नई दिल्ली: ईसा से 400 साल पहले जिस देश में कौटिल्य ने अर्थशास्त्र जैसा ग्रंथ लिखा, जिसमें राज्य व्यवस्था, कृषि, न्याय और राजनीति पर गंभीर चर्चा है, उस देश में खेती-किसानी से जुड़े अर्थशास्त्र पर इतना 'भ्रम' क्यों है?


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आखिर क्यों जनता के रिकॉर्ड मतों से सत्ता में आए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (PM Modi) जब कहते हैं, कि नया कृषि क़ानून किसानों के हक़ में है, तो किसानों को ये बात समझ में नहीं आती? बड़ा सवाल है कि किसानों (Farmers) के हक़ में क्या सही है. क्या आम किसान ये समझ पा रहा है?



किसान आंदोलन (Farmers protest) में अब तक किसानों के बीच 'भ्रम' आख़िर क्यों ज़िंदा है? आखिर वो 'भ्रम-शास्त्र' किसने रचा? जिसके बूते तीन हफ्तों तक किसानों को भरमाया गया.


विरोध के मुद्दे से कितने वाकिफ अनजान किसान?
दिल्ली को घेरे बैठे किसानों के बीच, जब आप जाएंगे तो एक ज़िद्द की आवाज़ सुनाई देगी, 'तीनों कृषि क़ानून को रद्द करने तक जारी रहेगा आंदोलन'. चाहे वो गाजियाबाद बॉर्डर हो, टिकरी बॉर्डर हो, सिंघु बॉर्डर (Singhu Border) हो या चिल्ला बॉर्डर.


जब आप आंदोलन के नाम पर जमा आम किसानों से बात करेंगे, तो हैरानी इस बात पर होगी, कि वो MSP और कृषि मंडी समितियों पर सरकार की सफ़ाई को दरकिनार कर, अपनी ज़िद्द पर अड़े हैं. उन्हें MSP और कृषि मंडी समितियों के अलावा कुछ नहीं मालूम कि कृषि क़ानूनों में क्या है?


वहीं इन किसानों के नाम पर जो लोग सरकार से वार्ता कर रहे हैं,...सिर्फ और सिर्फ वही जानते हैं कि वो क्या चाहते हैं! कई आम किसान साफ़ कह रहे हैं कि क़ानून के बारे में हमारे नेता को पता है, वो जैसा कहेंगे हम वैसा करेंगे!


पीएम के भरोसे का भी असर क्यों नहीं?
किसान आंदोलन के लगभग 2 हफ्ते गुज़र जाने के बाद, पीएम मोदी ने पिछले दिनों फिक्की (FICCI) से लेकर गुजरात (Gujrat) के कच्छ तक, किसानों से आंदोलन ख़त्म करने की अपील की. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि तीनों कृषि क़ानून किसानों के हक़ में हैं. कच्छ से उन्होंने किसान हित में अड़ंगा डालने वाली विपक्षी ताकतों को सीधे टारगेट किया. जिसमें पीएम मोदी ने सबसे अहम तर्क कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर दिया. जिससे किसानों को फ़सल के बेहतर दाम मिलने का रास्ता खुलेगा. जिस पर कई विपक्षी दल भी एक वक्त सहमत रहे, पर अब उनके विरोध की सियासत भी खुल चुकी है.



इन सबके बीच क़ानून के कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग हिस्से पर संदेह जताते हुए, खबरें उछाली गईं, कि 4 महीने में 53 नई एग्रो कंपनियां बना चुके हैं अडाणी और अंबानी. सवाल पूछा गया कि क्या इन्हें सपने आए थे? यानी शंका और संदेह का माहौल लगातार बना हुआ है, आखिर क्यों?


वितंडा का आधार MSP
ग़ौर से देखेंगे तो सवाल सिर्फ खेती-किसानी के आधुनिकीकरण का नज़र आएगा। मोदी सरकार के लाए गए वो तीन कृषि क़ानून जिन पर घमासान छिड़ा है, इनमें
1. कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून, 2020
2. आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020
3. मूल्य आश्वासन पर किसान (संरक्षण एवं सशक्तिकरण) समझौता और कृषि सेवा कानून शामिल हैं। जो 23 सितंबर से देश में लागू हैं.


दरअसल, तीनों कृषि क़ानूनों का मक़सद खेती और किसानी को फायदे के रोज़गार में बदलने का है. इसके लिए MSP यानी फ़सलों के न्यूनतम दाम की सरकारी गारंटी से ऊपर उठकर सोचना होगा.


सरकार की ही एक कमेटी बताती है कि 1966-67 से शुरु हुए MSP का लाभ मात्र 6 प्रतिशत किसान ही उठा पाते हैं. ख़ासकर गेहूं और धान उपजाने वाले किसान. इनमें हरित क्रांति की शुरुआत से पंजाब और हरियाणा के किसानों की इस दिशा में की गई मेहनत रंग लाई, इसका उन्हें फ़ायदा भी हुआ.


यही वजह है MSP का शुरु से ज्यादा लाभ उठाने वाले पंजाब हरियाणा जैसे प्रदेश के किसान ही इस आंदोलन में शामिल दिखते हैं, इसका अखिल भारतीय असर नहीं दिखता. यहां तक कि बिहार जैसे पिछड़े राज्य में भी कृषि कानूनों को लेकर वैसा गुस्सा नहीं दिखता. 



दूसरी तरफ़ सिर्फ इन अनाजों पर पूरा ज़ोर देने का असर हुआ पंजाब हरियाणा (Punjab Haryana) में भूमिगत जलस्तर लगातार गिरता चला गया. इसके अलावा एक्सपर्ट बताते हैं कि आज देश में सरप्लस इन अनाजों से खेती-किसानी के हालात नहीं बदलने वाले, बल्कि इनकी जगह कमर्शियल फ़सलों की उपज पर जोर देना होगा.


इन्हें बढ़ावा देने की नीति के तहत मोदी सरकार ने ही धान गेहूं के अलावा सोयाबीन, कपास, जूट जैसी कुल 23 उपजों को भी MSP के दायरे में शामिल किया. साथ ही किसानों की मांग के मुताबिक़ पहले से चल रही MSP में अच्छी-खासी बढ़ोत्तरी की. पर अब किसानों को शंका है कि मोदी सरकार ने MSP को ख़त्म करने के लिए नए क़ानूनों की चाल चली है. उन्हें आशंका है कि नए क़ानूनों की वजह से सरकारी मंडियां धीरे-धीरे रसातल में चली जाएंगी और बाहर के बाज़ार में उन्हें फ़सल की न्यूनतम कीमत यानी MSP भी नहीं मिलेगी. 


MSP के साथ क्यों जुड़ी ज़िद् की लड़ाई?
किसानों की शंका दूर करने के लिए भी उनकी तरफ़ से दो तरह की मांग सामने आई. शुरु में सरकार से मांग की गई, कि क़ानून में प्रावधान हों, कि प्राइवेट मंडियों में कोई भी व्यापारी MSP से नीचे ख़रीदारी ना करे. ऐसा होने पर सज़ा का प्रावधान हो.


वहीं आगे चल कर MSP को क़ानूनी हक़ का दर्जा देने की मांग भी की जाने लगी. अभी इन पर कुछ बातें होती भी कि इलेक्ट्रिसिटी, पराली जैसे कई मांगों को किसान नेताओं ने मुद्दा बना लिया. इन सबसे बढ़कर ये ज़िद् कि की तीनों नए क़ानून, काले क़ानून है इन्हें रद्द करो.


MSP से आगे क्या है?
क्या किसान धान-गेहूं और इस पर मिलने वाले MSP यानी फ़सलों के दाम की सरकारी गारंटी से आगे निकलने को तैयार हैं? पर इसके लिए चाहिए होगी बड़ी पूंजी. आज बड़े किसानों की खेती का रुप बहुत कुछ बदल चुका है, पर ज्यादातर मंझोले और छोटे किसानों के बदलाव की राह में पूंजी सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है.


खेती में निजी निवेश की वक़ालत करते नए कृषि क़ानून, इसी को रेगुलेट करने में मददगार होने के लिए बनाए गए. अगर क़ानून किसानों का हित साधने में मदद करने वाले हैं, तो पूंजी चाहे जिसकी तरफ़ से आए, इसे मुद्दा बनाना आख़िर कितना जायज़ है?


पूंजीपति उठाएंगे किसानों के लिए निवेश का जोखिम?
एक और उदाहरण से इसे बेहतर समझा जा सकता है. आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका (America) जैसे मुल्क़ में 55 प्रतिशत आम लोग प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों के शेयरों में निवेश करते हैं. कंपनियां शेयर से ही पूंजी जुटाकर अपने आईडिया पर सफल होती हैं, और पूंजी से जो पैसे बनाती हैं, उसका लाभ हर शेयरधारक को होता है. जबकि जोखिम ना उठाने की जड़ता में डूबे भारत में, सिर्फ 1.5 प्रतिशत लोग शेयर में निवेश करते हैं.


संपन्न देशों में पूंजीपतियों पर गर्व किया जाता है. सरकारी वक्तव्यों में भी उन्हें सम्मान दिया जाता है. जबकि हमारे देश में पूंजीपति शक संदेह और उलाहना भरी नज़रों से घिरे होते हैं. जबकि आम लोग जोखिम उठाने को तैयार नहीं होते, खुद के और सिस्टम के बनाए 'सेफगार्ड' में रह कर ही संतुष्ट होते हैं.


क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने कई और मसलों पर भी इसी जड़ता पर चोट नहीं की है? भारत में खेती पहले से ही जुआ से समान रही है, अब किसान जोखिम क्यों और कैसे लेगा? इसीलिए उसे चाहिए पूंजी की मदद लेकिन इस वजह से उसके हक़ ना मारे जाएं. इसी की रक्षा के लिए तो हैं नए क़ानून. लेकिन इसे किसानों के बीच ग़लत तरीके से पेश किया गया.


दूध का जला मट्ठा भी फूंक-फूंक कर पीता है!
पुराने सिस्टम में गन्ना जैसी फ़सलों पर भी जोर देकर सरप्लस चीनी का उत्पादन किया गया. मगर ऊंचे दामों पर निर्यात ना होने की वजह से और चीनी मिल मालिकों के चक्रव्यूह में गन्ना किसानों का करोड़ों का भुगतान नहीं हुआ  ऐसे चक्रव्यूह से निकलने का अगर नया रास्ता बनता है, तो दूध की जली बिल्ली जैसे मट्ठा भी फूंक-फूंक कर पीती है, कुछ इसी अंदाज़ में आम किसानों के संदेह को बढ़ाया गया.


किसानों के शक़ का दोहन आखिर कौन करना चाहता है? कौन है जो किसानों को पुराने सिस्टम के चक्रव्यूह से निकलने देना नहीं चाहता है? ये सवाल अब अनुत्तरित नहीं हैं.


क्या जल्दबाज़ी में आया कृषि क़ानून?
एक संदेह इन क़ानूनों को जल्दबाज़ी में कोरोना पीरियड में लाने पर जताया जाता है.
संदेह इस बात पर है कि मोदी सरकार अपने चहेते पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए किसानों के हक़ मारना चाहती है, इसलिए जल्दबाज़ी में सरकार अध्यादेश लेकर आई और सितंबर में आनन-फानन में सदन से पारित करवा लिया.


वैसे तो संसदीय प्रक्रियाओं के पालन के बाद ही क़ानून अस्तित्व में आया है. लेकिन आरोपों के पीछे अगर वजह खंगालें, तो सवाल है कि क्या संसदीय मामलों की बारीक परख रखने वाली मोदी सरकार जानती थी, कि इस मसले पर प्रोपेगेंडा फैलाया जाएगा ! कुछ इसी तरह, जैसा अभी हो रहा है, और बदलाव वाले क़ानून को फिर से ठंडे बस्ते में डालना पड़ता.


किसान आंदोलन में विवादास्पद मुद्दे क्यों?
रही-सही क़सर, किसान आंदोलन में उठने वाली गैर कृषि और विवादास्पद मांगों ने पूरी कर दी. शरजील इमाम (Sharjeel Imam) और उमर खालिद (Umer Khalid) जैसों की रिहाई की मांगों ने, ना सिर्फ किसान आंदोलन को बदनाम किया, बल्कि उनकी वैचारिक खुराक के स्रोत के बारे मे भी, इशारा कर गया. 


यही वजह है कि हाल के दिनों में मोदी सरकार के कई मंत्रियों ने, किसान और सरकार के बीच चल रहे संवाद को तोड़ने के लिए विपक्ष की साजिश वाली सियासत को ज़िम्मेदार ठहराया. इस संदेह का आधार किसान से सरकार की वार्ता का, अंजाम के मुहाने तक पहुंच कर वापस लौट आना भी रहा है.



दो पक्षों के बीच वार्ता का मतलब ही तो यही है, कि दोनों किसी बिन्दु पर सहमत होंगे. यहां 5 दौर की सरकार-किसान वार्ता चली, लेकिन इसके बाद किसान नेता क़ानून ही रद्द करने की मांग पर अड़ गए ! अगर ऐसा ही था तो फिर वार्ता किस बात की थी? ज़ाहिर है कुछ ऐसा है, जो सिर्फ़ अड़ंगा ही डालना चाहता है, समाधान नहीं.


क़ानूनों में संशोधन नहीं तो चाहिए क्या?
विज्ञान भी कहता है, कि कोई भी सिस्टम फूल प्रूफ नहीं होता। कृषि क़ानूनों में भी संभव है, कि कुछ बिन्दु और बेहतर, और स्पष्ट हो सकते हों. जिन पर सरकार किसानों के साथ मिलकर हल निकालने पर सहमत दिखती है. सरकार के इस रुख ने भी किसान आंदोलन में 'ज़िद्द' को बेपर्दा किया है. आखिर क़ानून में बेहतर संशोधन नहीं तो क्या चाहिए किसान नेताओं को?


आम किसान, देश के अन्नदाता, जिनमें से ज्यादातर कृषि क़ानूनों के ABCD से वाकिफ़ नहीं, उन्हें सियासत का मोहरा बनते देखना त्रासद है. जहां किसानों तक सही नज़रिया पहुंचाने की ज़रूरत है वहां किसानों के अभिमान को मोड़कर अपनी डूबती सियासत के लिए इस्तेमाल करने वाली राजनीति ही किसान आंदोलन के भ्रमशास्त्र का रचयिता है. उसी की वजह से किसान आंदोलन में अब तक 'भ्रम' ज़िंदा है.


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