नई दिल्ली: कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के इटली जाने पर बहुत बवाल काटा जा रहा है, इस मुद्दे पर आखिर इतनी हाय-तौबा क्यों मची है? ये सवाल सिर्फ कोई कांग्रेसी ही पूछे ऐसा नहीं है, बल्कि आम आदमी के मन में भी शिद्दत से ये सवाल उठ सकता है. 


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ऐसा लग सकता है कि राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को बेवजह सियासी निशाना बनाया जा रहा है. जबकि बीजेपी की तरफ़ से कम, बल्कि न्यूज माध्यमों और सोशल मीडिया पर ही इस पर ज्यादा बवाल मचा है. आखिर क्या है इसकी वजह? दरअसल, इतना तय है कि इस दिशा में गंभीर शिकायत दर्ज करवाने वाले वही लोग होंगे, जो भाजपा (BJP) पर आरोप लगाते हैं कि उसका ध्यान सिर्फ़ और सिर्फ़ चुनाव जीतने पर और सरकार बनाने पर होता है! इसलिए इसकी भी पड़ताल ज़रूरी है.


आप हैरान हो सकते हैं कि इन दोनों मुद्दों की एक साथ चर्चा का आखिर मतलब क्या है? पर थोड़ा ठहर कर सोचेंगे तो सिरा जुड़ता हुआ नज़र आएगा. आर-पार की सियासी जंग के नाजुक वक्त में अक्सर राहुल मैदान के बाहर दिखते हैं.


कांग्रेस के युवराज और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की वजह से कई बार पार्टी के बड़े नेताओं को झेंपना पड़ता है. वो मीडिया के सवालों से बच कर निकलते देखे गए हैं. ऐसे नेता ही शिकायत कर सकते हैं कि उनकी विरोधी पार्टी की नजर सिर्फ चुनावी जीत और सरकार बनाने पर ही होती है. जो आरोप कांग्रेस के कई नेता बीजेपी पर लगाते आए हैं.


सवाल है चुनावी लोकतंत्र में जीत कर सरकार बनाना ही तो पहला कदम है, इसके बाद ही तो सियासी दल अपने विजन और वादों के मुताबिक बेहतर शासन दे सकते हैं. उन्हें वोट कर के विजयी बनाने वाली जनता का विश्वास जीत सकते हैं. इसीलिए तो वो राजनीति करते हैं. लेकिन इसे तुच्छ समझने वाले या जीत को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने वाले ही चुनावी मशक्कत की अहमियत को कम करके आंक सकते हैं या इसका मज़ाक उड़ा सकते हैं. सारा खेल बस इसी परसेप्शन का ही तो है. कांग्रेस (Congress) और बीजेपी के बीच वार-पलटवार की वजह यही परसेप्शन है।


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कांग्रेस के लिए सत्ता 'ज़हर'तो BJP के लिए 'समर'!


बवाल इस बात पर छिड़ा है कि कांग्रेस का स्थापना दिवस जैसे मौक़े पर राहुल विदेश दौरे पर हैं. आंदोलन कर रहे किसानों के मुद्दे को 'हवा' दी और जब निर्णायक फैसले का वक्त आया तो वो विदेश में हैं. लोग तो सवाल पूछेंगे ही,....और सवाल तब और लाजिमी हो जाते हैं जब राहुल और उनकी पार्टी के दूसरे नेता चुनाव जीत कर सरकार बनाने को संदेह भरी नज़रों से देखते हों।


याद कीजिए जब राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के राजनीति में आए आठ साल हो गए थे, तो जयपुर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में उन्हें पार्टी उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई, और जनवरी 2013 में कांग्रेस उपाध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने पहले भाषण में कहा था कि "कल रात मां मेरे कमरे में आईं, वो मेरे पास बैठीं और रोने लगीं. वो इसलिए रोईं क्योंकि सत्ता की जो ताकत बहुत लोग पाना चाहते हैं वो असल में जहर है."


दूसरी तरफ बीजेपी और उसके शीर्ष नेतृत्व का विजन, हर चुनाव को एक युद्ध की तरह लेता है. वोटर्स की उम्मीदों को ज़िम्मेदारी समझता है और उसे पूरा करने के लिए खुद को झोंक देता है. ऐसे में दोनों के बीच शिकायत तो होगी ही!


अरुणाचल की 'छोटी जीत' के 'बड़े मायने' हैं !


अभी एक ही दिन पहले, एक छोटी खबर आई और चली गई कि अरुणाचल प्रदेश के पंचायत चुनाव में बीजेपी ने एकतरफा क्लीन स्वीप किया! बीजेपी ने बड़े अंतर से जीत हासिल की है. राज्य के जिला परिषद सदस्य की 242 सीटों में से भाजपा को 187 सीटें हासिल हुईं और कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही, जिसे महज 11 सीटें मिल पाईं। अरुणाचल से ही आने वाले गृह राज्य मंत्री और बीजेपी नेता किरन रिजिजू ने इसे मोदी लहर बता दिया. स्मृति ईरानी ने भी इसे बीजेपी की उपलब्धि बताकर कई खूबियां गिना दीं,...मगर इस पर बहुत ज्यादा चर्चा नहीं हुई .


हालांकि ये जानना दिलचस्प है कि सुदूर अरुणाचल में आखिर BJP पंचायत स्तर पर भी इतनी असरदार क्यों दिखती है? सवाल और भी बड़ा तब हो जाता है जब हम इसे कोरोना और किसान आंदोलन के संदर्भ में देखते हैं. क्योंकि ये ऐसा वक्त है जब विपक्ष इन मुद्दों को लेकर केन्द्र की BJP गठबंधन सरकार पर लगातार हमलावर है. कहा जा रहा है कि BJP ने अपना आधार वोट गवां दिया है.


साथ ही पहले भी ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूदगी ना होने का तंज कसा जाता रहा है. हां ये कहा जा सकता है कि अरुणाचल में तो पेमा खांडू (Pema Khandu) की प्रचंड बहुमत वाली भगवा सरकार है ही,...इसलिए बीजेपी की इस जीत का कोई ख़ास महत्व नहीं है, लेकिन जनाब वो तो 2019 का चुनाव था, इस बीच बहुत कुछ बदल गया है. मगर जो नहीं बदला वो है BJP का लगातार हो रहा जमीनी विस्तार.


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सिर्फ चुनाव जीतना और सरकार बनाना है BJP का मक़सद?


कुछ उदाहरण ऐसे हैं जिन्हें लेकर BJP पर आरोप लगते रहे हैं कि उसका फोकस 'किसी भी तरह' चुनाव जीतना और सरकार बनाना होता है. अगर इसमें 'किसी भी तरह' के जुमले को छोड़ दें तो चुनावी लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसी बातें तारीफ में ही गिनी जाती हैं. और 'किसी भी तरह' वाले जुमले का इस्तेमाल हार छिपाने की ढाल के तौर पर देखी जा सकती है.


लेकिन ऐसे किसी भी तर्क-वितर्क में पड़ने से पहले एक नज़र डालिए सितंबर से लेकर अब तक हुए चुनाव परिणामों पर. पिछले 3-4 महीनों में हुए 1 विधानसभा चुनाव, 12 राज्यों में उपचुनाव, और 8 स्थानीय निकाय के चुनाव परिणाम पर गौर करेंगे तो हैरानी होगी.


बिहार के विधानसभा चुनाव में 74 सीटें हासिल कर बीजेपी (BJP) ने अपना ग्राफ बढ़ाया, सरकार बनाई. स्थानीय निकाय चुनावों की बात करें,...तो केरल में बीजेपी नंबर वन नहीं हो पाई. पिछली बार जहां 1,236 सीटें जीती थीं, इस बार टारगेट 2,500 सीटों का था फिर भी 1,800 वार्डों में जीत हासिल की. यानी पहले से ग्राफ ऊपर ही हुआ. इसके अलावा चाहे ग्रेटर हैदराबाद म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनाव हों, या जम्मू कश्मीर में डीडीसी चुनाव सबमें बीजेपी ने अपनी जीत का ग्राफ ज़बरदस्त तरीक़े से बढ़ाया.


इस बीच राजस्थान पंचायत समिति के चुनाव से लेकर गोवा के जिला पंचायत चुनाव तक में 48 में से 33 सीटें जीतकर बीजेपी की अश्वमेघी जीत का सिलसिला जारी है. इसी तरह 12 उपचुनावों में चाहे वो गुजरात के हों, कर्नाटक के, उत्तर प्रदेश के या मध्यप्रदेश के, पार्टी ने जीत का आंकड़ा तेज़ी से बढ़ाया.


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क्या है BJP की सफलता की पहचान?


क्या लोकसभा से लेकर विधानसभा और निकाय चुनाव तक, उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक इस तरह जीत दर्ज करना सिर्फ चुनावी मैनेजमेंट है? ऐसे आरोप लगाने वाले चुनावी लोकतंत्र को हेय दृष्टि से देखते हैं? या अपनी पराजय को ना स्वीकार कर पाने की वजह से इन आरोपों को ढाल बनाना चाहते हैं? इसे समझना मुश्किल है.


पर ये सच्चाई है कि देश में मजबूत विपक्ष का ना होना लोकतंत्र की कमजोरी है, आम लोग ऐसे हालात से निराश हैं. मगर लोगों की ये निराशा तब और बढ़ जाती है जब कमजोर विपक्ष इसके लिए भी सत्ता पक्ष को ही जिम्मेदार ठहराता है. चुनावी जीत को नकारना, लोकतंत्र को नकारना है और ऐसा तभी संभव है जब पार्टी के भीतर खुद लोकतंत्र ना हो.


पार्टी के ही नेता एके एंटनी की रिपोर्ट जैसे कई विचार कांग्रेस के अंदर आत्मावलोकन की मांग करते हैं, मगर जब पार्टी के अंदर ही लोकतंत्र ना हो तो सुने कौन? यही वजह है कि पिछले दिनों कांग्रेस के 25 वरिष्ठ नेताओं ने जब पार्टी के अंदर बदलाव के लिए कुछ विचार रखे थे, तो उन्हें बागी मान किनारे लगा दिया गया. दूसरी तरफ कई स्तरों पर समर्पित नेताओं कार्यकर्ताओं की फौज लिए बीजेपी ने अपनी छवि अनुशासित लोकतांत्रिक पार्टी की बनाई है. जिसका लाभ उसके कई चुनाव परिणामों पर दिखता है.


राहुल गांधी में है वो माद्दा?


व्यकितगत स्तर पर हर व्यक्ति के कुछ सकारात्मक पहलू जरूर होते हैं, पर सार्वजनिक चेहरे और खास तौर पर चुनावी राजनीति में कुछ खास गुण अनिवार्य माने जाते हैं. इनमें नेतृत्व क्षमता और विजन के साथ ही पार्टी, देश-समाज और मुद्दों के प्रति समर्पण अनिवार्य शर्त है. पर एक परिवार के ईर्द-गिर्द घूमते कांग्रेस नेतृत्व की अगली पीढ़ी राहुल और प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) को लेकर खुद उनकी पार्टी के नेता आश्वस्त नजर नहीं आते.


क्योंकि समर्पण की जगह सियासत को पर्यटन मानने वालों को ना तो पार्टी और ना ही देश समाज उचित स्थान देता है. राहुल गांधी की हालत भी कुछ ऐसी ही हो चुकी है. इसके बावजूद विरोधियों पर आरोप लगाने में सतही आक्रामकता और जल्दबाज़ी कई बार और भारी पड़ जाती है. बिना विचारे आरोपी तेवर दिखाने की वजह से तो राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट तक से माफी मांगनी पड़ी थी.  


कांग्रेस को चुनावी जीत से परहेज है क्या?


लोकतांत्रिक प्रक्रिया का आधार स्तंभ ही चुनाव होता है तो भला चुनावी जीत से किस सियासी पार्टी को परहेज होगा? मगर ऐसा तब नहीं लगता, जब विपक्षी या खास कर कांग्रेस, बीजेपी की जीत को हर पल खारिज करने पर उतारु दिखती हो, इस हद तक जैसे उसे चुनावी जीत से परहेज हो! कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने कुछ ऐसे ही नैरेटिव गढ़े हैं. जो अब कांग्रेस के लिए बहुत भारी पड़ रहे है.


दूसरी तरफ़ चुनावी जीत से लेकर सरकार बनाने और विजन से लेकर गुड गवर्नेंस देने तक की कवायद में जी जान से जुटी दिखती है बीजेपी. जिसका परिणाम उसे चुनाव-दर चुनाव मिलता दिख रहा है. ये सबसे बड़ा कारण है कि राहुल के विदेश दौरे पर बीजेपी की तरफ़ से उठाए गए सवालों से कहीं ज्यादा, अब आम लोग सोशल मीडिया पर इस पर अपना विरोध जता रहे हैं.


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