नई दिल्लीः इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बुधवार को उत्तर प्रदेश सरकार के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसके तहत 18 अन्य पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में डालने की अधिसूचना जारी की गई थी. मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल और न्यायमूर्ति जे.जे. मुनीर की पीठ ने गोरखपुर की ‘डॉ बीआर आंबेडकर ग्रंथालाय एवं जन कल्याण समिति’ की जनहित याचिका स्वीकार करते हुए यह आदेश पारित किया.
बिना अधिकार अधिसूचना जारी करने का दिया गया था तर्क
इस याचिका में 21 और 22 दिसंबर, 2016 की अधिसूचना को यह कहते हुए चुनौती दी गई थी कि अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली तत्कालीन प्रदेश सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत बिना अधिकार के यह अधिसूचना जारी की.
योगी सरकार ने दूसरी अधिसूचना कर दी थी जारी
इसके बाद, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 24 जनवरी, 2017 को एक अंतरिम आदेश पारित कर इन 18 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति के प्रमाण पत्र जारी करने पर रोक लगा दी थी. इन याचिकाओं के लंबित रहने के दौरान, 24 जून, 2019 को योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली सरकार ने इसी मुद्दे पर एक अन्य अधिसूचना जारी की और इस अधिसूचना को भी चुनौती दी गई और इस मामले में भी अंतरिम आदेश पारित किया गया.
बुधवार को संबंधित पक्षों को सुनने के बाद अदालत ने कहा कि केंद्र सरकार ही एक जाति को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल करने के लिए अधिकृत है और राज्य सरकार के पास इस संबंध में कोई अधिकार नहीं है.
सपा ने बीजेपी पर साधा निशाना
उच्च न्यायालय के निर्णय को लेकर भाजपा पर हमला बोलते हुए समाजवादी पार्टी ने कहा कि 18 अति पिछड़े समुदायों को आरक्षण भाजपा सरकार की निष्क्रिय कार्रवाई की वजह से निरस्त किया गया.
इन जातियों को शामिल करने का किया गया था प्रयास
पार्टी ने ट्वीट किया, ‘सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने 18 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का अपना वादा पूरा किया था, जिसे भाजपा की केंद्र सरकार द्वारा खारिज किया गया.’ तत्कालीन सपा सरकार और योगी सरकार ने मझवार, कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिंद, भर, राजभर, धीमान, बाथम, तुरहा, गोदिया, मांझी और मछुआ जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल करने का प्रयास किया था.
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