नई दिल्ली: तारीख़ बताती है कि सूफी संतों के मठों और मुस्लिम बादशाहों के शाही दरबारों में जमकर होली मनाई जाती थी. सूफी संतों में ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया ने सब से पहले इसकी शुरुआत अपनी ख़ानक़ाह (मठ) में की, जबकि बादशाहों में अकबर के दरबार में होली मनाने का जिक्र इतिहास के पन्नों में जली हर्फों में दर्ज है. उस वक्त इस होली को ईद-ए-गुलाबी और रंगों के त्योहार के नाम से जाना जाता था.


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बहुत सारे मुस्लिम शायरों ने अपनी शायरी और इतिहासकारों ने अपनी किताब में लिखा है कि दिल्ली सल्तनत या मुगलकाल के दौरान सबसे पहले सूफी संतों ने होलो खेलने की शुरुआता की और वे अपनी ख़ानक़ाहों में बाज़ाब्ता होली का एहतमाम करते थे.


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सूफी ख़ानक़ाहों में होली मनाने की शुरुआत
तारीख के मुताबिक, मशहूर सूफी संत निजामुद्दीन औलिया अपनी ख़ानक़ाह में होली का बड़ा एहतमाम करते थे, इस मौके पर रंग बिखेरे जाते थे, कव्वालियां होती थीं, हिंन्दू-मुस्लिम का जमावड़ा होता था, मिठाइयां और ठंडाई बांटी जाती थीं. इसके बाद से होली जिसे उस वक्त रंगों के त्योहार के नाम से जाना जाता था, सुफी संतों का पसंदीदा त्योहार बन गया. आज भी रंगों का ये त्योहार सूफी कल्चर का हिस्सा है, जिसकी झलक सूफियों के दरगाहों में आम तौर पर देखी जा सकती है.


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बादशाह अकबर होली खेलने के काफी शौकीन थे
आइन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने लिखा है कि बादशाह अकबर होली खेलने के काफी शौकीन थे. होली के लिए बादशाह सलामत साल भर से तरह तरह की चीज़ें जमा करते थे. होली के दिन बादशाह अपने महल से बाहर निकलते और अपनी रियाया से साथ होली खेलते थे.


होली के दिन बादशाह जहांगीर संगीत सभा सजाते थे
तुज़्क-ए-जहांगीरी से पता चलता है कि होली के दिन बादशाह जहांगीर गीत-संगीत की महफिलों का आयोजन करते थे, इन महफिलों में हर आम-व-खास को आने की इजाज़त थी. जहांगीर के बारे में ये कहा जाता है कि वह अपनी रियाया के साथ बाहर आकर होली नहीं खिलते थे, बल्कि महल और दरबार में ही सारे आयजनों को देखते थे. मुग़लकाल में होली को ईद-ए-गुलाबी और आब-ए-पाशी का नाम दिया गया था.


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प्रजा के साथ होली खेलते थे शाहजहां
बादशाह शाहजहां के दौर में होली वहां मनाई जाती थी, जहां आज राजघाट है. शाहजहां अपनी प्रजा के साथ होही खेलते थे.


बहादूर शा ज़फ़र ने बना दिया शाही उत्सव
मुगलिया सल्तनत के आखिरी ताजदार बहादूर शा ज़फ़र ने तो होली को लाल किले का शाही उत्सव बना दिया था. बहादूर शा ज़फ़र ने होली के लिए उर्दू में कई गीत लिखे. बहादूर शा ज़फ़र ने होली को होरी का नाम दिया. होली पर बहादूर शा ज़फ़र का लिखा एक गीत आज भी होली के मौके पर खूब गाया जाता है. ये है वह गीत- क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी, देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी.


होली हर मज़हब का त्योहार
मुगलिया सल्तनत के इस आखिरी ताजदार बहादूर शा ज़फ़र का ये भी मानना था कि होली हर मज़हब का त्योहार है. उर्दू अखबार जाम-ए-जहांनुमा (Jam-e-Jahanuma) ने साल 1844 में लिखा था कि  होली के मौके पर  बहादूर शा ज़फ़र खूब इंतजाम करते थे. टेसू के फूलों से रंग बनाया जाता और राजा, बेगम और प्रजा सब फूलों के रंग से होली खेलते थे.


लखनऊ की रंगीन होली
लखनऊ शहर की होली भी दिल्ली की तरह रंगीन थी. वहां के सुल्तान नवाब सआदत अली खान और आसिफुद्दौला के बारे में कहा जाता है कि वे होली की तैयारी के लिए लाखों के रुपए लगा देते थे. 


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होली के लिए खास रंग और इत्र का इंतज़ाम
मुगल बादशाहों के दौर में होली के लिए खास रंग और इत्र का इंतज़ाम किया जाता था. टेसू के फूल को इकट्ठा किया जाता और उन्हें उबाल कर ठेडा करके पिचकारियों में फरा जाता, फिर उनसे होली खेली जाती. मुगल दरबार में होली के दिन सुबह से ही होली का जश्न शुरू हो जाता था.


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