गोपालदास नीरज... मुरझा गया गीतों का कमल
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गोपालदास नीरज... मुरझा गया गीतों का कमल

नीरज के गीतों के मुझे दो सबसे प्रमुख और सबसे अद्भुत पक्ष दिखाई देते हैं. पहला है उनके प्रेम का पक्ष और दूसरा है जीवन दर्शन का पक्ष. नये-नये बिम्बों, प्रतीकों और छन्द विधानों के जरिये उन्होंने हिन्दी गीतों का जो नया रूप गढ़ा वह केवल नीरज के ही बस की बात थी और वह भी मंच की कविताओं के लिए.

गोपालदास नीरज... मुरझा गया गीतों का कमल

यह मेरा सौभाग्य रहा है कि गोपालदास नीरज को मुझे सालभर पहले ही सुनने का मौका तब मिला, जब वे भोपाल में एक कार्यक्रम में शामिल होने आए थे. उस समय उनकी उम्र 92-93 साल की रही होगी. उन्हें व्हीलचेयर से मंच पर लाया गया और फिर व्हीलचेयर को सोफे के बिल्कुल करीब ले जाकर उन्हें दोनों ओर से सहारा देकर सोफे पर बिठाया गया. यह थी उनकी शारीरिक स्थिति.

लेकिन जब उन्होंने अपने गीत पढ़ने शुरू किये, तो कोई भी श्रोता इस बात पर विश्वास करने को तैयार नहीं था कि यह उसी व्यक्ति की आवाज है, जिसे फिलहाल व्हीलचेयर और दो-दो लोगों के सहारे की जरूरत है. आवाज में न कोई कंपन और न ही निराशा का कोई भाव. ऐसा लग रहा था मानो कि हम सब किसी तीस-पैंतीस साल के नौजवान को सुन रहे हों.

दरअसल, नीरज देखने में भी ऐसे ही थे- लम्बा-चौड़ा शरीर, गोरा रंग, उन्नत ललाट, जिज्ञासा और जोश से भरी आंखें, किन्तु कमल-सा कोमल चेहरा. हिन्दी साहित्य से सरोकार रखने वाला शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो, जिसे नीरज को देखने के बाद महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की याद न आए. वस्तुतः वे हिन्दी गीतों के निराला ही थे.

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नीरज के गीतों के मुझे दो सबसे प्रमुख और सबसे अद्भुत पक्ष दिखाई देते हैं. पहला है उनके प्रेम का पक्ष और दूसरा है जीवन दर्शन का पक्ष. नये-नये बिम्बों, प्रतीकों और छन्द विधानों के जरिये उन्होंने हिन्दी गीतों का जो नया रूप गढ़ा वह केवल नीरज के ही बस की बात थी और वह भी मंच की कविताओं के लिए. आज हमें यह बात सामान्य ही लग सकती है, लेकिन यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि फिल्म जैसे व्यावसायिक और मनोरंजक विधा में साहित्यिक गीतों को उन्होंने जो सम्मानजनक स्थान दिलाया, वह असंभव को संभव करने जैसा ही है. उदाहरण के तौर पर नीरज के ‘प्रेम-पुजारी’ फिल्म के लिए लिखे गीत की इस पंक्ति को देखा जा सकता है-

फूलों के रंग से,
दिल की कलम से,
तुझको लिखी रोज पाती....

प्रेम पुजारी के ही एक अन्य गीत की पंक्ति है -

शोखियों में घोला जाये, फूलों का शबाब,
उसमें फिर मिलाई जाए, थोड़ी-सी शराब.
होगा ये नशा जो तैयार, वो प्यार है

इन गीतों में उर्दू के शब्दों का सम्यक प्रयोग तथा शब्दों की बुनावट देखते ही बनती है. साहित्यिक संस्कार वाले गीत होने के बावजूद नीरज के गीतों को श्रोताओं के बीच चमत्कारिक सफलता मिली. दिल की गहराइयों मे उतरकर उनके गीत की पंक्तियां लोगों के होंठों पर अनायास ही आकर मचलने लगती हैं. आश्चर्य की बात तो यह है कि यदि नई पीढ़ी को भी ये गीत सुनाए जाएं, तो ये उन्हें भी अपील करते हैं.

नीरज के गीतों का दूसरा पक्ष जीवन दर्शन का है. जिन्दगी के गंभीर से गंभीर तर्कों को सीधी-सरल भाषा के माध्यम से ऊबड़-खाबड़ पृष्ठभूमि में बांधकर उसमें गज़ब की प्रभावशीलता लाने की विलक्षण प्रतिभा अपने समकालीनों में सिर्फ नीरज के पास ही दिखाई देती है. इसे फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के लिए लिखे गए उनके इस गीत में महसूस किया जा सकता है-

ए भाई जरा देख के चलो,
आगे ही नहीं पीछे भी,
ऊपर ही नहीं नीचे भी,
दाएं ही नहीं बाएं भी

विश्वास नहीं होता कि बोलचाल के शब्दों के माध्यम से इतनी गहरी बात को इतने सरल अंदाज में भी पेश किया जा सकता है. यहां यह बात उल्लेखनीय है कि उनके इस गीत को राजकपूर जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने भी पसन्द किया था और इसे फिल्माया भी अपने ही ऊपर था. श्रोताओं ने भी इसे खूब सराहा.

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नीरज का शुरू का जीवन बहुत संघर्षों से भरा रहा है. लेकिन ये संघर्ष उन्हें मनुष्य बने रहने से नीचे नहीं उतार सके. और वे अपने गीतों के माध्यम से लोगों के बीच अपना प्यार बांटते रहे. मुझे लगता है कि उनके गीत की इन दो पंक्तियों में उनके सम्पूर्ण जीवन के दर्शन को समझा जा सकता है और इसे मैंने उनमें महसूस भी किया है. इतने महान, लोकप्रिय कवि और वरिष्ठ रचनाकार होने के बावजूद उनका जीवन अंत तक एक बच्चे जैसा ही भोला और मासूम बना रहा. तभी तो वे कह पाये कि -

बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं,
आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं
(फिल्म ‘पहचान’)

नीरज का गीत कारवां गुजर गया... एक प्रकार से उनके नाम का पर्यायवाची ही बन गया है. नीरज का कारवां गुजरा नहीं है. हां, वह हमेशा-हमेशा के लिए थम जरूर गया है. रामधारी सिंह दिनकर ने नीरज के गीतों की कोमलता, रसमयता, ध्वन्यात्मकता तथा लालित्य को देखते हुए उन्हें ‘हिन्दी की वीणा’ कहा था. अब यह वीणा हमेशा-हमेशा के लिए मौन हो गई है. लेकिन उस वीणा की झंकार लगातार लोगों की चेतना को झंकृत करती रहेगी.

(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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