भोपाल का ‘ध्रुवा’ संगीत वृन्द, दुनिया का पहला और अकेला ऐसा समूह है जिसने करीब दो हज़ार बरस पुराने संस्कृत साहित्य को नया सांगीतिक संस्कार देकर उसे वैश्विक अनुगूंज बनाने का अभियान शुरू किया है.
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प्रयोग की स्वायत्त और खुली ज़मीन पर सृजन की नई संभावनाएं सदा ही सिर उठाती रही हैं. कुछ हदबंदियां टूटती हैं. कुछ धारणाएं दरकती हैं. जड़ताएं पिघलती हैं. नया और अनूठा इसी टूट-फूट के बीच आकार लेता है. तयशुदा सांचों से बाहर निकलकर तहज़ीब भी तो आखिर नए ज़माने से आंख मिलाना चाहती है. इसी गरज से पंडितों-आचार्यों और पोथियों तक महफूज़ रहने वाली प्राचीन भाषा संस्कृत ने अब सुर के पंखों पर सवारकर दुनिया की उड़ान भरने की उम्मीद जगाई है. थोड़ा आश्चर्य हो सकता है और परंपरा का गुलबंध बांधे रहने वाले चंद आलोचकों को नागवार भी लगे लेकिन देववाणी संस्कृत की ऋचाएं और काव्य अब पूरब-पश्चिम के सांगीतिक साहचर्य के साथ आस्वाद, रसिकता और रंजकता के नए क्षितिज खोल रहे हैं. इस साहसिक नवाचार की मिसाल गढ़ने आखिर युवाओं की ज़िद ही कारगर हुई.
ज़िक्र भोपाल के ‘ध्रुवा’ संगीत वृन्द का, जो दुनिया का पहला और अकेला ऐसा समूह है जिसने करीब दो हज़ार बरस पुराने संस्कृत साहित्य को नया सांगीतिक संस्कार देकर उसे वैश्विक अनुगूंज बनाने का अभियान शुरू किया है. अभी कुछ दिन पहले भोपाल में केन्द्र सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान और हिन्दी भवन में ‘ध्रुवा’ के कलाकारों की पहली प्रस्तुति से बहुतों को प्रत्यक्ष होने का मौका मिला. आमतौर पर कर्मकाण्डों या आध्यात्कि जागृति के अनुष्ठानों के आसपास सुनाई देने वाली वैदिक ऋचाओं, मंत्रों या संतों-आचार्यों के काव्य पदों को जब शंख, बांसुरी, तबला-पखावज़ जैसे भारतीय मूल के वाद्यों और हारमोनियम-गिटार तथा एकॉस्टिक ड्रम जैसे पश्चिमी साज़ों की लय-ताल भरी संगत में ‘ध्रुवा’ ने गुनगुनाया तो माहौल में नए आध्यात्मिक माधुर्य और आनंद का संचार हुआ. यह मिठास, अतीत, आज और आगत के बीच एक सुरीले रिश्ते की ही नहीं, संगीत के सप्तक की उस शक्ति का भी प्रतीक बनी जिसके ज़रिए सारी दुनिया में अमन, एकता और आपसदारी का राग भी छेड़ा जा सकता है. बहरहाल इस अद्वितीय सूझ के सूत्रधार बने संस्कृत के युवा शोधार्थी संजय द्विवेदी, जिनके पास संगीत की जन्मजात समझ है और लीक से हटकर अपनी आदर्श परंपरा और संस्कृति के उन्मेष के लिए सोचने-रचने की बुद्धि तथा कौशल भी है. संजय के गंभीर प्रयत्नों में नाट्यशास्त्र के गहन अध्ययन की बुनियाद और श्रवण के संस्कारों को भी लक्ष्य किया जा सकता है.
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‘ध्रुवा’ के आसपास संजय की कोशिशों के बीच उनकी उस कशिश को किनारे नहीं किया जा सकता जो उन्हें इस मुकाम तक ले आई- ‘‘स्कूल के दिनों तक संस्कृत चाहे-अनचाहे हमारी जुबां पर रहती आयी लेकिन बाद में इसे भुला दिया गया जबकि इसी भाषा से अन्य भाषाओं का भरा-पूरा संसार बना. इसी भाषा में वेदों से लेकर दुनिया के महानतम ग्रंथ रचे गए. नैतिकता के पाठ इसी सुगठित भाषा की देन हैं. लगा कि इस विरासत को आधुनिकता के हो-हल्ले में हाशिए पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए. इस भाषा के प्रति प्रेम और रंजकता का एकमात्र माध्यम हमें संगीत लगा. लम्बे सोच-विचार और अभ्यास के बाद ‘ध्रुवा’ ने जन्म लिया. गौर करने की बात है कि इस नवाचार के साथ देश के प्रकाण्ड कला अध्येताओं की प्रेरणा और सलाहें जुड़ी हैं. मार्गदर्शकों की इस सूचि में संस्कृतविद राधावल्लभ त्रिपाठी, शास्त्रीय गायिका और पंडित कुमार गंधर्व की शिष्या मीरा राव तथा प्रसिद्ध संतूर वादक-संगीतकार ओमप्रकाश चैरसिया के नाम हैं. कलाकारों की जो युवा फौज ‘ध्रुवा’ का अहम हिस्सा बनी हैं उनमें संयोजक-संस्थापक संजय द्विवेदी के अलावा विद्याधर आमटे (बाँसुरी), संजीव नागर (तबला), आतिफ सईद (गिटार), सनी शर्मा (एकॉस्टिक ड्रम), राहुल दिलारे (एकॉस्टिक परकशनिस्ट), क्षमा कपूरे, वैभव संतोरे और ज्ञानेश्वरी (गायक) जैसे उत्साही नाम हैं. शंखनाद और ओंकार की आदि-श्रुति से ‘ध्रुवा’ की प्रस्तुति का मंगलाचरण होता है. फिर ऋग्वेद का मंत्र ‘सहना भवतु, सहनौ भनत्तू’ के साथ अन्य मंत्र ‘भैरव’ के भाव-स्वर में भक्ति के उदात्त शिखर पर ले जाते हैं. इसी बीच शिवतांडव, शंकराचार्य की बहुश्रत रचना ‘भजगोविन्दम्’ के आरोह-अवरोह में लयबद्ध होता पूरब-पश्चिम का संगीत शब्द-सुरों की बाहें पसारकर मानवीयता का वैश्विक उद्घोष करने लगता है. युवा कंठ मीठी-मनुहार के साथ गाने लगते हैं- ‘‘हम ध्रुवा हैं, हम आए बांटने चैन’’. बेजान और बेचैन आदमी के लिए सुर की दवा ने ही तो अमृत-सा असर किया है. वल्लभाचार्य के ‘मधुराष्टकम’ को आख्रि में सुनते हुए उस रस-माधुरी की ही आकांक्षा प्रगाढ़ होती है जो जीवन का परम सत्य है.
‘ध्रुवा’ की इस दिव्यता को साधने का उपक्रम करीब पांच बरस से ज़ारी था लेकिन इसकी औपचारिक शुरुआत के लिए इस बरस की बसंत पंचमी की तिथि तय हुई. संस्कृत और संगीत की दो-धाराओं को मिलाकर ‘ध्रुवा’ की ये जो नई मूरत तैयार हुई है, उसके मिट्टी-गारे, नैन-नक्श, मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं और साज-सज्जा पर, प्रस्तुति के रंग-ढंग पर अभी प्रतिक्रियाएं आना बाकी हैं. बकौल संजय, हम बहुत पवित्र मन और संकल्प के साथ भारत की मान्य भाषा के पक्ष में आगे आए हैं. यह काम हम युवाओं के ज़रिए हो सका इसका मुझे गर्व है. यह हमारा फर्ज़ भी है. ...अब सरकार और सक्षम संस्थाओं को चाहिए कि वे ‘ध्रुवा’ की हिमायत करें.
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ऐसा नहीं कि संस्कृत की ऋचाओं और श्लोकों की संगीत से यह सोहबत नई-नई है. संस्कृत साहित्य का रिश्ता गान-स्वर से हज़ारों बरस पुराना है. हम यहां सामगान को याद करें. लेकिन अभिरुचियों और मनोरंजन के बदलते दौर में सम्प्रेषण की भाषा में भी परिवर्तन की ज़रूरत है. हालांकि संस्कृत के मंत्रों के साथ ध्वनि-विज्ञान जुड़ा रहा है और गहरा विमर्श भी, लेकिन हमारी तहज़ीब की बुनियाद रही वैज्ञानिक भाषा से छिटक रहे इस ज़माने से पुनः मैत्री और अनुराग के लिए ‘ध्रुवा’ की ज़िद का स्वागत किया जाना चाहिए.
- विनय उपाध्याय
(मीडियाकर्मी, लेखक और कला संपादक)