कोई देश भले बिखर जाए, लेकिन विचारों को मौत नहीं आती...
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कोई देश भले बिखर जाए, लेकिन विचारों को मौत नहीं आती...

राजनीतिक परिणाम वाली विफलता को दर्शन की विफलता मानने की भूल नहीं की जानी चाहिए. इस फिलासफी ने मुझे जीने का जो एक मकसद दिया, और चीजों को देखने की जो दृष्टि तथा समझने की जो चेतना दी, उसके लिए मैं आजन्म इसका आभारी रहूंगा.

कोई देश भले बिखर जाए, लेकिन विचारों को मौत नहीं आती...

बावजूद इसके कि दुनिया का कम्यूनिज्म से मोहभंग हो चुका है, मेरे जैसे असंख्य लोग रूस की सफल क्रांतिके सौवें वर्ष पर पसरे वैश्विक सन्नाटे से सकते में हैं. चैनल्स चुप. बौद्धिक वर्ग खामोश. अखबारों में बहुतहल्की सी फुसफुसाहट, वह भी आलोचना के तौर पर. जिस क्रांति की विस्फोटक ध्वनि ने सौ साल पहले राजनीति के क्षेत्र में बिग बैंग की तरह हुंकार भरी हो, उसकी इतनी खामोश मौत अंदर एक दुख और चिंता तो पैदा करती ही है.

ऐसा इसलिए भी महसूस हो रहा है, क्योंकि हम उस पीढ़ी के लोगों में हैं, जिनके लिए मार्क्सवाद जीवन जीने का एक दर्शन था. इसने हम जैसे निम्न मध्यम वर्ग के लोगों को वह वैचारिक संबल, आत्मविश्वास तथा मकसद प्रदान किया था, जिससे अंदर का खालीपन भर उठा था. और बड़े-बड़े धन्ना सेठों के सामने सीना तानकर खड़े होने की शक्ति मिली थी. इसने निरीहता को शक्ति में तथा कुंठा को साहस में तब्दील करने का चमत्कार कर दिखाया था.

लेकिन अफसोस कि उस विचार के साथ यह जुगलबंदी ज्यादा दिनों तक जारी न रह सकी. मोहभंग की इस स्थिति की शुरुआत 1990 में रूस के बिखरने से पहले ही शुरू हो चुकी थी.

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मेरे एक मित्र थे. मुझसे लगभग पांच साल बड़े, दिखने में बहुत प्रभावशाली, जिनके चेहरे पर चढ़ा अधिक पावर वाला चश्मा उन्हें और भी अधिक प्रभावी बना देता था. वे कामरेड थे. सही मायने में मार्क्सवाद की सही समझ मैंने उन्हीं से पाई थी. अपनी-अपनी जिंदगियों की न जाने कितनी-कितनी शामें हम लोगों ने मार्क्सवाद, रूस की क्रांति, लेनिन, माओ, ट्राटस्की रोज़ा लक्जमबर्ग तथा फिदेल कास्त्रो आदि पर बहस करते हुए गुजारी थीं. मार्क्सवादी किताबें हमारे धर्मग्रंथ हुआ करती थीं. उस दौर में कहानी की एक पत्रिका निकलती थी ‘सारिका’. उसमें अनिल बर्वे का एक नाटक छपा था ‘‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड.’’ दीवानगी इस हद तक थी कि मैंने उस पत्रिका की सारी प्रतियां उधारी में खरीदकर लोगों में बांट दी. दरअसल, यह एक जुनून का दौर था.

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लेकिन अफसोस कि उस जुनून को मैं लम्बी जिन्दगी नहीं दे सका. इसका कारण मार्क्सवादी दर्शन से मोह का भंग होना नहीं, बल्कि मार्क्सवादियों से मोह का भंग होना रहा. जाहिर है कि मेरे सामने मार्क्सवादी दर्शन का मुख्य साकार रूप केवल एक ही थे, वही, जिनकी चर्चा मैंने ऊपर की है. अभी मुश्किल से 4-5 साल ही हुए होंगे, कि रुपयों-पैसों और सम्पत्तियों को लेकर उनके कारनामों की फेहरिस्त सामने आने लगी. इस सच्चाई को समझने में वक्त नहीं लगा कि इनके लिए मार्क्सवाद एक प्रखर बौद्धिक एवं एक सम्मानजनक मुखौटे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. जब हम दूसरों के सामने बातें करते थे, तो वह हमें अनायास ही बुद्धिजीवी और त्यागी प्राणी समझकर हम पर विश्वास करने लगता था. अब यह हमारे ऊपर था कि हम उनके इस विश्वास के साथ क्या करते हैं. इस दर्शनशास्त्र का सबसे दुखद पहलू यही रहा कि हम जैसे लोग लोगों के विश्वास की रक्षा नहीं कर सके.

उस विश्वासघात के परिणाम आज सामने हैं. लेकिन राजनीतिक परिणाम वाली विफलता को दर्शन की विफलता मानने की भूल नहीं की जानी चाहिए. इस फिलासफी ने मुझे जीने का जो एक मकसद दिया, और चीजों को देखने की जो दृष्टि तथा समझने की जो चेतना दी, उसके लिए मैं आजन्म इसका आभारी रहूंगा. रूस बिखर सकता है, मार्क्सवाद नहीं.

(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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