Fatima Sheikh: अपने नायकों को क्यों याद नहीं रख पाते हैं मुसलमान
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Fatima Sheikh: अपने नायकों को क्यों याद नहीं रख पाते हैं मुसलमान

फातिमा शेख जैसी अजीम शख्सियत का किरदार अभी भी हिंदुस्तानी अवाम के दिलों-दिमाग से गायब है. हालांकि गुजिश्ता 9 जनवरी को गूगल ने फातिमा शेख पर डूडल बनाकर भारत में दलित और बहुजन स्त्री शिक्षा आंदोलन में उनके तआवुन की याद दिलकार पब्लिक डिस्कोर्स में उनके लिए थोड़ी जगह बना दी है.

Fatima Sheikh: अपने नायकों को क्यों याद नहीं रख पाते हैं मुसलमान

नई दिल्लीः अभी पिछले दस दिनों के अंदर मुल्क की दो तारीखी महिलाएं सोशल मीडिया डिस्कोर्स का हिस्सा रहीं. इनमें से एक थीं सावित्री बाई फुले जिनकी 3 जनवरी को यौमे पैदाईश थी. जबकि दूसरी महिला थी फातिमा शेख जिनका 9 जनवरी को जन्मदिन मनाया गया. सावित्री बाई फुले बहुजन नायक महात्मा ज्योतिबा फुले की अहिल्या थीं और उन्हें हिंदुस्तान में दलित-बहुजन औरतों और लड़कियों की तालीमी तहरीक के बानी के तौर पर जाना जाता है. तकरीबन 150 सालों तक भारतीय इतिहास में ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले मियां-बीवी को वह मुकाम नहीं मिला जिसके वह हकदार थे, लेकिन पिछले दो दहाईयों में बहुजन इतिहासकारों और लेखकों ने बहुजन नायकों, आइकॉन की तलाश के सिलसिले में उन्हें गुमनामी के अंधरे से निकालकर मंजरे आम पर लाने का काम किया. 

वहीं दूसरी तरफ फातिमा शेख जैसी अजीम शख्सियत का किरदार अभी भी हिंदुस्तानी अवाम के दिलों-दिमाग से गायब है. हालांकि गुजिश्ता 9 जनवरी को गूगल ने फातिमा शेख पर डूडल बनाकर भारत में दलित और बहुजन स्त्री शिक्षा आंदोलन में उनके तआवुन की याद दिलकार पब्लिक डिस्कोर्स में उनके लिए थोड़ी जगह बना दी है. ढे़र सारे लोगों के मन में यह सवाल पैदा हो गया है कि आखिर फातिफा शेख कौन थीं, जिसपर गूगल ने डूडल बनाकर उन्हें खराज-ए-अकीदत पेश किया? 

फातिमा शेख वह खातून थीं, जिन्होंने ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के साथ कदम से कदम मिलाकर मॉडर्न इंडिया में स्त्री शिक्षा के आंदोलन को धार दिया था. हालांकि यह बड़ी बदकिस्मती रही है कि स्त्री शिक्षा आंदोलन में फातिमा शेख के किरदार और तआवुन को भुला दिया गया या फिर ऐसा कह सकते हैं कि फुले दंपति की तरह उनका किरदार कभी अवामी मंजर पर नहीं आया. फातिमा शेख के किरदार को हम यहां खंगालने की थोड़ी जहमत करेंगे.  

उत्तर प्रदेश से महाराष्ट्र पहुंचा था फातिमा शेख का खानदान   
’मुस्लिम सत्याशोधक’ मराठी मैगजीन ने जुलाई-अगस्त 2020 के अपने एडिशन में लिखा है कि उस वक्त फातिमा शेख का खानदान उत्तर प्रदेश से पलायल कर महाराष्ट्र के मालेगांव में बस गया था. उसके परिवार के लोग हैंडलूम कपड़ों का कारोबार करते थे. लेकिन महाराष्ट्र में पड़े सूखे और हैंडलूम कपड़ों के कारोबार में आई मंदी के बाद उनका परिवार मालेगांव से पुणे शिफ्ट हो गया था. फातिमा शेख का परिवार एक संभ्रात मुस्लिम परिवार था, लेकिन नौ उमरी में ही उनके वालदेन की मौत हो गई थी. मां-बाप के मौत के बाद फातिमा की परवरिश उनके बड़े भाई उस्मान शेख ने की, जबकि उनके पड़ोसी और पिता के दोस्त मुंशी गफ्फार बेग उन दोनों भाई-बहनों के लिए अभिभावक की भूमिका निभाने लगे थे. 

फुले और फातिमा दोनों खानदान के बीच की कड़ी थे मुंशी गफ्फार बेग.
फातिमा और उस्मान शेख के गार्जियन मुंशी गफ्फार बेग फुले और शेख परिवार के बीच की कड़ी थे. बेग उर्दू और फारसी के उस्ताद थे और ज्योतिबा फुले के पिता गोविंद राव के अच्छे दोस्त थे. दक्षिण भारतीय इतिहासकार धंजय कीर ने यहां तक लिखा है कि ज्योतिबा फुले को महात्मा ज्योतिबा फुले बनाने में गफ्फार बेग का सबसे बड़ा किरदार है. कीर ने लिखा है, ’’ज्योतिबा फुले जब सात साल की उम्र में एक मराठी स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे तब उनके वालिद गोविंद राव के यहां काम करने वाले ब्राहम्ण कर्लक ने उन्हें बेटे की पढ़ाई छुड़ाकर काम पर लगाने के लिए उन्हें राजी कर लिया था. उस ब्राहम्ण कलर्क को ये मंजूर नहीं था कि एक शूद्र का बेटा इल्म हासिल करे. कीर ने लिखा है कि बेग ने ही गोविंदराव को बेटे को स्कॉटिश मिशनरी स्कूल में जदीद तालीम दिलाने के लिए भेजने को बाद में तैयार किया था. बाद में बेग ने फुले को आला तालीम हासिल करने के लिए भी प्रेरित किया. बेग फुले की काबलियत को काफी पहले भांप चुके थे. 

फुले का स्कूल खोलने का मंसूबा और अपने पिता से झगड़ा 
तत्कालीन समाज में मराठी स्कूलों में संस्कृत में पढ़ाई होती थी या फिर ईसाई मिशनरी स्कूलों में. शूद्र, और बहुजन के बच्चों को संस्कृत पढ़ने की मनाही थी और ईसाई स्कूलों में वह जाने से डरते थे. उस वक्त लड़कियों को स्कूल में पढ़ाने का कोई सोचता भी नहीं थी. संभ्रात मुस्लिम परिवारों में लड़कियों की पढ़ाई मौलवियों को घर बुलाकर कराई जाती थी. वह कुरान, अरबी, फारसी और ऊर्दू की तालीम ही ले पाती थीं. ज्योतिबा फुले ने जब शूद्रों के लड़कियों को पढ़ाने और उनके लिए स्कूल खोलने का विचार अपने पिता और इलाके के लोगों से साझा किया तो इलाके के ब्राहम्ण इस बात से बेहद नाराज हो गए. ब्राहम्ण गोविंद राव को लड़के को समझाने की ताकीद या फिर नतीजे भुगतने की धमकी देने लगे. फुले स्कूल खोलने की अपनी जिद पर अड़े रहे, लेकिन उनके पिता सामंती ताकतों के आगे बेबस थे. आखिरकार पिता ने फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई को सिर्फ पहनने का कपड़ा देकर घर से निकाल दिया. 

फुले दंपति को उस्मान शेख के घर में शरण और दो कमरों में खुला स्कूल 
फूले दंपति के अपने बाप के घर से निकलने के बाद मुंशी गफ्फार ने उन दोनों को उस्मान शेख के घर में रहने के लिए जगह दिलाई. हालांकि उस्मान और फुले पड़ोसी होने की वजह से एक दूसरे को अच्छे से जानते थे. उस्मान में फुले को रहने और स्कूल चलाने के लिए अपने घर का कुछ हिस्सा दे दिया और स्कूल में पढ़ाई शुरू हो गई. इस तरह 1848 में पुणे में शूद्र, बहुजन और निर्धन मुस्लिम समुदाय की लड़कियों के लिए भारत के पहले आधिुनिक शिक्षा वाले स्कूल की बुनियाद पड़ चुकी थी. फातिमा शेख अरबी और उर्दू जानती थी, तो वह अपने घर में बने स्कूल की पहली छात्रा भी बन गई और मराठी, इंगलिश और आधुनिक विषय की तालीम ज्योतिबा फुले और उनकी अहलिया सावित्री बाई से लेने लगी. 

फातिमा लड़कियों के स्कूल की पहली मुस्लिम महिला टीचर बनीं 
सोमनाथ देशकर अपनी किताब ’संत, महात्मा, विचारक और इस्लाम’ में लिखते हैं, फातिमा शेख जल्द ही मराठी के साथ ही कई विषय सीख चुकी थी. वह फुले दंपति के साथ इलाके में घूम-घूमकर शूद्रों, बहुजनों और मुस्लिम परिवारों में जाती और उनसे लड़कियों को स्कूल भेजने की आील करती थीं. स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों की तादाद भी बढ़ने लगी थी. ऐसे में दो उस्तादों से काम नहीं चल पा रहा था और इलाके में निःस्वार्थ सेवा भाव से स्कूल में पढ़ाने के लिए कोई गैर ब्राहम्ण महिला शिक्षक भी नहीं मिल रही थी. इन परेशानियों के बीच फातिमा शेख स्कूल की तीसरे शिक्षक के तौर पर स्वेच्छा से लड़कियों को पढ़ाने लगीं. स्कूल में पढ़ाने के पहले ज्योतिबा फुले ने फातिफा शेख और अपनी पत्नी सावित्री बाई दोनों को खुद से टीचर्स ट्रेनिंग दी. ट्रेनिंग देने के पहले ज्योतिबा फुले ने खुद अहमद नगर में मिशनरी टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल जाकर कुछ दिनों तक अध्यापन के कौशल और प्रक्रिया का बारीकी से अवलोकन किया था. 

फातिमा शेख टीचर्स ट्रेनिंग लेने वाली मुल्क की पहली मुस्लिम खातून  
फुले के स्कूल में पढ़ाई का तरीका और सिलेबस इलाके के मिशनरी स्कूलों और ब्राहमणों के गुरुकुलम से बिल्कुल अल्हदा था. स्कूल का दायरा बढ़ने लगा था. लड़कियों के अलावा अब शूद्र, बहुजन और गरीब मुसलमानों के लड़के भी पढ़ाई के लिए स्कूल आने लगे थे. फुले को जब लगा कि सावित्री बाई और फातिमा को मिली टीचर्स ट्रेनिंग के बाद भी अध्यापन का वह कौशल नहीं आया है, जिसकी जरूरत थी, तो उन्होंने दोनों को बाकायदा टीचर्स ट्रेनिंग के लिए अहमदनगर के मैडम सिंथिया फेयरर मिशनरी स्कूल में दाखिला दिलवा दिया. गेल अम्वट जैसे इतिहाकार के लेख संग्रह ’बेस्ट टीचर एंड लीडर’ से भी इस बात की तस्दीक होती है कि फातिमा और सावित्री बाई ने टीचर्स ट्रेनिंग कोर्स में दाखिला लेकर प्रशिक्षण लिया था. 

अवामी खिदमात के कामों में फुले दंपति का फातिमा का तआवुन 
समाज में सवर्ण हिंदू और कट्टर मुस्लिमों की मुखालिफत के बाद फातिमा फुले दंपति के दूसरे सामाजिक कामों मेें भी बराबर का सहयोग करने लगी थीं. 1849 में फुले ने सिर्फ पुणे में ही लड़कियों के लिए पांच स्कूल खोल दिए थे. 1854 में मजदूरों और उनके बच्चों के लिए एक नाईट स्कूल की भी स्थापना की गई थी. इन स्कूलों में भी फातिमा फुले दंपति का सहयोग करने लगी. इसके अलावा 12 जुलाई 1853 को फुले ने ’ बाल हत्या प्रतिबंधक गृह’ नाम से एक आश्रम भी खोला था. इस आश्रम में वैसी महिलाओं को पनाह दी जाती थी जो बाल शादी के बाद विधवा हो जाती थी. समाज में कई बार ऐसी कम उम्र की विधवा महिलाएं हामला भी हो जाती थी, जिनका प्रसव कराने के लिए फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई के साथ फातिमा को नर्सिंग की व्यावहारिक ट्रेनिंग भी दिलावाई थी. फातिमा इस काम में भी सावित्रीबाई की सहर्ष मदद करती थीं.   

बेटी पढ़ाओ का अलख जगाने वाली मुल्क की पहली महिला  
फातिमा शेख ने सावित्री बाई और ज्योतिबा फुले के साथ पूरे इलाके में लड़कियों की तालीम की लौ जगा दी थी. वह शूद्रों, बहुजनों के साथ-साथ इलाके के मुसलमानों के घर भी जातीं और उन्हें लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए रागिब करती थीं. लोगों को आधुनिक शिक्षा और लड़कियों की शिक्षा का महत्व बताकर उन्हें बेटियों को पढ़ाने के लिए तैयार करती थीं. शुरुआत में सवर्ण हिंदुओं के साथ मुस्लिमों ने भी उनके प्रयासों का विरोध किया. खासकर लड़कियों को आधुनिक शिक्षा दिलाने के नाम पर इलाके के मुल्ले और मौलवियों और यहां तक कि खुद फातिमा के पुणे से अहमदनगर जाकर शिक्षण प्रशिक्षण लेने के लिए भारी विरोध का सामना करना पड़ा था. हालांकि फातिमा शेख और उनके भाई ने इसे हमेशा नजरअंदाज किया और अपने रास्ते पर सभी बढ़ते रहे. बाद में चलकर विरोध करने वाले लोग भी लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए राजी होने लगे. 1856 तक ज्योतिबा फुले ने पुणे के अंर 15 और पुणे के बाहर भी 15 स्कूलों की स्थापना कर चुके थे, जहां, शूद्र, बहुजन, गरीब ईसाई और मुसलमानों के लड़के और लड़कियां आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने लगे थे. 

हेड मास्टर के तौर पर फातिमा शेख 
सावित्रीबाई अब फातिमा शेख के साथ मिलकर अपने पति द्वारा स्थापित स्कूलों के प्रबंधन और प्रशासन का काम संभालने लगी थीं. सावित्री बाई एक बार गंभीर रूप से बीमार होने के बाद सतारा जिले के खंडाला तालुका के नईगांव चली गई. इस गांव में उनका मायका था। सावित्री के मायके जाने के बाद स्कूलों के सुपरविजन और प्रशासन का काम फातिमा के जिम्मे आ गया था. इसके अलावा वह एक स्कूल में हेडमास्टर की भूमिका भी निभाने लगी थीं. इस बात का जिक्र सावित्री बाई द्वारा 10 अक्टूबर 1856 को अपने पति को लिखे पत्र में भी मिलता है. इस पत्र में उन्होंने फातिमा के काम की काफी तारीफ भी की है. पत्र में उन्होंने फातिमा के काम-काज के तरीके, उनके व्यवहार और क्षमताओं का विस्तार से उल्लेख किया है.  

1856 के बाद फातिमा कहां गायब हो गईं
ज्योतिबा फुले दंपति के इतिहास से फातिमा 1856 के बाद से कहीं नहीं मिलती हैं. वह सावित्रीबाई की हमउम्र थीं. पुणे के इतिहासकार डॉ. शमशुद्दीन तांबोली ने एक रिसर्च पेपर ’मुस्लिम सत्याशोधक’ में लिखा है कि बाद के दिनों में फातिमा की किसी दूर के इलाके में शादी हो गई और वह अपने पति के साथ रहने लगी. रिसर्च पेपर में दावा किया गया है कि उनकी शादी भी ज्योतिबा फुले दंपति ने कराई थी और विवाह बिल्कुल आदर्श तरीके से हुई थी जिसमें दहेज का कोई स्थान नहीं था. 

फातिमा शेख के जन्म और मृत्यु की तारीख पर संशय
पूणे सहित महाराष्ट्र में मिले ज्ञात साक्ष्यों और प्रमाणों से फातिमा शेख के जन्म और मृत्यु को लेकर सटीक जानकारी नहीं मिलती है. माना जाता है कि उनका जन्म 21 सितंबर 1832 और मृत्यु 9 जनवरी 1900 को हुई थी. कुछ लोग ये भी मानते हैं कि वह 9 जनवरी 1831 को पैदा हुईं थी. हालांकि सालों से महाराष्ट्र सहित पूरे दक्षिण भारत में स्वैच्छिक संगठनों, शैक्षणिक संस्थानों, सामाजिक संगठनों, दलित-बहुजन संगठनों और राजनीतिक दलों द्वारा 9 जनवरी 1831 को ही उनका जन्म दिन मनाया जाता है. हालांकि फातिमा के योगदान को लोक विमर्श में लाने वाले पुणे यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और 50 से अधिक किताबों के लेखक हरि नरके 9 जनवरी को फातिमा का जन्मदिन मनाने से सहमत नहीं हैं, क्योंकि इस तारीख का अभी तस्दीक किया जाना बाकी है. 

इतिहास के पन्नों में फातिमा क्यों नहीं ?
महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के स्त्री शिक्षा आंदोलन के लगभग 150 सालों बाद उनके काम के बारे में लिखा गया, लेकिन फातिमा शेख आधुनिक इतिहास लेखन से भी गायब हैं. उनके बारे में बहुत जानकारी मौजूद नहीं है. इस विषय पर फातिमा शेख सहित भूले-बिसरे मुस्लिम नायकों पर अब तक 21 किताब लिखने वाले आंध्र प्रदेश के गंुटूर जिले के इतिहासकार और लेखक सैयद नसीर अहमद कहते हैं, ’’शूद्र और बहुजन समाज के इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों और लेखकों ने लगभग 150 साल बाद अपने नायकों की फिक्र की और उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटाकर उसे लोक विमर्श में शामिल किया लेकिन फातिमा शेख के समुदाय के लोगों ने ऐसा नहीं किया. नसीर कहते हैं, इसके लिए इतिहासकारों पर दोषरोपण करने के बजाए मुसलमानों को आत्मचिंतन करना चाहिए।’’ वह कहते हैं, ’’  मुसलमान अपने नायकों की कद्र नहीं करते हैं.'  

ज्ञात दस्तावेजों में फातिमा का उल्लेख नहीं 
फातिमा शेख के बारे में अबतक जो भी जानकारी हासिल हुई है वह ओरल कम्यूनिकेशन के आधार पर हुई है. लिखित में साबित्रीबाई के 10 अक्टूबर 1856 के पत्र के अलावा फातिमा शेख का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है. फातिमा के अलावा उसके भाई, उस्मान शेख और पड़ोसी मंुशी गफ्फार बेग का भी किसी दस्तावेज में जिक्र नहीं है. ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई के स्कूलों, उनके लिखे लेखों, किसी रचना या किसी अन्य दस्तावेजों में भी फातिमा शेख का कोई नाम नहीं है. खुद फातिमा शेख का लिखा हुआ कोई गद्य, पद्य, लेख, पुस्तक और यहां तक कि किसी पत्र का भी मौजूद न होना इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों और रिसर्चरों को हैरत में डाल देता है. लोग सवाल उठाते रहे हैं कि फातिमा दलित-बहुजन स्त्रियों के इतने बड़े शिक्षा आंदोलन से जुड़ी रहीं और ढेर सारे सामाजिक कामों को अंजाम दिया, इसके बावजूद उनका कुछ लिखा हुआ क्यों नहीं मिलता है ? कम से कम उन्होंने अपने किसी रिश्तेदार को चिट्ठी भी तो लिखी होगी तो वह क्यों नहीं है ? महाराष्ट्र सरकार ने पहली बार वर्ष 2013 में उर्दू के कक्षा दो की किताब बाल भारती में फातिमा शेख को शामिल किया है. महाराष्ट्र सरकार ने अब इतिहासकारों और रिसर्चरों से इस दिशा में काम करने के लिए कहा है.  

क्या दलित-बहुजन समाज को फातिम शेख से कोई दिक्कत है ? 
बिहार के सीमांचल में किशनगंज जिले के सामाजिक कार्यकर्ता साकिब अहमद जिले में तीन अलग-अगल स्थानों पर ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख नाम से पब्लिक लाइब्रेरी चलाते हैं. साकिब कहते हैं, ’’9 जनवरी को जब मैंने फातिमा शेख का जन्मदिन मानाया और उस कार्यक्रम की तस्वीर सोशल मीडिया पर पोस्ट की तो महाराष्ट्र सहित देश के कई हिस्सों से दलित-बहुजन संगठनों से जुड़े लोगों ने इस बात पर आपत्ति जताई और उन्होंने फातिमा शेख को पहली मुस्लिम महिला टीचर मानने और 9 जनवरी को उनका जन्मदिन होने का प्रमाण मांगा.

साकिब अहमद के अनुभव पर मुस्लिम मामलों के जानकार और जामिया मिलिया इस्लामिया में रिसर्चर उमर अशरफ कहते हैं, ’’चूंकि दलित-बहुजनों मे नायकों और रोल मॉडलों की कमी है, इसलिए उन्हें ये डर सताता रहता है कि फातिमा शेख का जिक्र होने या पब्लिक डिस्कोर्स में उन्हें शामिल होने से समाज में फुले दंपति का क्रेडिड बंट सकता है.'  हालांकि नसीर अहमद उमर अशरफ के तर्क से इत्तेफाक नहीं रखते हैं. नसीर कहते हैं, ’’फातिमा शेख के बारे में जो जानकारी उन्हें अबतक हासिल हुई है वह दलित-बहुजन साहित्य से ही मिली है. वह कहते हैं, ’’महाराष्ट्र और पूरे दक्षिण भारत में फातिमा शेख को अगर लोग जानते हैं तो इसका क्रेडिट भी दलित-बहुजन इतिहासकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों को जाता है.' 

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