आंगनवाड़ी कार्यकर्ता उपनिवेश नहीं हैं!
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आंगनवाड़ी कार्यकर्ता उपनिवेश नहीं हैं!

सरकार द्वारा सिर्फ अपनी विशेष भाषा से ही 28 लाख आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं-सहायिकाओं के सम्मान-श्रम और भूमिका को दोयम दर्जे का साबित किया जा रहा है

आंगनवाड़ी कार्यकर्ता उपनिवेश नहीं हैं!

आप सब जानते ही होंगे कि भारत में वर्ष 1975 से एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम चल रहा है. इसका मकसद है देश में कुपोषण, बाल मृत्यु, मातृत्व मृत्यु में कमी लाना और बच्चों-महिलाओं के विकास के लिए माकूल माहौल बनाना. इसने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई भी है. यह कार्यक्रम मुख्य रूप से हर बसाहट में आंगनवाड़ी केंद्र के जरिये संचालित होता है, जिसमें आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और आंगनवाड़ी सहायिका केंद्रीय भूमिका निभाती है. भारत में बहुसंख्यक लोगों, खासतौर पर मुख्य धारा के बुद्धिजीवियों और अधिकतर सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी पोषण और आईसीडीएस नीरस, बेमतलब और उबाऊ विषय और कार्यक्रम लगते हैं. यही कारण है कि जब 90 के दशक में देश में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-1 के मुताबिक 53.4 प्रतिशत बच्चे कम वजन के और 52 प्रतिशत बच्चे सतत पोषण असुरक्षा के असर के चलते ठिगनेपन के शिकार थे, तब भी हमारी सामाजिक और आर्थिक नीतियों में कुपोषण-बाल मृत्यु विकास के परिभाषा में केंद्रीय विषय के रूप में शामिल नहीं हो पाये. वर्ष 2015-16 में जारी हुई राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 की रिपोर्ट के अनुसार 35.7 प्रतिशत बच्चे कम वजन और 38.4 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन के कुपोषण की श्रेणी में थे. जिन 27 सालों में भारत ने खूब आर्थिक विकास किया, उन सालों में कम वजन के बच्चों में 0.7 प्रतिशत की दर से ही कमी आई है. ठिगनेपन में कमी की दर लगभग 0.5 प्रतिशत रही है.

अब तक कुपोषण पर बनी समझ और अध्ययनों से यह तो साबित हो ही चुका है कि कुपोषण का कोई एक कारण नहीं है. इसके कारणों में घर में भोजन का अभाव और स्वास्थ्य सेवाएं न मिलना भी शामिल है, लैंगिक भेदभाव, पीने के साफ पानी की अनुपलब्धता, सामाजिक बहिष्कार, खेती और प्राकृतिक संसाधनों का असमान बंटवारा भी इसके कारण होते हैं. इस व्यापक परिदृश्य में एक तरफ तो सरकारी ढांचे में विभिन्न विभागों-मंत्रालयों के बीच साझा समझा और तालमेल का अभाव है, वहीं दूसरी तरफ आईसीडीएस सरीखा बेहद महत्वपूर्ण कार्यक्रम (जो अब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून का हिस्सा भी है) कई स्तरों पर उपेक्षा का शिकार भी होता है. इससे जुड़े एक खास पहलू को हम सब मिलकर नजरअंदाज करते हैं. वह पहलू है आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिका के साथ व्यवस्थागत भेदभाव का. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक कोऑपरेशन एंड चाइल्ड डेवलपमेंट (निपसिड) की प्रशिक्षण मार्गदर्शिका के मुताबिक यह कार्यकर्ता 24 तरह की जिम्मेदारियां निभाती है. इंटरनेशनल जर्नल ऑफ रिसर्च इन कॉमर्स, आईटी एंड मैनेजमेंट (वाल्यूम 5, सितम्बर 2015) में प्रकाशित पर्चे के मुताबिक आधी आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने कहा कि उन्हें स्वास्थ्य जांच, टीकाकरण सरीखे कामों में समुदाय का सहयोग नहीं मिलता है. यानी समाज भी उनके साथ नहीं है. इस शोध पर्चे में निष्कर्ष है कि उनकी बात को न तो समाज महसूस कर पा रहा है, न ही सरकारी प्रशासन. मैंने बहुत विचार करके शीर्षक में 'उपनिवेश' शब्द का उपयोग किया है, इसलिए क्योंकि श्रम, सम्मान और भूमिका, तीनों ही मानकों पर आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका का अस्तित्व 'स्वतंत्र' नहीं दिखता.  

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वर्ष 2017 की स्थिति में 5 वर्ष की उम्र के बच्चों की जनसंख्या लगभग 12.30 करोड़ है, इनमें से 4.30 लाख कम वजन और 4.72 लाख बच्चे ठिगनेपन की श्रेणी में हैं. अब मुहावरे के तौर पर कहा तो जाने लगा है कि कुपोषण को मिटाना है, यह हमारे लिए बड़ी चुनौती है, किंतु नीतियों और संसाधनों के आवंटन के देखकर लगता नहीं है कि ये मुहावरा दिल से निकल रहा है और मंशा कुपोषण के मिटाने की है. आईसीडीएस के तहत इस चुनौती से निपटने की बड़ी जिम्मेदारी आंगनवाड़ी का संचालन करने वाली आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका पर डाली गयी है. मौजूदा स्थिति में भारत में लगभग 14 लाख आंगनवाड़ी केंद्र हैं, जिनमें 28 लाख कार्यकर्ता और सहायिकाएं हैं. ये हर रोज 7.73 करोड़ बच्चों और 1.77 करोड़ गर्भवती-धात्री महिलाओं को साल में 300 दिन 6 सेवाएं देने का काम करती हैं. इन छह सेवाओं में पोषणाहार, स्वास्थ्य-पोषण शिक्षा, संदर्भ सेवाएं, टीकाकरण, वृद्धि निगरानी और स्कूल पूर्व शिक्षा के काम शामिल हैं.

वर्ष 2006 में भारत सरकार के संस्थान निपसिड ने आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के लिए 229 पन्नों की हस्तपुस्तिका छापी. इसमें आईसीडीएस में उनकी भूमिका के बारे में विस्तार से लिखा गया. यह पुस्तिका कहती है कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को मुख्तलिफ़ और विविध किस्म की भूमिकाएं निभाना होती हैं, इसलिए उनमें प्रबंधकीय, शैक्षणिक, संचार और परामर्श संबंधी कौशल भी होना चाहिए. फिर भी वह 'कम महत्वपूर्ण मानसेवी है और सरकारी व्यवस्था में उसका कोई वजूद नहीं है'. जब प्रशिक्षण होता है तब उन्हें बताया जाता है कि कार्यकर्ता के रूप में उन्हें नियमित रूप से घर-घर जाकर सर्वेक्षण करना है, हर माह 5 साल से कम उम्र के बच्चों का वजन लेकर उनकी वृद्धि-विकास की निगरानी करना है, महिलाओं को सजग करना है ताकि जन्म के एक घंटे के भीतर नवजात शिशु को मां का दूध मिले और छह माह तक उसे स्तनपान के अलावा कुछ अन्य सामग्री न दी जाए. बच्चों और गर्भवती-धात्री महिलाओं को नियमित रूप से पोषण आहार देना है और सबला/किशोरी शक्ति योजना का क्रियान्वयन भी करना है. यदि कोई बच्चा अति गंभीर कुपोषित है, तो उसके प्रबंधन/उपचार की व्यवस्था भी सुनिश्चित करना है. इसके साथ उन पर 3 साल से 6 साल तक के बच्चों को स्कूल-पूर्व शिक्षा देने की 'जिम्मेदारी' भी है. अपने काम के साथ वे 12 से 15 रजिस्टर में सूचनाएं भरने का काम भी करती हैं. इसके बाद भी वे केवल महिला और बाल विकास विभाग के काम के लिए ही 'जवाबदेह' नहीं हैं, वे चुनाव का काम भी करती हैं, स्वच्छता अभियान का भी और राज्यों की सरकारों/सत्तारूढ़ दलों की रैलियों में उन्हें 'जबरिया' भेजा जाता है. आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हर महीने 5 से 10 बैठकों में जाने के लिए बाध्य होती है.

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जिस तरह की जिम्मेदारियां और काम आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को सौंपे गए हैं, उन्हें पूरा करने के लिए पूर्ण कौशल की आवश्यकता होती है, पर उन्हें कुशलता के काम का दर्ज नहीं मिला. लगातार 43 सालों से उन्हें 'मानदेय पाने वाली कार्यकर्ता' की पहचान दी गई है. उन्हें 'श्रम कानून और अधिकारों' से वंचित रखने के लिए बहुत ही रणनीतिगत तरीके से नीतियों में लिखा जाता है कि वे दिन में सात घंटे काम करेंगी, क्योंकि सरकारी दस्तावेज में आठ घंटे दर्ज होते ही उनके हक पुख्ता हो जाते हैं. वास्तविकता यह है कि उन्हें अपना काम पूरा करने में औसतन 9 घंटे लगते हैं. सरकार द्वारा सिर्फ अपनी विशेष भाषा से ही 28 लाख आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं-सहायिकाओं के सम्मान-श्रम और भूमिका को दोयम दर्जे का साबित किया जा रहा है, जबकि मैदानी स्तर पर कुपोषण, मातृत्व मृत्यु और बाल विकास की नींव को ठोस आधार देने का दारोमदार उन पर ही है. इसके उलट महिला और बाल विकास में व्याप्त अव्यवस्था, आर्थिक संसाधनों के अभाव, भ्रष्टाचार और क्षमता विकास के कमतर प्रयासों के कारण घटने वाली घटनाओं के लिए केवल आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को ही जिम्मेदारी ठहरा दिया जाता है, उन पर कार्यवाही करना आसान होता है, क्योंकि वे शासन व्यवस्था का स्थाई अंग नहीं मानी जाती हैं. 

इस आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के जीवन में रोजगार सुरक्षा और उसके लिए कल्याणकारी योजनाएं लागू करने से संबंधित एक प्रश्न के जवाब में महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री ने 28 दिसंबर, 2017 को राज्यसभा में कहा कि आईसीडीएस में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका की संकल्पना की गई है, जो स्थानीय समुदाय से 'अंशकालिक' आधार पर बाल देखरेख और विकास के क्षेत्र में 'अवैतनिक कार्यकर्ता' के रूप में अपनी सेवाएं प्रदान करने के लिए आगे आते हैं. केंद्र सरकार की तरफ से आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को 3000 रुपये, लघु आंगनवाड़ी की कार्यकर्ता को 2250 रुपये और सहायिका को 1500 रुपये का मासिक मानदेय दिया जाता है. इसके अलावा राज्य सरकारें भी इस राशि में अपना योगदान जोड़ती हैं.

वर्तमान स्थिति में केंद्र और राज्य सरकारों से मिले-जुले योगदान से आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं को जो मानदेय मिलता है, वह किसी भी किस्म की न्यूनतम मजदूरी से कम है, यहां तक कि अकुशल मजदूरी से भी कम! मसलन मध्यप्रदेश में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को 5000 रुपये का मानदेय मिलता है, जबकि यहां अकुशल मजदूरी के लिए भी 5998 रुपये का प्रावधान है. यहां सहायिका को केवल 2500 रुपये मिलते हैं. उत्तरप्रदेश में ईंट भट्टों में काम करने की न्यूनतम मजदूरी 7400 रुपये है, पर आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के लिए कुल 4000 रुपये का और सहायिका के लिए 2000 रुपये का प्रावधान है. महाराष्ट्र में पशुपालन की मजदूरी 6940 रुपये है, पर आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को 5000 रुपये और सहायिका को 2500 रुपये दिए जाने का प्रावधान है. गुजरात में ईंट भट्ठे पर काम करने पर एक दिन के लिए 297 रुपये मिलते हैं, किंतु आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को 200 रुपये. 

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इस मामले में तमिलनाडु एक सम्माननीय मानक स्थापित करता है. वहां आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को 9750 रुपये और सहायिका को 5775 रुपये दिए जाने का प्रावधान है. हाल ही में दिल्ली सरकार ने भी उनकी भूमिका को समझा है, इसके लिए आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने संघर्ष भी किया और वहां अब 9678 रुपये का प्रावधान है. गोवा में आर्हता और अनुभव के आधार पर आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के लिए 6062 रुपये से 14937 रुपये तक का प्रावधान है.  
  
हर कोई जानता है कि जीवन में होने वाले विकास में से 80 प्रतिशत शारीरिक और मानसिक विकास जीवन के पहले 2 सालों में हो जाता है. हम अपने मानव संसाधनों को पूरी तरह से सक्षम नहीं बना पा रहे हैं, क्योंकि उनकी बुनियाद कमजोर पड़ रही है. हमें इस कठिन सवाल से जूझना पड़ रहा है कि कहीं हम आंतरिक उपनिवेश खड़े करने की नीति पर तो आगे नहीं बढ़ रहे हैं! भारत में बच्चों का पोषण, स्वास्थ्य और प्रारंभिक विकास 'राज्य' की प्राथमिकता सूची में कहां दर्ज है, यह साफ दिखाई दे रहा है. हमारी सरकारें यह समझ ही नहीं पायी हैं कि प्रारंभिक देखरेख और बाल विकास और मातृत्व हक किसी भी तरह की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक विकास की बुनियाद है. केवल चमकदार सड़कें बनाने, आकाश में सैटेलाइट छोड़ने या सत्ता के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च करके मूर्तियां स्थापित करने से हमारी बुनियाद मजबूत नहीं हो सकती है. अफसोस का विषय तो यह इसलिए भी है, क्योंकि अलग-अलग राजनीतिक-आर्थिक विचारधाराओं वाले राजनीतिक दलों ने इस पहलू को किनारे ही रखा है.

(लेखक विकास संवाद के निदेशक, लेखक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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