बनाई थी, यह जनता को एक गलत संदेश दे गया कि पार्टी के अंदर पुराने नेताओं की कद्र नहीं की जा रही है.
बागी नेताओं को नहीं संभाल पाई भाजपा आलाकमान
बागी नेताओं को मैनेज कर पाने में पार्टी पूरी तरह से विफल रही. भाजपा दिल्ली से ही चीजों को मैनेज करने के चक्कर में सारा कमान मुख्यमंत्री रघुबर दास को सौंप कर निश्चिंत होने लगी थी. और इधर पार्टी के नेताओं की रघुबर दास से नाराजगी चरम पर पहुंचने लगी थी. सीट बंटवारे में भी पार्टी ने ज्यादातर उन पर भरोसा जताया जो दास के करीबी थे. वैसे लोगों को दरकिनार कर दिया गया जो पार्टी के पुराने दौर में साथ थे.
आदिवासी बहुल इलाके में गैर-आदिवासी सीएम पड़ा महंगा
इसके अलावा एक कारण यह भी था कि आदिवासी बहुल प्रदेश में गैर-आदिवासी समाज का सीएम लोगों को गुजारा नहीं था. सरकार में रहने के दौरान ऐसा कई बार कहा गया कि गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री होने की वजह से लोगों का शक उन मामलों में रघुबर दास पर बना ही रहा जहां बात आदिवासियों के अधिकार से संबंधित किसी कानून की बात होती थी.
जमीन अधिग्रहण कानून के मामले में भी झामुमो गठबंधन ने भाजपा के रवैये को गलत बता कर उसे कैश करने की जो रणनीति बनाई, वह सफल रही.
आदिवासी समाज पर झामुमो की मजबूत पकड़
पांचवा कारण जो भाजपा की हार का जिम्मेदार माना जा रहा है वह आदिवासी समाज में झामुमो की मजबूत पकड़ है. झामुमो के संस्थापक शिबू सोरेन ने पहले ही आदिवासी समाज पर अपनी एक छाप छोड़ रखी थी. उनके बेटे हेमंत सोरेन को बस उस उपलब्धि को भुनाने की जरूरत थी जो उन्होंने काफी अच्छे से किया. इसके अलावा कांग्रेस से गठबंधन कर उसकी पारंपरिक सीटों को और राजद से गठबंधन कर आदिवासी समाज के अलावा अन्य वोटरों को अपने पाले में करने में काफी तेजी दिखाई.
इसके अलावा सबसे दिलचस्प बात जो झामुमो के लिहाज से सही रही और भाजपा के लिए नुकसान देने वाली, वह बिहार में भाजपा की सहयोगी दलों का झारखंड में उनके खिलाफ उतर जाना था. जदयू और लोजपा दोनों ही पार्टियों ने झारखंड में ताल ठोंक कर भाजपा के पुराने गढ़ को कमजोर कर दिया.