राणा प्रताप की जयंती पर वीर बालक दुद्धा की कहानी जो हमारे देश का गौरव है

महाराणा प्रताप की वीरगाथाएं हमारे गौरवशाली इतिहास का सबसे स्वर्णिम हिस्सा हैं. महावीर पुण्यात्माओं का प्रभाव कुछ ऐसा होता है कि उनके सान्निध्य में रहे लोग भी मील का पत्थर गढ़ जाते हैं. राणा प्रताप की जयंती पर पढ़िए ऐसे वीर बालक की कहानी जिसकी देशभक्ति इतिहास में अमर है

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : May 9, 2020, 06:40 PM IST
    • स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे राणा प्रताप की सहायता जंगलों में भील जाति के लोगों ने की थी
    • बहुत साहसी होते थे भील सैनिक, जंगल में रहकर करते थे राष्ट्र की रक्षा
राणा प्रताप की जयंती पर वीर बालक दुद्धा की कहानी जो हमारे देश का गौरव है

नई दिल्लीः जो तीन बेर खाती थीं, वे तीन बेर खाती हैं. कवि की यह पंक्तियां शूरवीर महाराणा प्रताप और उनकी रानी के संघर्ष की गाथा सटीक तौर पर खुद में समेट लेती हैं. मेवाड़ के लिए यह पराधीनता का समय था और तपती अरावली की घाटियों में संघर्ष करते हुए महाराणा अपनी सैन्य ताकत को फिर से जुटाने में लगे थे. मातृभूमि की बलिवेदी पर समर्पित राणा और उनका परिवार कई-कई दिनों तर निराहार रह जाता था. 

दो सुकुमार राजकुमार जमीन बनी जिनका बिछौना
अकबर के सैनिक पहाड़ी के चप्पे-चप्पे में फैले हुए थे. ऐसे में महाराणा को बार-बार स्थान भी बदलना होता था. कई बार ऐसा हुआ कि अधपका भोजन यूं ही छोड़कर उन्हें स्थान से हटना पड़ा. तीन-तीन दिन तक निराहार रहकर कंद-मूल फलखाकर यह राजपरिवार जंगलों से स्वतंत्रता के लिए यज्ञ कर रहा था.

जिस रानी और दो सुकुमार बालकों ने कभी महल से भी कदम भी नहीं रखे थे, उन्होंने भी पथरीले रास्ते पर चलते हुए कभी उफ तक नहीं की. धरती को बिछौना बनाकर और आसमान की चादर ओढ़कर दोनों बालक चुपचाप सोए रहते, ताकि पिता के चेहरे पर शिकन न आए. 

भीलों ने दिया साथ
संकट की इस घड़ी में जंगलों में रहने वाली भील जनजाति ने अपने राणा की श्रद्धा से सहायता की. यह जाति राष्ट्रभक्त थी और जंगलों से चित्तौड़-मेवाड़ की सुरक्षा किया करती थी. एक दिन छोटे बालक को भूख असहनीय हो गई तो रानी मां ने उसके लिए घास की रोटी बना दी. बालक जैसे ही उसे खाने को हुआ एक खरगोश वह रोटी लेकर भाग गया.

यह देख रानी ने हथेलियों में चेहरा छिपा लिया और खुद को संयत कर लिया. राणा की सेवा में लगे एक भील पुंगा ने उसी समय प्रण किया कि महाराणा को भोजन की व्यवस्था वह किसी न किसी प्रकार कराएगा. 

स्वामिभक्त सेवक पुंगा
पुंगा बहुत ही स्वामिभक्त था. वह राणा के अंगरक्षक दल का प्रमुख सदस्य था. राणाप्रताप की दृढ-प्रतिज्ञा और देशप्रेम पर वह पूर्णतया न्योछावर था. उसके परिवार में केवल दो सदस्य थे, उसकी पत्नी और उसका बेटा दुद्धा. 9-10 साल का वह बालक अपने पिता पुंगा से देशभक्ति और राणा की वीरगाथा सुन-सुनकर बड़ा हो रहा था.

उसमें भी यह संस्कार पनपने लगे थे. पुंगा दुद्धा को राणाप्रताप की वीरता के कारनामे सुनाता और मातृभूमि के प्रति उनके प्रगाढ प्रेम का वर्णन करता, इससे दुद्धा का हृदय राणाप्रताप के प्रति श्रद्धा से अभिभूत हो उठता था. लेकिन विधाता की इच्छा, एक दिन पुंगा अकबर के सैनिकों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ. 

पुंगा के बाद दुद्धा पहुंचाने लगा महाराणा को भोजन
एक बार राणाप्रताप पुंगा की पहाड़ी बस्ती में रुके हुए थे. बस्ती के भील बारी-बारी से प्रतिदिन राणाप्रताप के लिए भोजन पहुँचाया करते थे. इस कड़ी में आज दुद्धा की बारी थी, लेकिन उसके घर में अन्न का दाना भी नहीं था. दुद्धा की मां पड़ोस से आटा मांगकर ले आई और रोटियाँ बनाकर दुद्धा को देते हुए बोली, ले, यह पोटली महाराणा को दे आ. दुद्धा ने खुशी-खुशी पोटली उठाई और पहाड़ी पर दौड़ते-भागते रास्ता नापने लगा.

अकबर के सैनिकों को दुद्धा पर हुआ शक
घेराबंदी किए बैठे अकबर के सैनिकों को दुद्धा को देखकर शंका हुई. एक ने आवाज लगाकर पूछा, क्यों रे ! इतनी जल्दी-जल्दी कहाँ भागा जा रहा है ? दुद्धा ने बिना कोई जवाब दिए, अपनी चाल बढ़ा दी. मुगल सैनिक उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भागने लगा, लेकिन उस चपल-चंचल उम्र का पीछा वह जिरह-बख्तर में कसा सैनिक नहीं कर पा रहा था. दौड़ते-दौड़ते वह एक चट्टान से टकराया और गिर पड़ा, इस क्रोध में उसने अपनी तलवार चला दी. 

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सैनिक ने काट दी दुद्धा की कलाई
तलवार के वार से बालक की नन्हीं कलाई कटकर गिर गई. खून फूट कर बह निकला, लेकिन उस बालक का जिगर देखिए, नीचे गिर पड़ी रोटी की पोटली उसने दूसरे हाथ से उठाई और फिर सरपट दौड़ने लगा. बस, उसे तो एक ही धुन थी - कैसे भी करके राणा तक रोटियाँ पहुँचानी हैं.

रक्त बहुत बह चुका था. अब दुद्धा की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा, उसने चाल और तेज कर दी, जंगल की झाड़ियों में गायब हो गया. सैनिक हक्के-बक्के रह गए कि कौन था यह बालक?

वीरगति को प्राप्त हो गया दुद्धा
जिस गुफा में राणा परिवार समेत थे, वहां पहुंचकर दुद्धा चकराकर गिर पड़ा. उसने एक बार और शक्ति बटोरी और आवाज लगादी राणाजी. आवाज सुनकर महाराणा बाहर आए. एक कटी कलाई और एक हाथ में रोटी की पोटली लिए खून से लथपथ 12 साल का बालक युद्धभूमि के किसी भैरव से कम नहीं लग रहा था. 

अमर हो गया दुद्धा
राणा ने उसका सिर गोद में लिया और पानी के छींटे मारकर होश में ले आए. टूटे शब्दों में दुद्धा ने इतना ही कहा-राणाजी ! ...ये... रोटियाँ... मां ने.. भेजी हैं. उनका ख्याल रखना. फौलादी प्रण और तन वाले राणा की आंखों से शोक का झरना फूट पड़ा. वह बस इतना ही कह सके,

धन्य है तेरी देशभक्ति, तू अमर रहेगा मेरे बालक. तू अमर रहेगा. अरावली की चट्टानों पर वीरता की यह कहानी आज भी देशभक्ति का उदाहरण बनकर बिखरी हुई है. दुद्धा जैसे बालक हमारे इतिहास के गौरव और संस्कृति के आधार हैं. 

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