नई दिल्ली: देश में इस वक्त सबसे ज्वलंत मुद्दा बना चुका है किसान आंदोलन, ये मुद्दा ऐसा है जिससे देश का हर नागरिक परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़ा है क्योंकि सवाल अन्नदाता का है. ज़ाहिर है सियासत की नज़र भी इस इस आंदोलन टिकी है. मामला भावनाओं से जुड़ा है इसलिए सीधे तौर पर कोई भी सियासी दल बड़ी ही सावधानी के साथ अपना नज़रिया रख रहा है. लेकिन कांग्रेस के युवराज ने पहले तो पंजाब से किसानों की बीच कृषि क़ानून के ख़िलाफ ग़लतफ़हमी की चिंगारी जलाई और जब ये आंदोलन की आग में तब्दील हुई तो उसी आग में राहुल ने खुद की और अपनी पार्टी की प्रतिष्ठा जला कर ख़ाक कर दी.


किसानों से ज्यादा अहम था राहुल का 'विदेश टूर'


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किसान आंदोलन (Farmer Protest) को एक महीने से ज़्यादा हो चुका है, किसान सड़कों पर है, दिल्ली (Delhi) के कई बॉर्डर पर तस्वीर एक जैसी ही है वो अपनी मांग पर अड़े हैं कि कृषि क़ानून को सरकार को वापिस लेना होगा. वार्ताओं का कई दौर निकल चुका है लेकिन समाधान नहीं निकला, सरकार और किसान नेताओं के बीच संवाद बंद हो गया, सुलह का रास्ता धुंधला दिखने लगा और दूसरी तरफ अलग-अलग जगहों से आंदोलन के सहयोग में किसानों का दिल्ली कूच तेज़ हो गया.


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सरकार और किसान के बीच द्वंद की स्थिति बनने लगी और ऐसे माहौल में विपक्षियों की मानो बांछे खिलने लगी, उनको लगने लगा ये एक ऐसा मुद्दा तैयार हो गया है. जिसमें जनआक्रोश की तस्वीर बनाकर सरकार को घेरा जा सकता है और किसान आंदोलन को हाईजैक कर सियासी मुनाफ़ा कमाया जा सकता है. फिर क्या था पार्ट टाइम पॉलिटिक्स के एक्सपर्ट राहुल गांधी (Rahul Gandhi) अचानक छुट्टियों से लौटे और दो-तीन विपक्षी साथी के साथ राष्ट्रपति से मिलकर कृषि क़ानून पर अपना विरोध दर्ज कर दिया. लेकिन राहुल का ये स्टंट काम नहीं कर रहा था क्योंकि किसानों ने इसे तरजीह ही नहीं दी और अपनी आदत के मुताबिक वो फिर मुद्दों से दूर होकर गायब हो गए.


किसानों के सांता क्लॉज़ बनना चाहते थे राहुल बाबा


ये आंदोलन किसानों का है इसलिए किसानों ने भी साफ कर दिया था कि किसी भी सियासी चेहरे की मौजूदगी उन्हें अपने मंच से मंज़ूर नहीं है. हां ये अलग बात है कि इस आंदोलन में लाल सलाम भी नज़र आया और वामपंथियों का झंडा भी लहराता दिखा, तो दूसरी तरफ देश के टुकड़े-टुकड़े करने वाले राष्ट्रद्रोहियों को मसीहा बताकर उनकी आज़ादी के पोस्टर भी. लेकिन इन सबसे अलग दस-बारह दिन बीतने के बाद एक बार फिर से खुद को किसानों का मसीहा बताने वाले राहुल सांता क्लॉज़ बनकर सामने आते हैं और सड़क पर आंदोलन के सहयोग में मार्च निकालने की बात करते हैं, खैर मार्च तो नहीं निकल पाता है लेकिन ये दावा करते हुए कि 2 करोड़ किसानों का हस्ताक्षर लेकर वो राष्ट्रपति से मिलने गए और कृषि क़ानून को किसान विरोधी बताया.


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राहुल जनभावनाओं की नब्ज़ पकड़कर सीधे किसानों के दिल में उतरने का ख़्वाब देख रहे थे. शायद इसलिए ऐलान भी कर दिया कि आंदोलन चलता रहेगा जबतक सरकार नहीं झुक जाती और लगे हाथों देश की लोकतांत्रिक पद्धति पर भी सवाल खड़ा कर दिया. अब तक तो सब ठीक चल रहा था, कांग्रेस पार्टी में भी उभरने की उम्मीदें हिलोर मार रही थी. लेकिन वो ये भूल रहे थी कि ये राहुल गांधी है जो किसी भी मुद्दे पर जितनी जल्दी एक्सपर्ट बनते हैं उससे भी ज़्यादा जल्दी उससे पीछे होकर पार्टी और पार्टी प्रवक्ताओं की किरकिरी करवा देते हैं. तभी तो किसानों को आंदोलन की आग जला कर रखने का अह्वान कर के सिर्फ दो दिनों बाद ही वो विदेश निकल जाते हैं.


किसानों के रणछोड़दास साबित हुए 'युवराज'


यानि खुद को किसानों का रहनुमा साबित करने में लगे राहुल, सरकार के खिलाफ किसानों को बीच लड़ाई में छोड़कर खुद रणछोड़ हो जाते हैं और पार्टी की आंदोलन की आड़ में जनभावओं से जुड़ने की कोशिश को एक ज़ोरदार झटका दे देते हैं. पार्टी के लिए राहुल के इस विदेश दौर पर कुछ भी कह पाना आसान नहीं था, तभी तो खुद राहुल की बहन प्रियंका भी राहुल के इस विदेश दौरे को लेकर ख़ामोश ही नज़र आईं और पार्टी ने राहुल का पर्सनल दौरा कह कर डैमेज कंट्रोल की कोशिश भी कर दी. .ये अलग बात है कि पार्टी की सफाई के बाद भी राहुल की नॉन सीरियस इमेज नहीं बदली.


रही सही कसर पार्टी नेताओं ने पूरी कर दी


राहुल पार्ट टाइम पॉलिटिक्स करते हैं उनपर ये आरोप लगातार लगता है, राहुल अपनी स्टैंड पर डटे नहीं रहते वो इन सवालों में भी उलझे रहते हैं, लेकिन मद्दों से भटकने में माहिर युवराज अपनी नॉनप्लानिंग की वजह से ही खुद मुद्दा बन जाते हैं और अपने साथ पार्टी की इमेज पर भी डेंट लगा देते हैं. ज़ाहिर है अनप्रिडिक्टेड राहुल की वजह से सबसे ज़्यादा फ़ज़ीहत उनके पार्टी के प्रवक्ताओं और विचारकों को होती है और ये तब भी दिखा जब ज़ी हिंदुस्तान के डिबेट शो देश को जवाब दो में, सवालों पर कांग्रेस के एक विचारक की प्रतिक्रिया थी कि राहुल न तो कोई मंत्री हैं, न ही गृहमंत्री और न ही प्रधानमंत्री तो फिर उनके कहीं जाने पर बहस क्यों हो?


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मतलब ये है कि कांग्रेस पार्टी के लोग और विचारक भी खुद को कमज़ोर विपक्ष ही नहीं मानते उस बेदम विपक्ष का राहुल को वो चेहरा बता रहा है जिसकी मौजूदगी सियासत के लिए ज़रुरी ही नहीं, जिस राहुल गांधी के चेहरे के साथ पार्टी खुद को वापिस खड़ा करना चाहती है वो राहुल ही पार्टी के साथ खड़े नज़र नहीं आते. जिस राहुल पर पार्टी को उम्मीद है वो राहुल उन्हीं उम्मीदों पर पानी फेर देते हैं.


राहुल का विदेश दौरा देश की सियासत में मुद्दा नहीं बनता लेकिन राहुल खुद अपनी बेड टाइमिंग की वजह से मुद्दे में आ जाते हैं. इस बार भी वजह है देश का किसान कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ आंदोलन पर है, राहुल आंदोलन को ज़ारी रखने की बात कहते हैं लेकिन किसानों को ठंढ में ठिठुरता छोड़ महज़ दो दिन बाद ही विदेश चले जाते हैं, कुछ वैसे ही जब सदन में सरकार ने कृषि बिल को पेश किया उस वक़्त भी राहुल चर्चा के लिए मौजूद नहीं थे, क्योंकि वो विदेश में अपनी पर्सनल वजहों से थे. अब ऐसे में राहुल से सवाल तो पूछना बनता है कि मूड के हिसाब से राजनीति करने वाले राहुल आवाम का भरोसा कैसे हासिल करेंगे? क्योंकि पाकिस्तान (Pakistan) के उपर सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगने में अगर राहुल गुरेज़ नहीं करते तो देश भी तो कांग्रेस के भविष्य के प्रधानमंत्री से अपने साथ खड़े होने का सबूत मांगेगा.


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