दवा में 'ब्रांड' के नाम पर लूट का काला कारोबार
Advertisement

दवा में 'ब्रांड' के नाम पर लूट का काला कारोबार

दवा में 'ब्रांड' के नाम पर लूट का काला कारोबार

दवाएं हमारे अनमोल जीवन को बचाने में अहम भूमिका निभाती हैं। लेकिन, जब इन दवाओं में घालमेल होने लगे, कालाबाजारी का साया मंडराने लगे तो फिर जिंदगी पर ग्रहण लग जाता है! अफसोस है कि तमाम कवायदों के बावजूद भी गरीब को सस्ती से सस्ती दवा उपलब्ध कराने की सरकारी पहल भी धरातल पर खरी नहीं उतर पाई है! दवा में 'ब्रांडिंग' के नाम पर देश की गरीब जनता को लूटने का खेल जारी है...

बीमारी से ज्यादा आम आदमी 'महंगी दवाओं' के बोझ से दब रहा है। सरकार, निजी दवा कंपनियों के मनमर्जी के दाम वसूलने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने में पूर्णत: असफल साबित हुई है। जन औषधालय, आम मरीज की पहुंच से दूर हैं और प्राइवेट दवा कपंनियों की तादाद बढ़ती जा रही है। ब्रांडिंग के खेल में जेनरिक दवाओं के महत्व को दबाया जा रहा है। जीवनदाता सफेदपोश डॉक्टरों का 'कमिशन' कई गुना बढ़ गया है। प्राइवेट दवा कंपनियों के मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव की घुसपैठ सरकारी अस्पतालों के अंदर खाने तक हो गई है और लूट का कारोबार चरम पर है। 

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि मरीज को सस्ती दवा कैसे मिले? स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता अभियान चलाने वाले एक्टिविस्ट आशुतोष कुमार सिंह का कहना है कि जिस दिन इस देश में डॉक्टर दवाओं की बढ़ती कीमतों पर सवाल उठाना शुरू कर देंगे और दवा कंपनियों से अपना 'कट' लेना छोड़ देंगे, दवा खुद-ब-खुद सस्ती हो जाएगी। देश को 'ब्रांड' की नहीं दवा की जरूरत है। लेकिन निजी दवा कंपनियां, दवा में ब्रांडिंग के नाम पर देश को लूट रही हैं। एक-दो दवा कंपनियों को छोड़ दिया जाए तो किसी के पास अपना रिसर्च प्रोडक्ट तक नहीं है। देश में 95 प्रतिशत बीमारियों का इलाज जेनरिक (पेटेंट फ्री) दवाओं से हो रहा है। फिर भी दवाएं महंगी हैं! 

ब्रांड के नाम पर लूट का खेल

दरअसल, यह पूरा खेल ही घालमेल का है। प्राइवेट दवा कंपनियां जेनरिक और एथिकल (ब्रैंडेड) दोनों तरह की दवाएं बनाती हैं। दोनों की कंपोजिशन समान होती है और इन्हें बनाने में कोई फर्क नहीं होता है। यहां तक की दोनों की गुणवत्ता और परफॉर्मेंस भी बराबर होती है। फर्क सिर्फ इतना है कि 'जेनरिक' दवाओं की मार्केटिंग और ब्रांडिंग पर दवा कंपनियां पैसा खर्च नहीं करती हैं और इन्हें अपनी लागत मूल्य के बाद कुछ प्रोफिट के साथ बेच देती हैं। जबकि, ब्रांडेड दवाओं के लिए जमकर मार्केटिंग की जाती है। दवा कंपनियों के एमआर डॉक्टरों को इन दवाओं को ज्यादा से ज्यादा मरीजों को प्रिस्क्राइब करने के लिए 10 से 40 फीसदी तक कमीशन और तरह-तरह के गिफ्टों से नवाजते हैं। 

इसके चलते ही इन दवाओं की कीमत काफी बढ़ जाती है। आरटीआई कार्यकर्ता विनय के मुताबिक, बाजार में 80 फीसदी लोग जो खुद से दवा खरीद कर खाते हैं वो 'जेनरिक' दवा ही तो है। साल 2008 में सरकार ने जेनरिक को बढ़ावा देने के लिए जन औषधालय तो खोल दिेए लेकिन अभी इनकी पहुंच जनता से कोसों दूर है। सात साल बाद भी जन-औषधालयों की संख्या संख्या 200 को पार नहीं कर पाई है। विनय कहते हैं कि सरकारी दवाओं की सप्लाइंग में बड़ी खामी है जिसकी वजह से यह गैप नहीं मिट पाया है। आज डॉक्टर एक पर्टिकुलर ब्रांड लिखता है, केमिस्ट पर्टिकुलर ब्रांड बेचता है, मरीज पर्टिकुलर ब्रांड खाता है और एक पर्टिकुलर दवा कंपनी को इसका मुनाफा मिलता है।

स्वस्थ भारत अभियान के संयोजक आशुतोष कुमार सिंह के मुताबिक, गरीबी अपने आप में बीमारियों का समुच्य है। अगर आकंड़ों को देखें तो करीब 3 से 4 फीसदी लोग दवा महंगी होने की वजह से गरीबी रेखा से नहीं उभर पा रहे हैं। मतलब साफ है प्रतिवर्ष चार से पांच करोड़ लोग सिर्फ इसलिए गरीबी रेखा से नहीं निकल पा रहे हैं क्योंकि देश में स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है और दवा की कीमतें आसमान छू रही हैं?

क्या टाइम फ्रेम में बांधकर बीमारियों को देश में पटका जाता है?

जानकार अंतरराष्ट्रीय साजिश के तहत भी बीमारियों को लाए जाने की आशंका व्यक्त करते हैं। खुद आशुतोष कहते हैं कि कई बार एक टाइम फ्रेम में बांधकर बीमारियों को देश में पटका जाता है। यह भी दवाओं को बेचने और बिकवाने का ही खेल है। बीमारी से ज्यादा प्रोपोगेंडा होता है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि बीमारी नहीं है। बीमारी से ज्यादा माहौल है, जिसे हम स्वाइन फ्लू के वक्त देख चुके हैं। स्वाइन फ्लू के वक्त इस तरह का माहौल बना की 'मिनिमम किट निर्धारित हो गई'। यह किट खूब बिकी भी, लेकिन यहां इस बात पर गौर करना जरूरी है कि किन इलाकों में यह किट सबसे ज्यादा बिकी? यह किट उन्ही इलाकों में बिकी जहां लोगों की बाइंग कैपिसिटी ज्यादा थी। इस तरह भी दवाओं को बेचने और बिकवाने का 'हिडन खेल' चलता है।

आपको जानकर हैरानी होगी कि भारत में अभी तक कुल मिलाकर 12-13 दवाएं ही इजात हुई हैं। देश में 35 हजार करोड़ का हेल्थ बजट पास होता है। लेकिन, उसका आटपुट क्या है? बीमारियां की संख्या लगातर बढ़ रही है। पोलियों को छोड़ दें तो हम किस बीमारी को देश से भगाने में सफल हुए हैं? भारत में पांच सरकारी दवा कंपनियां हैं और इनका सालाना टर्नओवर 600 करोड़ से भी कम है। जबकि इस देश का घरेलू दवा बाजार की बात करें तो वह 70 हजार करोड़ से भी ज्यादा का हो गया है। भारत का टोटल दवा बाजार 1 करोड़ 30 लाख के करीब है। ऐसे में सरकार की भागीदारी 600 करोड़ से भी कम है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि दवा के क्षेत्र में सरकार का दखल कितना कम है?

सरकार, दवा को छोड़कर देश में सरकारी अस्पताल बना रही है, डॉक्टरों को बहाल कर रही है लेकिन सरकारी दवा की दुकानों को खोलने के दिशा में किसी भी तरह का प्रयास नहीं देखा जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उचित ही है की जब इस देश के गली-गली में सरकारी शराब की दुकान हो सकती है तो सरकारी दवा की क्यों नहीं?

एक साल से अपडेट नहीं है NPPA की वेबसाइट!

वहीं, दूसरी तरफ राष्ट्रीय औषध मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) की हिंदी वेबसाइट पर चैयरमैन का संदेश एक साल से भी ज्यादा हो गए हैं 'अंडर कंस्ट्रेक्शन' ही चल रहा है। डिजिटल इंडिया के नारे के बीच जब एनपीपीए अपनी वेबसाइट ही अपडेट नहीं कर पा रही है तो दवाओं का मूल्यों निर्धारण किस तरह करती होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है? दरअसल, राष्ट्रीय औषध मूल्य निर्धारण प्राधिकरण 400 दवाओं के मूल्य का निर्धारण करती है। लेकिन यहां भी कई तरह की खामियां हैं। एनपीए की जिम्मेदारी के हिसाब से उसका सेटअप तैयार नहीं हो पाया है। स्टाफ की भारी कमी है। नेशनल हेल्पलाइन नंबर को दो-तीन लोग मिलकर हैंडल कर रहे हैं। जबकि यहां एक्सपर्ट की जरूरत है। 

fallback

महंगी दवाओं और स्वास्थ्य के प्रति जनता को जागरुक कर रहे समाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि राष्ट्रीय औषध मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) अभी जनता से नहीं जुड़ पाया है और ना ही यह बॉडी इस दिशा में प्रयासरत है। एनपीपीए के चैयरमैन इंजेती श्रीनिवास को इसी साल स्पोर्ट्स अथॉरिटी इंडिया में डीजी बनाकर भेजा जा चुका है। फिलहाल उनके पास ही एनपीपीए के चैयरमैन का अतिरिक्त जिम्मेदारी है। 

Trending news