लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जारजी तारापुर को फिल्लौर की लड़ाई में अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए 1965 में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.
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नई दिल्ली: याद करो कुर्बानी की 7वीं कड़ी में 1965 के भारत-पाक युद्ध में देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाले लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर की वीर गाथा बताने जा रहे हैं. लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर का जन्म 18 अगस्त 1923 को महाराष्ट्र के मुंबई शहर में हुआ था. उन्होंने सैन्य जीवन की शुरुआत 1942 में हैदराबाद सेना की 7वीं इंफैंट्री से की थी. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पश्चिम एशिया में उन्होंने वीरता और युद्ध कौशल का अद्भुत प्रदर्शन किया. जिसके बाद अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर की गिनती हैदराबाद सेना के चुनिंदा सैन्य अधिकारियों में होने लगी. हैदराबाद का भारत में विलय होने के बाद अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर को भारतीय सेना की पूना हॉर्स में स्थानान्तरित कर दिया गया.
1965 के भारत-पाक युद्ध से पहले अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर की पदोन्नति बतौर लेफ्टिनेंट कर्नल के तौर पर हो चुकी थी. अगस्त 1965 में भारत पाक के बीच युद्ध का आगाज हो चुका था. इस युद्ध में जीत हासिल करने के इरादे से दुश्मन सेना ने 2लाख 60 हजार की इंफैंट्री, 280 विमान और 756 टैंक जंग के मैदान में उतार दिए थे. वहीं, दुश्मन सेना को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारतीय सेना ने अपनी 7 लाख जवानों की इंफैंट्री, 700 विमान और 720 टैंक उतारे थे. दुश्मन सेना के साथ भारतीय सेना का सियालकोट सेक्टर में घमासान जारी थी. लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर को इस युद्ध में कमांडिंग आफिसर बनाकर भारतीय फौज की अगुवाई करने के लिए भेजा गया था.
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फिल्लौरा पर कब्जा था भारतीय सेना का लक्ष्य
रणनीति के तहत, भारतीय सेना का अपना अगला लक्ष्य कलोई-फिल्लौरा एक्सिस था. 11 सितंबर 1965 को लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर की अगुवाई में 17 हार्स को फिल्लौरा में कब्जा करने की जिम्मेदारी सौंपी गई. लक्ष्य हासिल करने का मजबूत इरादा लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर ने अपने टैंकों के साथ फिल्लौरा की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया था. जल्द ही सियालकोट सेक्टर का फिल्लौरा इस युद्ध की सबसे बड़ी टैंकों की लड़ाई का साक्षी बनने वाला था. रणनीति के तहत, लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर ने दुश्मनों के लिए ऐसा चक्रव्यूह तैयार किया, जिससे दुश्मनों का बचकर निकलना संभव नहीं था.
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लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर के युद्ध कौशल मने टिक नहीं पाई दुश्मन सेना
अपने मजबूत इरादे लेकर भारतीय सेना की रेजीमेंट रिलिमो से चविंडा की तरफ बढ़ रही थी. तभी पहले से घात लगा कर बैठे दुश्मन ने भारतीय सेना पर हमला बोल दिया. हालांकि लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर के युद्ध कौशल और साहस के सामने दुश्मन सेना ज्यादा देर तक टिक नहीं पाई. उन्होंने, दुश्मन सेना के इस हमले को पूरी तरह से विफल कर दिया था. वाजिराली में दुश्मन सेना को पटखनी देने के बाद लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर ने इंफैंट्री बटालियन के साथ फिल्लौरा की तरफ आगे बढ़ गए. लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर को रोकने के लिए दुश्मन सेना लगातार उनकी बलाटियन पर टैंकों से गोले बरसा रही थी.
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घायल लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोर ने जब रण छोड़ने से किया इंकार
इस गोलाबारी में लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर घायल जरूर हुए लेकिन दुश्मन सेना उनके हौसले को तोड़ने में नाकामयाब रही. दुश्मन सेना की गोलाबारी में घायल होने के चलते लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर को इलाज के लिए वापस आने के लिए कहा गया, लेकिन उन्होंने रण छोड़कर वापस आने से इंकार कर दिया. अपने जख्मों की परवाह किए बगैर लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर 14 सितंबर 1965 को अपनी रेजीमेंट के साथ वाजिराली पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़ चुके थे. दुश्मन सेना की तमाम मजबूत कोशिशों के बावजूद वे 16 सितंबर 1965 को जसोरन और बटूर-डोग्रांडी पर कब्जा करने में कामयाब रहे.
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भारतीय सेना ने दुश्मन सेना के 60 टैंकों को किया नेस्तनाबूद
इस युद्ध के दौरान लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर के टैंक पर दुश्मनों ने कई बार हमला किया, लेकिन अपने युद्ध कौशल के चलते वह दुश्मन के हर हमले को नाकाम करते गए. युद्ध के दौरान, अब उनका लक्ष्य अपनी पैदल सेना के लिए रास्ता बनाना था. वह अपने टैंक से गोले बरसा लगातार दुश्मन सेना और उनके टैंकों को नेस्तनाबूद करने जा रहे थे. इस युद्ध में भारतीय सेना ने दुश्मन सेना के 60 टैंकों को ध्वस्त कर दिया. इसी युद्ध के दौरान, अचालक टैंक में आग लगने के चलते लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोरजी तारापोर वीरगति को प्राप्त हो गए.
लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जारजी तारापुर को फिल्लौर की लड़ाई में अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए 1965 में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.