अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का खूनी इतिहास और पं. बंगाल में कितनी बची बंगाली भाषा
वर्ष 2000 में पहली बार 21 फरवरी को `अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस` के रूप में मनाया गया था. भाषा और बोली बोलने के अधिकारों से जुड़ा यह दिन खून से रंगा हुआ है. ढाका विश्वविद्यालय का आंदोलन जब बांग्ला भाषा की याद दिलाता है तो सरहद के इस पार पं. बंगाल तक भी नजर जाती है, जहां की सरकार को बंगाली अस्मिता का दंभ तो है लेकिन बंगाली बोलने वालों की कम होती संख्या पर चिंता नहीं है.
नई दिल्लीः बोली. हमारी ध्वनियों का समूह जिसके जरिए हम अपनी भावनाएं जाहिर कर पाते हैं बोली कहलाती है. बोलियों को समझने के लिए यह बड़ी ही सामान्य परिभाषा है. भाषा की सहायक रही बोलियों को बचाने की कवायद को ही याद करने का दिन है अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस.
एक तरफ जहां भारत में बतौर राष्ट्रभाषा के तौर पर हिंदी को ही बचाने के लिए कोशिश करनी पड़ रही है, ऐसे में विभिन्न स्थानों की आत्मा के तौर पर पहचानी जाने वाली बोलियों के लिए तो और बड़ा संकट है. ग्लोबल होते जा रहे गांव के बीच यह बड़ी समस्या है कि अलग-अलग भाषा की मीठी बोलियां नहीं रहीं और न रहे उनको बोलने वाले.
उपराष्ट्रपति ने लिखा पत्र
इसी परेशानी को समझते हुए, उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू ने सांसदों को पत्र लिखा है कि वे अपने क्षेत्रों में स्थानीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार के लिए काम करें. उन्होंने सांसदों से कहा, आप जिस बड़े इलाके का संसद में प्रतिनिधित्व करते हैं,
मैं आग्रह करता हूं कि आप वहां की स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने में सक्रिय रूप से सहायक बनें. उन्होंने कहा कि आपके प्रयासों से भारतीय भाषाओं को काफी अधिक प्रोत्साहन मिल सकता है.
1999 से हुई शुरुआत
उपराष्ट्रपति की यह अपील ऐसे समय पर आई है जब सारी दुनिया 21 फरवरी 2021 को अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मना रही है. वर्ष 1999 में मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा यूनेस्को (UNESCO) द्वारा की गई थी.
वर्ष 2000 में पहली बार इस दिन को "अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस" के रूप में मनाया गया था. इस दिन को मनाये जाने का उद्देश्य विश्व भर में भाषायी और सांस्कृतिक विविधता एवं बहुभाषिता का प्रसार करना और दुनिया में विभिन्न मातृभाषाओं के प्रति जागरूकता लाना है.
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ऐसा है इतिहास
इस दिवस के मनाए जाने के इतिहास को देखेंगे तो हर इतिहास की तरह यह भी खून में रंगा मिलेगा. यह आजाद भारत में जलाई गई मशाल थी. उस भारत में जिसमें पाकिस्तान तो अलग हो चुका था, लेकिन भारत तो पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच फंसा दिया गया था.
वह साल 1952 का था. अलग होने के साथ ही भारत से खुन्नस खाई पाकिस्तानी सरकार ने न जाने किस सुरूर में उर्दू को राष्ट्रीय भाषा बनाने की घोषणा की थी. इसे कड़े तौर पर पूर्वी पाकिस्तान में ही लागू करने पर अधिक जोर दिया गया.
इतिहास का काला दिन
इसका मकसद सिर्फ उर्दू भाषी पाकिस्तानी नागरिकों के बहुमत की ताकत दिखाना था. तब कि जनसंख्या के अनुपात के अनुसार पाकिस्तानी नागरिक 54 प्रतिशत थे. बंगाली छात्रों ने इसका विरोध किया क्योंकि वे बंगाली भाषा को भविष्य की पीढ़ियों के लिए बचाना चाहते थे.
आंदोलन शुरू हुआ और इसका दमन करने के लिए सरकार और छात्रों के बीच टकराव हुआ. विश्व के इतिहास में यह शायद अकेला ऐसा मामला होगा जहां अपनी बोली और अपनी भाषा में बात करने की आजादी मांगने पर मौत नसीब हुई थी. कई छात्र प्रदर्शन में मारे गए.
क्या हुआ था उस रोज
21 फरवरी 1952 को सुबह के 9 बजे थे. छात्रों ने ढाका विश्वविद्यालय प्रांगण में सभा शुरू की थी. यहां पहले से धारा 144 लगाई गई थी. ढाका विवि को सशस्त्र पुलिस ने घेर रखा था. सभा के बाद 11 छात्रों ने विवि के द्वार पर पुलिस की ओर से बनाई गई रेखा को तोड़ने की कोशिश की.
पुलिस ने आंसू गैस के गोले दागे और छात्रों को चेताया. उधर कई छात्र परिसर से निकल जाने में सफल रहे और बाहर जाकर प्रदर्शन करने लगे. 144 के उल्लंघन में एक्शन में आई पुलिस ने कई छात्रों को गिरफ्तार कर लिया, जिससे प्रदर्शन और तेज हो गया.
पाकिस्तानी हुक़ूमत को नहीं हुआ अपराध बोध
दूसरी ओर, गिरफ्तारी से नाराज छात्रों ने पूर्व बंगाल विधान सभा में मुलाकात की और विधायकों का मार्ग अवरुद्ध कर उनसे इस मामले को विधानसभा में उठाने का आग्रह किया, लेकिन इस दौरान छात्रों का एक समूह जो अभी भी प्रदर्शन और नारेबाजी कर रहा था अचानक से हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों ने निहत्थे उन पर गोलियां बरसानी चालू कर दीं.
12 युवक इस गोलीबारी में मारे गए. पुलिस ने छात्रों पर आग के गोले भी फेंके जिसमें कई और छात्र झुलस गए. दुनिया इस नृशंस सामूहिक हत्याकांड से सन्न रह गई पर पाकिस्तान हुक़ूमत ने किसी तरह का अपराधबोध नहीं जताया.
21 फरवरी 1952 का दिन भले ही भाषा की लड़ाई का दिन रहा हो, लेकिन असल मायने में यह वही दिन है जब पाकिस्तान के दो फाड़ हो जाने की नींव रखी गई थी. पाकिस्तान में आज भी इस बात को लेकर अफसोस जताया जाता है कि जिन्ना ने अगर 1948 में भाषाई जिद न रखी होती तो आज एक नया मुल्क नहीं बना होता.
बंगाल की बोलियां भी देख लेते हैं
पं. बंगाल में इस वक्त चुनावी माहौल है और बंगाली अस्मिता की बात जोरों पर है. ऐसे में संयोग है कि अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस का एक रास्ता पं. बंगाल के ठीक बगल से होकर जाता है. पूर्वी पाकिस्तान में तो बंगाली भाषी प्रतिशत में कम थे, लेकिन बंगाल तो भाषाई संस्कृति सहेजने वाला बुलंद प्रदेश रहा है.
ऐसे में यहां बारीकि से देखें तो बंगाली की पांच भाषाई बोलियां हैं. इनमें राढ़ी बोली, बंगाली बोली. वरेन्द्री बोली, झारखंडी बोली, राजबंशी बोली हैं. इसके अलावा पं. बंगाल की टोटो बोली भी है जो कि विलुप्त होने की कगार पर है.
बंगाली बच्चों का बंगाली भाषा में रुझान कम?
आम बंगाली के लिए माना जाता है कि उसे अपनी भाषा से बहुत प्यार होता है, लेकिन बीते दो दशक के बीच बंगाल में अन्य अंतरराष्ट्रीय भाषाओं का चलन बढ़ा है. स्कॉलर और विद्वानों के राज्य के तौर पर पहचान बनाने वाले बंगाल में हालांकि अंग्रेजी पहले से भी बोली जाती रही थी.
सभंवतः कोलकाता राजधानी रही इसलिए इसका प्रभाव रहा. आज भी पुराने बंगालियों के लिए बड़ी चिंता है कि उनकी अगली पीढ़ी English में तो बात कर रही है, लेकिन बंगाली की बोली के प्रति रुझान नहीं रख पा रही है.
राज्य सरकार ने किया नई शिक्षा नीति का विरोध
पिछले साल 2020 में जब केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति लागू की तो पं. बंगाल सरकार की ओर से बनाई गई समिति ने इसका विरोध किया और कहा कि इस नीति के प्रावधानों को राज्य में लागू नहीं किया जा सकता है. जबकि केंद्र सरकार के अनुसार नई शिक्षा नीति उस कदम की कवायद है जहां हमारी शिक्षा हमारी भाषा में होने की मांग है. यानी बंगाली छात्र बंगाली में पढ़ाई कर सकते थे.
अगर मातृभाषा को बचाने का यह तरीका नहीं है तो फिर कौन सा कारगर तरीका पं. बंगाल सरकार के पास है?
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