तीन दिन और तीन रात की घटनाओं को जोड़कर लिखा गया यह उपन्यास जितनी ईमानदारी के साथ मीडिया की स्थितियों को उघाड़ता है, उतना ही सफल ये मानवीय पहलुओं को समझाने में होता है.
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90 के दशक में एक फिल्म आई थी ‘मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी’, जिसमें सैफ अली खान ने एक फिल्मी हीरो की भूमिका निभाई थी. फिल्म में होता यूं है कि सैफ को जब एक पुलिसवाले का रोल मिलता है तो वह असली पुलिसवाले के पास ट्रेनिंग लेने के लिए पहुंचते हैं ताकि वह अपनी अदाकारी को रियल बना सकें. इस तरह उनकी मुलाकात फिल्म में पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभा रहे अक्षय कुमार के साथ होती है. एक सीन में अक्षय कुमार कुछ गुंडो से निबटने पहुंचते हैं और मना करने के बावजूद सैफ अली ख़ान उनके पीछे आ जाते हैं जहां उनकी जान जोखिम में पड़ जाती है. तब सैफ को बचाते हुए अक्षय कुमार बोलते हैं - फिल्म में जब तुम एक्टिंग करते हो तो गलती सुधारने के लिए तुम्हें दूसरा टेक मिल जाता है लेकिन यहां सिर्फ एक टेक होता है एक टेक.
लेखक प्रियदर्शन का उपन्यास ‘ज़िंदगी लाइव’ जिंदगी के उसी एक टेक की कहानी है जो यह बताती है कि मीडिया का लाइव हो या जिंदगी लाइव अगर गलती की तो ख़ामियाजा भुगतना पड़ेगा. तीन दिन और तीन रात की घटनाओं को जोड़कर लिखा गया यह उपन्यास जितनी ईमानदारी के साथ मीडिया की स्थितियों को उघाड़ता है, उतना ही सफल ये मानवीय पहलुओं को समझाने में होता है.
एक थ्रिलर की तरह चलने वाला यह उपन्यास आपको हर चैप्टर के खत्म होने के बाद एक हुक देता है जिसकी वजह से आप अगला चैप्टर पढ़ने को मजबूर हो जाते हैं. इसे लेखक का टीवी की दुनिया में लंबे समय से काम करने का तज़ुर्बा ही कहेंगे जिसकी वजह से पाठक को किताब की हर घटना अपने सामने होती हुई नज़र आती है. हालांकि उपन्यास पढ़ने के दौरान आपको धीरे धीरे इस बातका अहसास होता जाता है कि आप एक कल्पना की दुनिया में जा रहे हैं जो यथार्थ से मिलती-जुलती तो है लेकिन य़थार्थ की तरह उबड़खाबड़ नहीं है. यहां पाठक को इस बात का भरोसा रहता है कि ये उबड़खाबड़ रास्ता आगे जाकर एक्सप्रेस-वे से ज़रूर मिल जाएगा. दरअसल इस काल्पनिक कथा की एक खूबी यह भी है कि आप यथार्थ से दूरी बनाते हुए भी उसके साथ साथ चलते हैं.
26 नवंबर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास साथ में कई पर्तों को लेकर चलता है जिसमें टीवी चैनलों से जुड़े एंकर और पत्रकारों की ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव भी हैं, वहीं एक औरत के कामकाज और बच्चे को पालने के बीच झूलती जिंदगी भी है. खबरों की सच्चाई है और उसको चलाने वालों की हकीकत है. कुलीन शहरों की बाउंड्री वॉल के पीछे की मलिन बस्तियों की तरफ झांकता कड़वापन भी है.
लेखक कहते हैं कि इस कहानी में कुछ पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं और कुछ सच्ची घटनाओं को जोड़कर यह लिखा गया है जिस खूबसूरती के साथ इसका ताना बाना बुना गया है चाहकर भी यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि असलियत में ये किरदार कौन होंगे.
उपन्यास 26 नवंबर को मुम्बई में हुए आतंकवादी हमलों की घटना से शुरू होता है. एक चैनल की एंकर सुलभा जब अपनी शिफ्ट खत्म करके जा ही रही होती है कि हमले की ब्रेकिंग न्यूज आ जातीहै. छोटी सी दिखने वाली ये घटना इतनी बढ़ जाती है कि उसे रातभर न्यूजरूम में रहना पड़ता है. उसका दो साल का बेटा जो ऑफिस के झूलाघर में ही रहता है. बच्चे को संभालने वाली आया शीला को भी घर जाने की जल्दी होती है क्योंकि घर पर उसका पति और बच्चे भूखे बैठे उसके आने का इंतज़ार कर रहे हैं. खबर की आपाधापी में सुलभा अपने बच्चे से बेखबर हो जाती है और उसे लेना भूल जाती है. वहीं उसका पति जो दूसरे चैनल में एक रिपोर्टर है उसे अचानक मुंबई जाने का फरमान आ जाता है वह भी खबर में इस तरह खोता है कि उसका दिमाग भी बच्चे की तरफ नहीं जाता है. ऐसे में शीला इस बच्चे को अपने साथ घर ले जाने का मन बना लेती है. लेकिन साथ ही उसे ये चिंता भी खाए जा रही होती है कि उसके छोटे से घर में जहां मच्छरों की भरमार है ये कोमल सा बच्चा कैसे रह पाएगा. लेकिन उसकी ये परेशानी तब दूर हो जाती है जब उसकी कैब में बैठी हुई चैनल की एक और लड़की जिसका नाम चारू है (लेकिन शीला उसे नहीं पहचानती है, न ही उसका नाम जानती है) वह उस बच्चे को संभालने की जिम्मेदारी ले लेती है और उसे दूसरे दिन सौंपने का वादा कर देती है.
अगले दिन जब सुलभा को बच्चे का ध्यान आता है तो वह बदहवास सी झूलाघर पहुंचती है, वहां लगे ताले को देखकर वह बुरी तरह से परेशान हो जाती है और फिर शुरू होती है बच्चे की खोज. उधर जब मालूम चलता है कि बच्चा आया के पास था तो उसका पता किया जाता है. वहां से बच्चे के दफ्तर की किसी महिला (चारू) के पास होने की खबर मिलती है. ये वह महिला है जिसे सुलभा ने एक दिन पहले डांट दिया था. यही नहीं चारू को डॉक्टर ने यह भी बता दिया है कि वह मां नहीं बन सकती है. यही वह पेंच है जो पाठक को उलझाए रखते हैं कि बच्चा सुलभा को मिल पाएगा कि नहीं. फिर दफ्तर की उस महिला (चारू) के पास से बच्चा बिल्डर के पास पहुंच जाता है.
कहानी जहां शुरुआत से लेकर चारू के पास बच्चा पहुंचने औऱ उसका फोन बंद हो जाने तक आपको एक थ्रिल का अहसास कराती है, वहीं बच्चे के किडनैप होने से लेकर अंत तक काफी नाटकीय और एक मसाला फिल्म की तरह लगने लगती है. हालांकि अच्छी बात यह है कि कहानी कहीं टूटती नहीं है. लेकिन जिस तरह से शुरुआत से मध्य तक कहानी पाठक के मन में एक अजीब सी खलबली मचाकर रखती है, पाठक यह जानते हुए भी कि बच्चा सुरक्षित है, आगे क्या होने वाला है का अहसास करते हुए आगे पढ़ते जाने की चाहत में लग जाता है. वहीं मध्य से अंत तक पहुंचते हुए कहानी का वह थ्रिल खत्म होने लगता है. लेखक का टीवी माध्यम में काम करना और जिंदगी को लेकर साफ फलसफा कई बार कहानी के किरदारों पर हावी होता सा दिखता है. एक वक्त के बाद यह लगने लगता है कि किरदार के चरित्र पर लेखक हावी हो गया है लेकिन बावजूद इसके कहानी कहीं भी भटकती नहीं है.
बाकी जिस समय की घटना बताई गई है उस वक्त मोबाइल के होने पर और शीला के पास मोबाइल होने के बावजूद उसका इस्तेमाल नहीं करना लोगों को खटक सकता है. पाठक यह तर्क दे सकते हैं कि शीला के पास क्या किसी का नंबर नहीं था अगर था तो उसने इस्तेमाल क्यों नहीं किया. लेकिन उसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि अक्सर गरीब आदमी डरा हुआ होता है और कई बार वह अपने फोन में किसी बड़े आदमी का नंबर रखने से भी घबराता है. और उसमेंआत्मविश्वास की इस कदर कमी होती है कि वह कई बार नंबर होते हुए भी लगा नहीं पाता है एक अंजाना सा संकोच उसे ऐसा करने से रोक देता है. शीला का कैब में बच्चे को चारू को देना लेकिन उसका नाम नहीं पूछना और ड्राइवर के याद दिलाने पर कि ये लड़की इस रूट पर पहली बार ही दिखी है, शीला को उसका नाम पूछ लेना चाहिए था. शीला का सहम जाना फिर ड्राइवर को बोलते हुए खुद को दिलासा देना कि वह लड़की अगर इस गाड़ी में बैठी है तो चैनल की ही होगी और मुझे पहले भी दिख चुकी है उसी संकोच की ओर इशारा करता है. वहीं चारू के बच्चे को नहीं सौंपने वाली बात को भी लेखक ने उसके मां न बन पाने की मजबूरी के चलते एक दिन के लिए लिए मां बन जाने का लालच जैसी चतुराई के साथ स्पष्ट कर दिया है. इस तरह ये चूक उपन्यास को नुकसान नहीं पहुंचाती है.
कहानी में मुंबई के आंतकवाद को आधार बनाया गया है लेकिन उपन्यास पर वह भारी नहीं पड़ता है बल्कि वह उस आतंक के बहाने हमारे समाज में व्याप्त आतंक, हमारी क्रूर होती मानवता और भ्रष्ट होती सोच को सहजता के साथ दिखा देते हैं. लेखक ने एक अनायास सी दिखने वाली सावधानी और बरती है कि कहानी को किसी एक सवाल पर केन्द्रित नहीं किया है. बल्कि कई सवालों को एक साथ एक ही जगह पर उठाने का प्रयास किया है. सबसे पहला सवाल तो आज के उस भारतीय मीडिया से जुड़ा हुआ है जिसके लिए खबर एक खेल है औऱ उसे रोज़ाना उससे खेलना है. एक जगह कहानी की नायिका सुलभा बोलती है, ‘मैं न्यूज़ पढ़ते हुए एक ट्रिक आज़माती हूं. जब कोई बहुत इमोशनल बना देने वाली ख़बर आती है, जब लगता है, रोने लगूंगी तो अचानक मैं मशीन बन जाती हूं. सोचना बंद कर देती हूं और जो लिखा हुआ मिलता है, उसके मायने भूल जाती हूं. अगर न करूं तो न्यूज़ ही न पढ़ पाऊं. तो उस दिन न्यूज़ पढ़ते-पढ़ते मुझे लगा था कि जो सीएसटी में गोलियां चला रहा है, वह आदमी नहीं है, मशीन है. वह भी मशीन है और मैं भी मशीन हूं’.
सुलभा के पिता जगमोहन सिन्हा कहते हैं कि हमारा मीडिया अपरिपक्व लोगों के हाथों में है. सुलभा भी यह महसूस करती है कि वह आंख में पट्टी बांधकर दौड़ती है और दुनिया की आंख में पट्टी बांध देती है. और कभी दुनिया आंख में पट्टी बांधकर उसकी तरफ आती है और उसकी आंख में पट्टी बांध देती है. यानि सच बताने के इस खेल में सबको अपने अपने हिस्से का सच चाहिए होता है.’
कहानी एक्स्ट्रा मैरिटल और प्री-मैरिटल सम्बन्धों पर भी सवाल खड़ा करती है और लेखक इस पर एक समाज विज्ञान का पक्ष भी रख देते हैं. जैसे कि उपन्यास में एक किरदार कहता है, ‘प्रशांत सर ने राममनोहर लोहिया को ‘कोट’ किया था - ज़ोर-जबरदस्ती और धोखाधड़ी के अलावा औरत और मर्द के बीच का हर रिश्ता जायज़ है... उसके और इफ्तिखार के बीच जो कुछ हुआ, उसमें न धोखा शामिल था न ज़बरदस्ती, फिर वह कौन सी चीज़ है जो उसे खाए जा रही है. फिर वह अचानक अपने ही ख्याल से चिहुंक गई - धोखा है, धोखा तो है ही. बल्कि दो-दो धोखे हैं. उसे अब जाकर अपनी फांस का पता चला.’ और यह भी ‘दो लोगों के बीच के रिश्ते सिर्फ दो लोगों के नहीं होते, न ही हो सकते. उनमें तीसरे का भी एक कंटेक्स्ट होता है. यह तीसरा कोई इन्डिविजुअल भी हो सकता है और पूरी सोसाइटी भी’.
इसके अलावा राजनीति, भूमाफिया, किसानों की जमीन को हड़पने का गणित और जातिवाद जैसे विषयों को भी कहानी छूते हुए निकल जाती है. हालांकि प्रकाशन में हुई प्रूफ की गलतियां मसलन किसी किरदार की जगह दूसरे किरदार का नाम छप जाना और थोड़ा परेशान करती है लेकिन उसमें सुधार किया जा सकता है.
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आज के इस दौर में जब कहानी या उपन्यास से कहानी नदारद होती जा रही है और किस्से हावी होते जा रहे हैं ऐसे में प्रियदर्शन की ‘जिंदगी लाइव’ पाठक को एक सुखद अहसास देती है.
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)