Trending Photos
डॉ. विजय अग्रवाल
इतिहास के बारे में अकसर दो बातें कही जाती हैं-पहली यह कि इतिहास अपने आपको दोहराता है और दूसरी यह कि विचारक हीगेल के शब्दों में ‘इतिहास से हमने अभी तक यही सीखा है कि इतिहास से हमने कुछ नहीं सीखा.’ तीन तलाक के मामले में उच्चतम न्यायालय का आया फैसला इन दोनों मान्यताओं की कसौटी पर बिल्कुल खरा उतरता है. 22 अगस्त का दिन निश्चित रूप से मुस्लिम महिलाओं के लिए उसी प्रकार आत्मसम्मान एवं अस्तित्व की गरिमा के रूप में लिया जाएगा जिस प्रकार 4 दिसम्बर, 1829 के दिन को भारतीय महिलाओं की गरिमा की रक्षा के रूप में लिया जाता है.
हालांकि, यह तारीख किसी को याद नहीं है किन्तु आज जबकि इतिहास एक बार फिर से अपनी उस तारीख को दोहरा रहा है, उसे याद किया जाना चाहिए. 4 दिसम्बर, 1829 भारतीय इतिहास में समाज सुधार के उस क्रांतिकारी दिवस के रूप में दर्ज है, जब राजा राम मोहन राय के नेतृत्व में तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिंग ने सती प्रथा के अंत वाले कानून पर हस्ताक्षर किए थे. इसे उन्होंने ‘मनुष्य की स्वाभाविक अभिवृत्ति का उल्लंघन करने वाला’ बताया था.
और पढ़ें : प्रधानमंत्री का एक खामोश विस्फोट
इसके बाद के 29 साल बाद ही उसी सरकार ने अपनी नीति की सार्वजनिक घोषणा कर दी कि भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं के मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी. इस प्रकार प्रगतिशीलता की ओर बढ़ते समाज की गति को रोक दिया गया. लगभग 135 साल के बाद इतिहास ने अपने-आपको दोहराया, लेकिन थोड़े से बदले हुए रूप में. मोहम्मद खान बनाम शाहबानो बेगम मामले में भारत की सर्वोच्च अदालत ने सन् 1985 में मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता पाने का अधिकार संबंधी एक क्रांतिकारी निर्णय दिया था. लेकिन कुछ ही समय बाद भारत की संसद में इस डर से उस निर्णय के खिलाफ अधिनियम पारित कर दिया कि कहीं कोई मुस्लिम समाज अपने नीति मामलों में हस्तक्षेप मानकर उसे वोट देना बन्द न कर दे.
अब 1829 की घटना की तुलना 1985 की इस घटना से सीधे-सीधे करके इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि इस प्रकार इतिहास खुद को दोहराता है. यदि इतिहास से सीख ली जाती, तो निश्चित रूप से भारतीय संसद कभी भी शाहबानो मामले में प्रतिक्रियावादी निर्णय नहीं लेती. इतिहास में अनेक ऐसे दौर मौजूद हैं, जब प्रतिक्रियावादी शक्तियों के सामने मुंह की खानी पड़ी है. अमेरीका और फ्रांस की क्रांति से बढ़कर इसका गवाह और कौन हो सकता है. कभी ऐसा समय नहीं होता जब कि एकमात्र प्रगतिशील शक्तियां समाज को आगे बढ़ा रही हों. सती प्रथा के लिए राजा राम मोहन राय को अपने ही लोगों के इतने जबर्दस्त विरोध और आलोचना का सामना करना पड़ा था, यह सत्य तो बहुत ही कम लोगों को मालूम है. लेकिन अन्ततः जीत हुई और आज उन्हीं राजा राम मोहन राय को भारतीय समाज आधुनिकता का अग्रदूत कहने में गर्व महसूस करता है.
और पढ़ें : लोकतंत्र में गायकवाड़ जैसे 'खास' लोगों के विशेषाधिकार की जगह नहीं
तीन तलाक की असंवैधानिकता के बारे में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने भले ही अब इस विवाद पर सती प्रथा की तरह विराम लगा दिया है, लेकिन मुस्लिम समाज में इससे पहले ही अन्दरूनी तौर पर इसके खिलाफ जबर्दस्त सुगबुगाहट पैदा होने लगी थी. राजनैतिक नेतृत्व वही सही होता है, जहां वह जनता की आकांक्षाओं को समय रहते ही पहचानकर उसे वैधानिक स्वरूप दे देता है. सन् 1985 ने एक ऐसा ही अवसर उपलब्ध कराया था, लेकिन उसका लाभ तभी उठाया जा सकता है, जब नेतृत्व विकास इतिहासबोध हो. यदि सचमुच में उस समय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को ही अंतिम मानकर तत्कालीन सामाजिक उथल-पुथल को बर्दाश्त कर लिया जाता, तो इन 32 सालों में मुस्लिम समाज का चेहरा कुछ और ही होता और वह निश्चित रूप से वर्तमान से अधिक चमकीला ही होता. यह खुशी की बात है कि वर्तमान राजनैतिक नेतृत्व ने इस जरूरत को पहचाना.
घटना एक घटती है, लेकिन उसके परिणाम कभी भी एक तक सीमित नहीं रहते. सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय एक ऐसे विशाल द्वार के खुलने की तरह है जिससे होकर समानता और मानवता की शुद्ध और ताजी हवा अन्दर तक प्रवेश करके वहां मौजूद अन्य तत्वों का भी पुनर्नवीकरण करेगी. यह मामला केवल संविधान से जुड़ा हुआ मामला नहीं है बल्कि मानवता से भी जुड़ा हुआ मामला है और इस फैसले के द्वारा मानवता को आक्सीजन मिलने की शुरुआत हो चुकी है.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)