नई दिल्ली: अमेरिकी खुफिया विभाग के प्रमुख जॉन रेटक्लिफ ने सनसनीखेज़ बात कही है और पूरी दुनिया को आगाह किया है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही अमेरिका समेत पूरी दुनिया के लिए चीन सबसे बड़ा ख़तरा बना हुआ है. 


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दुनिया को कब्जे में करना चाहता है चीन 
एक अखबार में लिखे कॉलम में अमेरिकी खुफिया एजेंसी के प्रमुख जॉन रेटक्लिफ ने कहा कि, "चीन सैन्य, तकनीक और आर्थिक, तीनों ही ताकतों का इस्तेमाल कर पूरे विश्व को अपने कब्जे में करना चाहता है. चीन की बड़ी कंपनियों का इरादा केवल सत्ता में बैठी कम्युनिस्ट पार्टी की इच्छा और इरादों को आगे बढ़ाना है. चीनी कंपनियां अमेरिका की कंपनियों को धीरे-धीरे समाप्त करने की मंशा लेकर आगे बढ़ रही हैं"



चीन इस वक़्त दुनिया के ताकतवर मुल्कों में गिना जाता है. चीन की हमेशा से मंशा रही है कि वो दुनिया पर राज करे और वो अमेरिका को पछाड़कर ग्लोबल सुपर पावर बनने कोशिशों में जुटा है. कोरोनावायरस ने पश्चिम और पूरब के बीच में एक शीत युद्ध शुरू कर दिया है. चीन इस महामारी को मौके के तौर पर ले रहा है और दुनिया में अपनी बादशाहत कायम करने की फिराक में है, लेकिन 30 साल पहले तक ऐसा नहीं था


चीन ने की असाधारण तरक्की
1990 का दशक, चीन इंसानियत के इतिहास के सबसे बड़े अकाल से जूझ रहा था. चीन की अर्थव्यवस्था ना सिर्फ ग्रेट ब्रिटेन से कम थी बल्कि 75 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जी रहे थे, तो आखिर कम्युनिस्ट चीन कैसे दुनिया का दूसरा सबसे प्रभावशाली मुल्क बन गया और कैसे और क्यों पश्चिमी देश ने चीन को आगे बढ़ने दिया.


चीन एक पार्टी से चलनेवाला मुल्क है, जिसका मतलब है कि कोई लोकतांत्रिक चुनाव नहीं होते हैं और पूरा मुल्क एक पार्टी चलाती है, जिसके मुखिया का नाम है शी जिनपिंग. चीन के आधुनिक दिनों का इतिहास 1946 में शुरू हुआ



दूसरा विश्व युद्ध बस ख़त्म हुआ था, चीन में एक गृह युद्ध शुरू हो चुका था.  जिसमें राष्ट्रवादियों को अमेरिका की शह मिली हुई थी. सालों की जंग के बाद कम्युनिस्ट जीत गए और राष्ट्रवादियों को निर्वासित कर के ताइवान भेज दिया गया. 


माओ की महत्वकांक्षा पर करोड़ो जानें हुई बलिदान
आनेवाले कई सालों तक माओ जेडांग के हाथों में चीन की कमान रही. माओ ने कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को उद्योग में तब्दील करना शुरू किया जिसमें कम से कम 4 करोड़ लोगों की जान गई. उन दिनों में कितने लोगों की मौत हुई ये समझना मुश्किल है, बस इसी से जान लीजिए कि आधा इंग्लैंड एक बार में ही साफ हो गया.



माओ के सुधार कार्यक्रमों ने चीनी अर्थव्यवस्था पर कहर बरपा दिया. 1958 में द ग्रेट लीप फॉरवर्ड से चीन की औद्योगिक क्षमता को बढ़ाने की नाकाम कोशिश की गई, जिससे सबसे बड़े अकाल का सामना करना पड़ा.


1966 में माओ सांस्कृतिक क्रांति लेकर आए. मकसद था पश्चिमी सभ्यता को चीन से बाहर करना. चीन में कत्लोआम हुआ, चीन की सभ्यता से अलग जो दिखता उसे मार दिया जाता. लाखों लोगों को लेबर कैम्प में बंद कर दिया गया. आतंक के इस दौर में अमेरिका ने चीन की कम्युनिस्ट सरकार को अवैध करार दिया और उनसे छद्म युद्ध लड़ने लगा. पहले कोरिया में और बाद में वियतनाम में. अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को दाखिल होने से रोक दिया और चीन पर प्रतिबंध लगा दिए.


चीन ने अमेरिका से पींगें बढ़ाई
1971 में अचानक चीज़ें बदलीं, खेलों में चीनी और अमेरिकी साथ आए और कुछ सालों बाद अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन चीन का दौरा करने भी पहुंचे. जिसे पिंग-पॉन्ग डिप्लोमेसी कहा जाता है.



 
धीरे-धीरे रिश्ते मज़बूत होते गए और 1976 में माओ की मौत बाद अमेरिका ने औपचारिक तौर पर 1979 में चीन से समझौते किए. इसी दौरान 1978 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नए अध्यक्ष चुने गए डेन जाओ पिंग. जाओ ने चीनी लोगों पर अत्याचार और आतंक के लिए माओ को ज़िम्मेदार ठहराया और नए आर्थिक सुधारों को लेकर आए, जिसमें बाज़ार से सरकारी नियंत्रण कम किया गया. 


चीन ने निजी उद्योगों के लिए दरवाज़े खोल दिए और विदेशी निवेश को भी मंज़ूरी देना शुरू कर दिया. अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों के लिए ये मौका था, उन्हें सस्ते कामगार मिल रहे थे, सस्ती ज़मीनें मिल रही थीं और कोई नियम कानून का बंधन नहीं था.



अगले दशक में जो हुआ उसे आर्थिक चमत्कार कहा जाता है, करोड़ों लोग गरीबी रेखा से बाहर आ गए. चीन दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना, हालांकि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही जारी रही. अर्थव्यवस्था को सरकार और सरकारी कम्पनियों के साथ ही स्वतंत्र बाज़ार के साथ संतुलित कर दिया गया था.


चीन ने खोला अपना बाजार 
80 के दशक के दौरान अर्थव्यस्था बढ़ने लगी. 1987 में चीन में पहला केएफसी खुला, 1991 में मैकडॉनल्ड्स. जाओ पिंग के आर्थिक और राजनीतिक सुधार थे लेकिन अभी भी सत्ता की कमान क्रूर कम्युनिस्ट पार्टी के पास थी. 1989 में जब सोवियत संघ टूट रहा था, तियानमेन स्क्वॉयर पर चीनी छात्रों ने लोकतंत्र के लिए आवाज़ उठाई. उस वक़्त एक अज्ञात व्यक्ति जिसे टैंक मैन के नाम से जानते हैं, मिलिट्री के सामने सीना तानकर खड़ा हो गया. लेकिन प्रदर्शनकारियों को दबा दिया गया, सरकार ने कम से कम 10 हज़ार लोगों का कत्ल करा दिया.



बेल्ट एंड रोड के लेखक ब्रुनो मकाइस, कहते हैं कि, "पश्चिमी मुल्कों ने चीन के उदय में साथ दिया. उसे इंफ्रास्ट्रक्चर दिया, वित्तीय सहायता मुहैया कराई, हमें समझना होगा कि चीन के अंदर से जो आभास मिल रहे थे, वो एक प्राचीन व्यापारिक सभ्यता थी, जिसे 30 साल पहले जवान समाज से गति मिली, भविष्य के लिए उम्मीदें मिलीं और पश्चिमी देशों ने उसे मौका दिया, दुनिया का बाज़ार खोला और वो इंफ्रास्ट्रक्चर दिया जिसकी तब चीन को ज़रूरत थी. मैं समझता हूं कि एक समाज जो अपनी बुलिंदयों पर हो जैसे पश्चिमी देश, शीत युद्ध के बाद मानने लगे थे कि पूरी दुनिया उनके जैसी हो जाएगी, जो कई मायनों में एक बड़ी गलती थी"


आवाज उठाने वालों पर जुल्म
चीन का जटिल इतिहास और रॉकेट की तरह उसका विश्व में बढ़ना सिर्फ एक शख़्स की ज़िंदगी से जाना जा सकता है. वो जिसके बारे में आपने शायद ही सुना होगा, उनका नाम है चैंग यानयॉन्ग, 1954 में चैंग ने पीपल्स लिबरेशन आर्मी में जाने का फैसला किया जो पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का मिलिट्री विंग है. वो मिलिट्री में काफी तेज़ी से आगे बढ़ते गए, जो मिलिट्री डॉक्टर से मेजर जनरल तक बने और बीजिंग के 301 अस्पताल के चीफ भी रहे. एक समय वो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे ताकतवर विरोधी बनकर उभरे और आज वो चीन में ही नज़रबंद हैं, उनके इस सफर ने कम्युनिस्ट चीन को बढ़ते हुए देखा है,



शुरुआती दौर में मानवता खिलाफ चीन की कठोर नीतियों के गवाह चैंग यानयॉन्ग भी बने लेकिन खामोश रहे. चीनी लोगों को कम्युनिस्ट पार्टी के अत्याचारों की याद दिलाई जाती रही, ये पश्चिमी देशों के लिए चेतावनी थी कि चीन में तानाशाही तेवर बदले नहीं हैं. लेकिन इसे पश्चिमी देशों ने नज़रअंदाज़ किया और अमेरिका के साथ दूसरे पश्चिमी देशों ने चीन को दुनिया के बाज़ार में घुसने की इजाज़त दी. उन्हें चीन के साथ सौदा कर के खरबों डॉलर की कमाई हो रही थी.


व्यापार के लिए अमेरिका ने मानवाधिकार उल्लंघन को ताक पर रखा
साल 2000 में बिल क्लिंटन ने कहा कि चीन को क्यों नहीं विश्व व्यापार संगठन में शामिल होना चाहिए. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने चीन का समर्थन करते हुए कहा था कि, "ये अनुबंध चीन को WTO में सदस्य बनाता है जिससे अमेरिका को चीन के अंदर आर्थिक मौके मिलेंगे. एक नियम आधारित सिस्टम में शामिल होना और आर्थिक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना, दोनों आज़ादी और कानूनों के साथ मानवाधिकार को बढ़ावा देगा"



साल 2000 में ही चीनी सरकार ने इंटरनेट पर बंदिशें लगानी शुरू की, अगले साल 2001 में कम्युनिस्ट सरकार वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन में शामिल हो गई और 2008 के ओलम्पिक आयोजन को भी हासिल कर लिया. 2002 में एक कोरोनावायरस जिसे सार्स कहा गया, चीन के एक जानवरों के बाज़ार से निकला. 


चैंग ने आवाज उठानी शुरु की
चैंग यानयॉन्ग ने काफी पहले महामारी को भांप लिया था. लेकिन उन्होंने देखा कि जो आंकड़े सरकार दुनिया को बता रही है वो सार्स मरीज़ों के असल आंकड़ों से बिल्कुल अलग थे. चैंग ने एक 800 शब्दों की चिट्ठी चीनी मीडिया को भेजी और बताया कि कैसे चीन आंकड़ों में घालमेल कर रहा है. किसी मीडिया ने उनकी चिट्ठी को नहीं दिखाय़ा, ना ही उसका जवाब दिया. 


हालांकि पश्चिमी मुल्कों में कई अखबारों को जानकारी मिली और उन्होंने चैंग की चिट्ठी को छाप दिया. पहली बार चीन में सार्स महामारी को लेकर दुनिया सजग हुई. चैंग की चिट्ठी का छपना इतना गंभीर था कि चीन के स्वास्थ्य मंत्री और बीजिंग के मेयर को इस्तीफा देना प़ड़ा और सरकार ने महामारी की रोकथाम के लिए कार्रवाई शुरू की. उस वक़्त के एक्सपर्ट मानते हैं कि चैंग की चिट्ठी के बाद ही सरकार ने महमारी को गंभीरता से लेना शुरू किया. 


मानवाधिकार कार्यकर्ता जेनिफर जेंग का कहना है कि, "चैंग की चिट्ठी के बिना, दुनिया अब तक अंधेरे में रहती और हम नहीं जानते कि और कितने लोग मर जाते. अगर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी सार्स महामारी को छिपाती तो हमें बहुत ही ज़्यादा नुकसान देखने को मिलता इसलिए मैं समझती हूं कि कम्युनिस्ट पार्टी को चैंग का शुक्रगुज़ार होना चाहिए"


जिनपिंग ने चीन को ग्लोबल नजरिया दिया
साल 2013 में शी जिंग पिंग चीन के नए नेता बने और उनके पास ग्लोबल चाइना के लिए नया विज़न था. वो चीन जो अंतर्राष्ट्रीय नियमों से नहीं चलता. वो सिर्फ दूसरे मुल्कों को या तो विरोधी मानते हैं या फिर ग्राहक मानते हैं. 


WTO के ज़रिए काम करने की बजाय चीन ने बेल्ट और रोड प्रोजेक्ट शुरू किया, जिसमें उसने गरीब विकासशील देशों को चुना और वहां लाखों करोड़ लगाकर इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने लगा. वहीं पश्चिमी मुल्क अफ्रीका और विकासशील देशों में निवेश करने में नाकाम रहे. चीन सड़के बनाने लगा, बंदरगाह और बांध बनाने लगा. और बदले में उन मुल्कों में मौजूद कुदरती संसाधनों का दोहन करने लगा. दुनिया को लगा कि उन्हें चीन से हाथ मिलाना चाहिए ना कि चीन को दुनिया के साथ. इस दौरान चीनी मिलिट्री को लाखों करोड़ों का बजट मिलने लगा. जिससे उन्होंने दक्षिण चीन सागर में अपनी दखल बढ़ा दी. 


चीन पर जिनपिंग का एकाधिकार


साल 2018 में शी जिनपिंग ने राष्ट्रपति बने रहने की अवधि को ख़त्म कर दिया ताकि वो अनिश्चित काल तक सत्ता में बने रहे. एक साल बाद एक नए कोरोनावायरस ने चीन में दस्तक दी. चीनी सरकार ने फिर से महमारी को छिपाने की कोशिश की, लेकिन वुहान के एक डॉक्टर ली वेंगयांग ने दिसम्बर के आखिर में अपने साथियों को नए कोरोनावायरस कोविड-19 के बारे में बताया, उन्हें गिरफ्तार किया गया और जबरन वो दस्तावेज़ साइन कराए गए जिसमें इसे एक अफवाह बताया गया. उसके कुछ समय बाद ही डॉक्टर ली की कोरोनावायरस से मौत हो गई.


फरवरी 2020 में बात सामने आई कि चैंग येनयॉन्ग को नज़रबंद कर दिया गया है, उन्होंने शी जिनपिंग को ख़त लिखा था और कहा था कि तियानमैन स्क्वॉयर पर जो हुआ वो अपराध था.


चीन के उदय से ये तो ज़रूर हुआ कि करोड़ों लोग गरीबी रेखा से बाहर आ गए लेकिन दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था में तेज़ी आई, हालांकि ये सच है कि बीजिंग में एक तानाशाही शासन अभी भी ताकतवर है और जबसे विश्व के बाज़ार में चीन को दाखिल होने का मौका मिला जिसे खुद अमेरिका ने चीन को थाली में सजा कर दिया, चीन लोकतांत्रिक सुधार लाने से कोसो दूर है. और आज सार्स कोरोनावायरस की महामारी के दौर में चीन की तानाशाही सरकार के एक्शन अमेरिका के साथ-साथ पूरी दुनिया जानलेवा अंजाम तक ले जाते हैं.


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