Independence Day: वह मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी जिसके खाने में पेश किया बेटे का कटा सिर
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Independence Day: वह मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी जिसके खाने में पेश किया बेटे का कटा सिर

Bahadur Shah Zafar: जब भी मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों का जिक्र होगा तो बहादुर शाह अली जफर का नाम जरूर आएगा. जिन्होंने 1857 की जंग का नेतृत्व किया. आइये जानते हैं पूरी डिटेल

Independence Day: वह मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी जिसके खाने में पेश किया बेटे का कटा सिर

Bahadur Shah Zafar: हिंदुओं (भारतीय) में बू रहेगी जब तलक ईमान की. तख्त-ए-लंदन तक चलेगी तेग-ए-हिंदुस्तान (हिंदुस्तान की तलवार) की. ये शायरी है बहादुर शाह जफर की, जिन्होंने 1857 की जंग की सदारत की. वैसे तो हिंदुस्तान की आज़ादी में हज़ारों-लाखों लोगों ने अपनी जान कुर्बान कर दी. लेकिन, जब भी इन मतवालों का कभी जिक्र होगा, तो उनमें आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह अली ज़फर का नाम भी जरूर आएगा. वह राजा जिसके बेटों का सिर काटकर उसके सामने पेश किया गया, जहां वह राज करता था वहां उसे कैद कर ट्रायल चलाया गया, लेकिन उसने कभी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके.

अकबर सेकेंड के बाद संभाली गद्दी

वह अपने पिता अकबर सेकेंड के दूसरे बेटे और उत्तराधिकारी थे, जिनकी मौत 1837 में हो गई थी. आप बहादुर शाह ज़फर को उस टाइम में नाम के लिए सम्राट कह सकते हैं. क्योंकि मुगलों का राज केवल नाममात्र के लिए अस्तित्व में था और उसका अधिकार केवल पुरानी दिल्ली (शाहजहांबाद) के चारदीवारी वाले शहर तक ही सीमित था. ज़फर के पिता अकबर एक मुस्लिम थे और उनकी वालिदा यानी मां एक हिंदू राजपूत थीं, जिनका नाम लाल बाई था.

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1857 के भारतीय विद्रोह में उनकी भागीदारी के बाद, अंग्रेजों ने उन्हें बरतरफ कर दिया था और 1858 के आखिर में उन्हें कई आरोपों में दोषी ठहराते हुए ब्रिटिश-नियंत्रित बर्मा के रंगून में निर्वासित कर दिया. उनके साथ उनकी पत्नी जीनत महल भी बर्मा चली गईं.

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1857 की जंग

1857 की जंग का आगाज़ हुआ और लाखों की तादाद में मुस्लिम उलेमाओं ने बहादुर शाह ज़फर की सदारत में इस जंग में हिस्सा लिया. जैसे-जैसे 1857 का भारतीय विद्रोह फैला, सिपाही रेजिमेंट दिल्ली के मुगल दरबार में पहुंच गए. धर्मों पर ज़फ़र के तटस्थ विचारों के कारण, कई भारतीय राजाओं और रेजिमेंटों ने उन्हें स्वीकार किया और उन्हें भारत का सम्राट घोषित किया. हालांकि इस जंग में बहादुर शाह ज़फर को शिकस्त का सामना करना पड़ा और उन्हें लाल किले में बंदी बना लिया गया. इसके बाद उन्हें बर्मा के रंगून भेज दिया गया.

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अंग्रेजों की खिलाफ भारतीयों की हुंकार

10 मई को भारतीय सैनिकों ने उत्तरी शहर मेरठ में अपने ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ विद्रोह कर दिया. विद्रोह दिल्ली, आगरा, लखनऊ और कानपुर तक फैल गया. इस विद्रोह के पीछे नए कानून, वेस्टर्न वैल्यूज और ईसाई धर्म को लागू करने की कोशिशें वजह मानी गई. विद्रोह ने हजारों हिंदू और मुस्लिम सैनिकों को एकजुट कर दिया. जिन्होंने तत्कालीन मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर को अपना लीडर चुना.

अंग्रोज़ों ने भारतीयों को भारतीयों के खिलाफ खड़ा किया

ब्रिटिश जनरलों ने पंजाब से सिख सैनिकों और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत से पठानों को तैनात किया. सितंबर तक दिल्ली पर कब्जा कर लिया गया. दोनों पक्षों पर अंधाधुंध हत्याओं का आरोप लगाया गया. हजारों विद्रोहियों और उनके समर्थकों की सामूहिक हत्या के लिए अंग्रेजों को दोषी ठहराया गया. विद्रोह आधिकारिक तौर पर जुलाई 1858 तक खत्म हो गया. उसी साल, ईस्ट इंडिया कंपनी को समाप्त कर दिया गया और ब्रिटिश सरकार के जरिए भारत पर सीधे शासन करने का ऐलान किया गया.

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गिरफ्तारी के बात बेटों की हत्या और लाल किले में ट्रायल

बहादुर शाह की गिरफ्तारी के बाद उनके दो बेटों और एक पोते को ब्रिटिश लीडर होडसन के जरिए गोली मार दी गई. इसके बाद बहादुर शाह ज़फर का ट्रायल लाल किले में किया गया, उसी जगह जहां कभी वह राज किया करते थे. ऐसा पहली बार था, जब लाल किले में कोई ट्रायल हुआ था.

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21 दिनों तक चला मुकदमा और 19 बार हुई सुनवाई

यह मुकदमा 21 दिनों तक चला, इसमें 19 सुनवाई हुई, 21 गवाह और फारसी और उर्दू में सौ से ज्यादा दस्तावेज़, उनके अंग्रेजी अनुवाद के साथ, अदालत में पेश किए गए. पहले यह सुझाव दिया गया था कि यह मुकदमा कलकत्ता में चलाया जाए, जहां ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशक अपने व्यापारिक कार्यों के सिलसिले में बैठते थे. लेकिन, इसके बजाय, दिल्ली के लाल किले को मुकदमे के लिए चुना गया.

खाने में पेश किया बेटे का सिर

अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर पर खूब जुल्म किया. इतिहासकार बताते हैं कि उन्हें मांसिक और शारीरिक तौर पर भी प्रताड़ित किया गया. जेल में जब बहादुर शाह जफर को भूख लगी तो उन्होंने खानी की मांग की. इसके बाद अंग्रेजी शासन ने उनके बेटे का कटा हुए सिर उनके सामने पेश किया गया. जिसपर उन्होंने अंग्रेजों को जवाब दिया कि हिंदुस्तान के बेटों का सिर देश के लिए कु्र्बान होकर ऐसे ही आता है. जिससे साफ होता है कि उनके लिए प्राथमिकता भारत की आज़ादी दी फिर चाहे उनके बेटों को कु्र्बानी ही क्यों न हो जाए.

रंगून में मौत

7 नवंबर 1862 में जब बहादुर शाह जफर ने रंगून (अब यांगून) में एक जर्जर लकड़ी के घर में आखिरी सांस ली तो केवल कुछ ही रिश्तेदार उनके साथ मौदूज थे. उनकी मौत 87 साल की उम्र में हुई. उसी दिन, उनके ब्रिटिश अपहर्ताओं ने उन्हें फेमस श्वेडागोन पैगोडा के पास एक कैंपस में एक अज्ञात कब्र में दफना दिया. अंग्रेजों ने उनके चाहने वालों को दूर रखने के लिए उन्हें एक अज्ञात कब्र में दफना था. हालांकि वह उनकी मौत की खबर को नहीं रोक सके और वह कुछ ही दिनों में भारत पहुंच गई.

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उस शख्स के लिए बेइंतहां खतरनाक अंत था, जिसके मुगल पूर्वजों ने 300 सालों तक आधुनिक भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के बड़े हिस्सों सहित एक बड़े इलाके पर राज किया था.

नहीं थी कोई सेना फिर भी बने एक बेहतरीन कमांडर

एक राजा के तौर पर ज़फर ने सेना की कमान नहीं संभाली, लेकिन वह एक विद्रोह का सिंबल लीडर बन गए. जिसने मुसलमानों और हिंदुओं दोनों को एकजुट किया. इतिहासकार बताते हैं कि मुगल शासन को बहाल करने के समर्थन में दोनों धर्मों के हज़ारों सैनिक अपने ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ़ विद्रोह करने के लिए एक साथ आए थे.

1991 तक नहीं पहचान पाए कहा हैं कब्र

यांगून के एक शांत रास्ते में मौजूद ज़फ़र एक बेहद नॉर्मल मकबरा भारतीय इतिहास के सबसे उथल-पुथल भरे वक्त को याद दिलाता है. हालांकि आसपास के रहने वाले लोगों को पता था कि जफर को स्थानीय छावनी के परिसर में कहीं दफनाया गया है. जहां उसे और उसके परिवार के सदस्यों को रखा गया था. लेकिन, उन्हें 1991 तक इसका पता नहीं चल चल पाया.

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कैसे पता चला

एक दिन नाली खोदने वाले मजदूर जब खुदाई कर रहे थे तो उन्हें ईंटों से बना एक स्ट्रक्चर मिला. जो बाद में पूर्व राजा की कब्र निकली और जनता के दान से यहां मजार बनवाया गया. भारत में अपने पूर्वजों के भव्य मकबरों की तुलना में ज़फ़र का मकबरा बेहद मामूली दिखता है. एक मेहराबदार लोहे की ग्रिल पर उनका नाम और उपाधि लिखी गई है. ज़मीन पर उनकी एक पत्नी ज़ीनत महल और उनकी पोती रौनक ज़मानी की कब्रें हैं.

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ज़फर ने हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल

बहादुर शाह अली ज़फर एकता की बात करते थे. वह हमेंशा हिंदू मुस्लिम एकता की हिमायती भी रहे. यह चीज़ उनकी कुछ लिफावट में भी मिलती है. अंग्रेजी सरकार ने उन्हें आखिरी वक्त में उनके पेन और पेपर के इस्तेमाल पर रोक दी थी. कहा जाता है कि उन्होंने अपने कारावास की दीवारों पर कोयले से लिखा था. मकबरे में उसकी कुछ कविताएं लिखी मिलती हैं.

ऐसे वक्त में जब कट्टरवाद बढ़ रहा है, इतिहासकारों का कहना है कि ज़फ़र की मज़हबी रवादारी आज भी रेलेवेंट है. हो सकता है कि उन्होंने अपना ओहदा और नसब (वंश) खो दिया हो. लेकिन वे दिलों पर राज करने में कामयाब रहे, और एक स्वतंत्रता सेनानी, सूफ़ी संत और बेहतरीन कवि के तौर पर आज भी जाने जाते हैं.

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