नई दिल्लीः सिख धर्म की पवित्र और पूजनीय पुस्तक दशम ग्रंथ में एक जगह लिखा है.


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तिलक जंञू राखा प्रभ ताका॥ कीनो बडो कलू महि साका॥
साधन हेति इती जिनि करी॥ सीसु दीया परु सी न उचरी॥
धरम हेत साका जिनि कीआ॥ सीसु दीआ परु सिररु न दीआ॥
(जिन्होंने धर्म के लिए शाका (बलिदान) किया, शीश दिया पर मुंह से सी भी नहीं निकला.)
यह पवित्र पंक्तियां सिखों के दशम गुरु, गुरु गोविंद सिंह ने अपने पिता और नवम गुरु, गुरु तेगबहादुर के लिए लिखीं हैं.


चांदनी चौक की ओर चलते हैं
आज दिल्ली में जहां चांदनी चौक का मुख्य चौराहा है, एक जमाने में वहीं कहीं खाली मैदाननुमा जगह में पीपल का पेड़ था. 11 नवंबर 1675 ईस्वी के उस दिन खुले आम और दिन दहाड़े काजी ने फतवा पढ़ा. इस्लाम कबूल करो या मौत.


जब शहादत से लाल हुआ चांदनी चौक
पीपल के पेड़ के नीचे बंदी बनाकर खड़े किए गए शख्स ने पेशानियों पर बिना बल खाए और चेहरे पर शिकन लाए बिना कहा- सीस कटा सकते हैं केश नहीं.


काजी के फतवा पढ़ने के बाद जल्लाद जलालुद्दीन ने पूरी ताकत से खड्ग चला दी और गुरुतेग बहादुर सिंह का अमर शीश धड़ से अलग हो गया.



चांदनी चौक की वह जमीन शहादत के खूं से लाल हो गई और औरंगजेब का क्रूर गुमान कि वह सबको मुसलमान बना देगा वह धरा का धरा रह गया.


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ठीक इसी जगह खड़ा है शीशगंज गुरुद्वारा
इस शहादत की याद जेहन से मिट न जाए इसलिए गुरुद्वारा शीशगंज ठीक उसी जगह पर शान से खड़ा है. आज के समय में दिल्ली मेट्रो के चांदनी चौक स्टेशन से बाहर निकलते ही महज 200 मीटर की दूरी पर स्थित यह पावन स्थल अपनी कहानी कह रहा है.


शीशगंज गुरुद्वारा बनने की कहानी
आम तौर पर लोग इस बारे में केवल इतना जानते हैं कि नवम गुरु की शहादत की याद में यह गुरुद्वारा बना, लेकिन नहीं. आज जिस सभा मंडप में गुरु साहब की शान में गुरुबानी गूंजती रहती है खुद उसके बनने की कहानी भी दिलचस्प है.


इस कहानी में एक दो या पांच-दस लोग नहीं हैं, बल्कि कई अनाम किरदार हैं, जिनकी जांबाजी इस धर्मस्थल के जर्रे-जर्रे में है. फिर भी कुछ खास नामों को आज के इस मौके पर दोहरा लेना चाहिए.


कौन थे बघेल सिंह धालीवाल
इसमें सबसे पहला नाम आता है बघेल सिंह धालीवाल का. 1675 की ऐतिहासिक घटना के बाद से सिखों में एक टीस थी कि गुरु के शहादत की पवित्र भूमि अभी भी मुगलों के कब्जे में थी.


बघेल सिंह धालीवाल 18वीं शताब्दी में पंजाब क्षेत्र के एक सेनानायक थे. सुल्तान शाह आलम को हराने के बाद 11 मार्च 1783 में बाबा बघेल सिंह ने अपनी फौज सहित दिल्ली के लाल किले पर केसरिया झंडा लहराया था.


इस जीत के लिए उन्होंने तकरीबन 20 सालों तक संघर्ष किया. इस सपने में उनका साथ दिया, बाबा जस्सा सिंह रामगढ़िया और और बाबा जस्सा सिंह अहलूवालिया.


लालकिले पर कब्जे की योजना
बघेल सिंह ने पहले दिल्ली के बाहरी और आसपास के छोटे इलाके जीतने शुरू किए. इस तरह धीरे-धीरे बघेल सिंह की सेना भी बड़ी होती गई.


10 सालों में ही बघेल सिंह चांदनी चौक के बेहद करीब पहुंच गए. जनवरी में 1774 में उन्होंने शाहदरा, पहाड़गंज और जयसिंहपुरा पर कब्जा कर लिया. अब बारी थी सीधे दिल्ली के दिल लाल किले पर चोट करने की.


दो और वीरों ने दिया साथ
इस कोशिश में और रणनीति बनाते हुए 1783 में की शुरुआत में उन्होंने लालकिले पर कब्जे की योजना बनाई. इसमें अब तक उनके साथ जस्सा सिंह भी आ चुके थे.


60 हजार सैनिकों के साथ दोनों गाजियाबाद में मिले और लाल किले पर धावा बोल दिया. उन्होंने 8 और नौ मार्च को मलकागंज, अजमेरी गेट सहित दिल्ली के कई इलाकों पर कब्जा कर लिया.


1783 में लालकिला फतह
इसके दो दिन बाद जस्सा सिंह रामढ़िया भी अपने 10 हजार सैनिकों के साथ आ पहुंचे. इन तीनों की संयुक्त सेना आगे बढ़ी और लाल किले पर धावा बोल दिया.


11 मार्च को दीवान ए आम को अपने कब्जे में ले लिया. फिर उन्होंने 1783 में लाल किले पर केसरी निशान को शान से फहराया और मुगल सल्तनत का तख्ता पलट कर दिया.


शाह आलम ने मानी हार
अपनी इस तरह की बुरी हार को देखते हुए मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने नवम गुरु के बलिदानी स्थल को सिखों के दिए जाने की बात मान ली.


साथ ही उसने यह भी स्वीकारा कि वहां पर एक गुरुद्वारे का निर्माण कराया जाए. शाह आलम ने इसके निर्माण के लिए रकम भी दी. 8 महीने की तय तारीख में गुरुद्वारा शीशगंज बनकर तैयार हुआ.


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मुस्लिमों-सिखों में होता रहा संघर्ष
हालांकि, गुरुद्वारे को लेकर यह संघर्ष लगातार जारी रहा. दरअसल, समय-समय पर मुस्लिम और सिख गुरुद्वारे वाली जगह-जमीन के लिए आमने-सामने होते रहे.


उनमें इस बात के लिए हमेशा झगड़ा रहा कि इस पर किसका अधिकार है? यह मसला तब तक बना रहा, जब तक ब्रिटिश शासल काल में 1930 तक अंग्रेजों ने इसका निपटारा नहीं कर दिया.


अंग्रेजों ने इसका फैसला सिखों के हक में किया और इसके बाद 1930 में यह गुरुद्वारा फिर से व्यवस्थित हुआ.


आज है गुरुतेग बहादुर का प्राकट्य पर्व
आज 1 अप्रैल की तारीख ने अपने इतिहास में गुरुतेगबहादुर की यादगार संजोकर खी है, जिनके प्रकाश पर्व प्राकट्य दिवस (जयंती) को आज 450 साल पूरे हो रहे हैं.



1 अप्रैल 1621 को पंजाब के अमृतसर में जन्में और सिखों के प्रथम गुरु, गुरु नानक देव के पद चिह्नों पर चलते हुए वह नौवें सिख गुरु बनें. इसके बाद धर्म और देश के लिए बलिदान का सबसे उच्च उदाहरण पेश किया.  


यही वजह है कि गुरुतेग बहादुर हिंद दी चादर कहलाते हैं. उनकी शहादत को शत-शत नमन.


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