करवा चौथ... ये आखिर कैसी बेड़ियां ?
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करवा चौथ... ये आखिर कैसी बेड़ियां ?

फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ में समाज से छिप कर चल रहे प्यार की गहराई को दिखाने के लिए प्रेमी दिनभर भूखा रहता है और फिर रात में दुनिया से छिप कर प्रेमिका के साथ मिल कर व्रत खोलता है.

करवा चौथ... ये आखिर कैसी बेड़ियां ?

‘बागबां’ फिल्म के एक सीन में पत्नी अपने पति के लिए करवा चौथ का व्रत रखती है. बच्चों की वजह से अलग-अलग रहने को मजबूर बूढ़े पति-पत्नी के बीच गहरा प्रेम है. पत्नी व्रत रखती है तो पति भी भूखा रहता है. फिर जब व्रत खोलने की बारी आती है तो पत्नी फोन पर पति के पैर छूने और फिर उसे खिला कर खाने की प्रक्रिया करती है. चूंकि पति के पास खाना मौजूद नहीं है तो वो नाटक करता है कि उसके सामने बढ़िया खाना है और वो उसे खा रहा है. पत्नी उसके नाटक को समझ जाती है और फिर वो भी अपने सामने से खाना हटा देती है.
 
आज से लगभग 23 साल पहले आई फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे’ में भी एक जगह प्रेमिका का अपने प्रेमी के लिए करवा चौथ का व्रत रखना और फिर उसके ही हाथों खाना खाने के रिवाज को दिखलाया गया है. समाज से छिप कर चल रहे इस प्यार की गहराई को दिखाने के लिए यहां भी प्रेमी दिनभर भूखा रहता है और फिर रात में दुनिया से छिप कर वो मिल कर व्रत को खोलते हैं. इन दोनों ही फिल्मों ने पति की लंबी उम्र के लिए रखे जाने वाले व्रत के मायने को थोड़ा सा बदलने की कोशिश की और उसमें पति को भी सम्मिलित कर लिया.

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पति और बच्चों की लंबी उम्र के लिए व्रत रखना कोई आज की बात नहीं है. पितृसत्तात्मक समाज में इसकी शुरूआत कब हुई इसके बारे में ठीक-ठीक कहना तो मुश्किल है लेकिन महिलाओं के व्रत रखने के पीछे उसके हमेशा आश्रय में रहने की स्थति को बयां ज़रूर किया गया है. वशिष्ठ धर्मसूत्र में लिखा है, ‘पिता रक्षति कौमारे, भ्राता रक्षति यौवने, रक्षति स्थविरे पुत्रा, न स्त्री स्वातंत्रमहर्ति’ इसका अर्थ है कुमारी अवस्था में नारी की रक्षा पिता करेंगे, यौवन में पति और बुढ़ापे में पुत्र, नारी स्वतंत्रता के योग्य नहीं है (एतरेय ब्राह्मण, 35/5/2/47). पिता, पति, बेटा आश्रय के रूप बदलते हैं लेकिन औरत को शुरू से बताया गया है कि उसे किसी के सहारे ही अपना जीवन गुज़ारना है. और अपने सहारे को दुरुस्त रखने की ज़िम्मेदारी भी उसी की है तो इस तरह से उसने ईश्वर से उनकी लंबी उम्र की कामना की है. यहां गौर करने वाली बात ये है कि पितृसत्तात्मक सोच ने यहां भी औरत को ये समझाया है कि वो भले ही व्रत पति या बेटे की लंबी उम्र के लिए रख रही हैं लेकिन दरअसल इसमें स्वार्थ उनका ही है क्योंकि वो खुद बेसहारा नहीं होना चाहती हैं. 

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यहां दो घटनाओं का उल्लेख करना चाहता हूं. पहली बचपन की है. शायद पांचवी कक्षा में पढ़ रहा था. हमारे मोहल्ले में एक अंकल रहते थे जिनके लिए दीपावली से भी बड़ा त्यौहार हरतालिका तीज हुआ करता था. उस दिन उनकी खुशी देखते ही बनती थी. वो सुबह से तीज की तैयारियों में जुटे रहा करते थे. हो सकता है अगर में आपको उनकी पत्नी का नाम बताऊं तो आप इसे एक कहानी मान लें, लेकिन विश्वास कीजिए ये सत्यघटना है. उनकी पत्नी का नाम सावित्री था. 

सावित्री आंटी का व्रत और अंकल का उत्साह पूरे मोहल्ले की चर्चा का केंद्र् हुआ करता था. अंकल जी ने अपने पूरे दांतों को बीड़ी को समर्पित कर दिया था. तो उनकी मसूड़ा दिखाऊ हंसी तीज के दिन खत्म ही नहीं हुआ करती थी. मेरे लिए वो दिन यादगार इसलिए रह गया क्योंकि मैं छोटा था और फुर्सत में रहने पर रात में तीज की कहानी पढ़ने के लिए मुझे ही बुलाया जाता था. जिसके एवज में मुझे मोहल्ले की सभी महिलाओं से कुछ कुछ दक्षिणा मिलती थी. मुझे इस दक्षिणा का इंतज़ार रहता था और अंकल को सावित्री आंटी के व्रत रखने का. तो कुल मिलाकर हम दोनों के लिए ही यह एक जैसी खुशी का दिन था.

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ये वाकया याद रहने के पीछे की एक और वजह तीज की वो कथा भी है जिसमें हर दूसरी पंक्ति में ये लिखा हुआ रहता था कि अगर कहीं गलती से व्रत रखने वाली महिला ने फलानी गलती कर दी तो उसका क्या होगा. मसलन उसने दूध पी लिया तो वो नागिन बन जाएगी, पानी पीती है तो अगले जन्म में जोंक बन जाएगी, मिठाई खाई तो चींटी, दही से बिल्ली, फल खाया तो बंदरिया और कहीं गलती से सो गई तो अजगर बनना निश्चित है. मुझे ये वाला हिस्सा हमेशा रोमांचित करता था. क्यों करता था ये तो पता नहीं. खैर सावित्री आंटी व्रत रखती रहीं और अंकल की कैंसर से मौत हो गई.

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दूसरी घटना दिल्ली में हुई. जब मोहल्ले की एक दीदी जिनके पतिदेव अक्सर बाहर रहा करते थे और सप्ताहंत में ही उनके पास आया करते थे, उनको लीवर सिरोसिस हो गया और करवाचौथ के व्रत के दिन ही उनका स्वर्गवास हो गया. अब वो दीदी ठीक से भगवान के सामने हाथ भी नहीं जोड़ती हैं. इन दोनों घटनाओं में एक बात कॉमन थी. महिला का सम्मान जो दोनों में ही नदारद था.
 
80 के दशक में आई फिल्म ‘मांग भरो सजना’ जिसमें शायद पहली बार करवाचौथ के व्रत को बड़ी ही विस्तार से दिखाया गया है. इस फिल्म में दो पत्नियां एक पति के लिए व्रत रखती हैं. फिल्म में दोनों ही इस बात से अंजान हैं कि उनका पति एक ही इंसान है. लेकिन 1999 में आई फिल्म ‘बीवी नंबर वन’ में तो दोनों महिलाएं इस बात को जानती हैं कि उनके पति की एक और पत्नी है. इसी बात को लेकर पहली पत्नी नाराज़ भी होती है. लेकिन व्रत का न रखने या ‘मैं तुम्हारे लिए व्रत नहीं रखूंगी’ जैसा कोई ख्याल भी उनके दिमाग में घर नहीं करता. आगे चलकर टीवी सीरियल्स ने तो पति की लंबी उम्र के लिए रखे जाने वाले व्रतों को अपने अंतहीन एपीसोड्स में समय-समय पर डालना शुरू कर दिया. अहम बात यह है कि यहां इतनी शोध और विस्तार के साथ इन व्रतों के बारे में दिखलाया जाता है कि एक व्रत को पूरा होते-होते हफ्ता तो कभी-कभी 15 दिन बीत जाते हैं.
 
हिंदी सिनेमा खासकर करण जौहर नुमा ‘लार्जर-देन-लाइफ’ फिल्में और कभी न खत्म होने वाले टीवी सीरियल्स ने इन व्रतों को इस कदर ग्लैमराईज कर दिया है कि धीरे-धीरे ये रखना एक फैशन सा भी बनता जा रहा है. व्रतों का एक बड़ा बाज़ार है जिसने इसे इस कदर प्रस्तुत किया है कि ये व्रत न होकर औरत का एक गहना है जिसे पहने बगैर उसका श्रृंगार अधूरा रह जाएगा.

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आजकल महिलावादी और वर्चुअल जगत के क्रांतिकारियों से एक बात और सुनने को मिलने लगी है कि पति के लिए व्रत, निर्जला व्रत और तमाम प्रकार के कठिन व्रत रखना पूरी तरह से महिलाओं की इच्छाओं पर छोड़ दिया जाना चाहिए. हमें उन्हें इस बात की स्वतंत्रता देनी चाहिए की वो व्रत रखना चाहती है या नहीं. हम शुरू से ही चालाक रहे हैं. हमने बड़ी ही चालाकी से  काम किया है. एक तरफ तो हमने श्रृंगार और खूबसूरत दिखने जैसी बातों को औरत के साथ जोड़ा, फिर उसमें बाज़ार ने अपना तड़का लगाया. फिर हमने उसकी स्वतंत्रता को शामिल कर दिया. जबकि बात स्वतंत्रता की नहीं है बात उस बेड़ी को तोड़ने की है जिसे बांधकर औरत जीने की इस कदर आदि हो गई है कि अगर उसे खोल भी दो तो वो उसकी जकड़न से खुद को मुक्त नहीं कर पाती है. ये कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा अगर कोई बिल्ली रास्ता काट जाती है तो हम कुछ देर रुक जाएं तो उसमें बुराई क्या है? दरअसल बुराई वक्त जाया करने की नहीं है बुराई रुक जाने की है, ये रुकना हमें रोक देता है. ये वो ठहराव है जो अच्छे खासे साफ सुथरे पानी में भी काई पैदा कर सकता है.
 
हमारे समाज में ‘पत्नी-सेवा’ को पुण्यव्रत के रूप में मानने का रिवाज़ नहीं है, शायद इसलिए ‘पत्नीव्रता’ जैसा कोई शब्द शब्दकोश में नहीं है. वहीं हमने अर्धनारीश्वर और अर्धांगिनी जैसे शब्दों को सिर्फ ईजाद किया है. हम उसे मान नहीं पाए. वैसे भी व्रत रखने से अगर किसी की उम्र लंबी हो रही होती तो डॉक्टर इलाज में सुबह, दोपहर, शाम तीन वक्त का व्रत रखने की सलाह दे रहे होते. व्रत करना अच्छा है लेकिन खुद के शरीर के लिए, दूसरे के लिए नहीं, उसे अपना व्रत खुद रखने दो.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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