यह सोचकर ही मन एक अजीब तरह के उत्साह और उमंग से भरकर उछालें मारने लगता है कि यदि सचमुच हम ऐसा कर सके, तो यह हमारा कितना बड़ा अहोभाग्य होगा. लेकिन जो सच है, वह यह नहीं है. हमीं ने बहती हुई नदी को बांध में तब्दील करके उसकी गति को बंधक बना दिया है.
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नया का ख्याल आते ही मन में एक ही साथ कई विपरीत भाव पैदा होते हैं. इस समय मन ठीक उस ब्याही जाने वाली दुल्हन की तरह हो जाता है, जिसके अंदर अपने नये घर ससुराल जाने की उत्सुकता और उत्साह भी है, तो कहीं न कहीं नए के साथ सामंजस्य बिठाने का भय भी. यह भी कहना गलत नहीं होगा कि कहीं न कहीं पुराने के छूटने का दुख भी है. इसके बावजूद जो जीत होती है, वह अन्ततः नए की ही होती है. दुल्हन बिदा होती है और उस नये घर में जाकर अपने आपको पूरी तरह उस परिवार के प्रति समर्पित कर देती है. कुछ अर्से के बाद वही उसका घर बन जाता है, इस तरह मानो कि शुरू से ही यह उसका अपना ही घर रहा हो. मित्रो, यहां मैंने इस रूपक की रचना दरअसल उस नये साल को ध्यान में रखकर किया है, जिसके स्वागत के लिए आप हम सभी बड़े उत्साह के साथ तैयार रहते हैं.
सन् 1975 में आई फिल्म ‘गीत गाता चल’ की एक गीत की दो पंक्तियां हैं-
मैं वही, दर्पण वही, ना जाने ये क्या हो गया
कि सब कुछ लागे नया-नया.
बाहर कुछ नहीं बदला है-मौसम, घर, लोग, प्रकृति, नौकरी आदि सब कुछ पहले जैसे ही है. यदि कुछ बदला है, तो वह है-अंदर का मन, जो इन सभी बाहरी चीजों के साथ आज एक नएपन का अहसास कर रहा है. यानी कि यह नयापन और कुछ भी नहीं है, एक अहसास के सिवाय. अगर यह है, तो हर दिन एक नया दिन और हर रात एक नई रात है. और यदि यह नहीं है, तो ‘एन इवनिंग इन पेरिस’ भी बहुत ऊबाऊ और नीरस हो जाएगी.
वस्तुतः, हम जिस नये का उत्सव मनाते हैं, उस नयेपन का अहसास हमारी चेतना का एक अन्तर्निहित स्थायी भाव होना चाहिए. यह हमारी चेतना में होती ही है. लेकिन यह प्रकट तब होती है, जब हम किसी भी वस्तु, स्थान, घटना, व्यक्ति या दृश्य आदि पर थोड़ा ध्यान देते हैं. अन्यथा हमारा अधिकांश काम तो उनके स्थूल स्वरूप से ही चल जाता है.
मेरी इस बात पर यकीन करने के लिए आप एक काम करें. कल आप अपने पुराने कैलेंडर को उतारकर फेंक देंगे. उसे आप साल भर तक रोजाना देखते रहे हैं. आज आप बस एक छोटा सा काम करें. और यह काम कैलेंडर को अंतिम बार देखने का, लेकिन ध्यान से. मैं दोहरा रहा हूं-ध्यान से. आप उस कैलेंडर के एक छोटे से भाग को देखने से शुरू करें, और धीरे-धीरे उसके एक-एक अंश को देखते हुए आगे बढ़ें. आज आपको पहली बार इस सत्य का बोध होगा कि कैलेंडर का लगभग तीन-चैथाई भाग तो अब तक अनदेखा ही रह गया था. इस अनदेखे में ही नएपन का अनंत खजाना मौजूद रहता है.
फिर आप इस अनदेखे को देखकर अब इसमें अपनी कल्पना, अपने विचार, अपनी स्मृतियों और अपनी रचनात्मकता के रंग भरते चले जाइये. यही पुराना आपके सामने नए-नए की लंबी फेहरिस्त पेश कर देगा.
यूनान के महान दार्शनिक हेराक्लिट्स ने लगभग ढाई हजार साल पहले कहा था कि ‘कोई भी आदमी जब नदी में दोबारा उतरता है, तो न तो वह नदी वहीं होती है, और न ही वह आदमी वही होता है.’ यानी कि इतनी ही देर में दोनों बदल गये होते हैं. पुराना छूट गया है, और नया पैदा हो गया है.
यही बात हमारी जिंदगी पर और जिंदगी के पल-पल पर लागू होती है. यह सोचकर ही मन एक अजीब तरह के उत्साह और उमंग से भरकर उछालें मारने लगता है कि यदि सचमुच हम ऐसा कर सके, तो यह हमारा कितना बड़ा अहोभाग्य होगा. लेकिन जो सच है, वह यह नहीं है. हमीं ने बहती हुई नदी को बांध में तब्दील करके उसकी गति को बंधक बना दिया है.
आइये, नये साल पर यह संकल्प लें कि ‘हम अपने जीवन की नदी को मुक्त करके प्रतिदिन दुल्हन के भाव को जियेंगे, और खुद को भाग-दौड़ से थामकर सौन्दर्य के सत्य को निहारने में भी कुछ वक्त लगायेंगे.
(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)