कहीं प्रकृति का चक्र ‘शिशुपाल’ की गर्दन तो नहीं उतारने वाला?
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कहीं प्रकृति का चक्र ‘शिशुपाल’ की गर्दन तो नहीं उतारने वाला?

प्राकृतिक आपदाएं गंभीर संकट की ओर इशारा कर रही हैं, जिस पर विचार करना आवश्यक है (फोटोः मुंबई बारिश जी न्यूज)

2008 में आई ‘दि हैपनिंग’ फिल्म प्रकृति के उस भयानक रूप की कल्पना है जो कई मायनों में अब सच लगने लगी है. लेखक-निर्देशक नाइट श्यामलन की फिल्म हैपनिंग की कहानी का सार ये है कि किस तरह धरती पर मौजूद पेड़ एक साथ मिलकर इंसानों के खिलाफ एक जंग छेड़ देते हैं . वो एक ऐसा ज़हर छोड़ना शुरू कर देते हैं जो आदमी के दिमाग में मौजूद वायरिंग को पूरी तरह बदल कर रख देता है. ये एक न्यूरोटॉक्सिन है जिससे इंसान खुद को नुकसान पहुंचाने के लिए प्रेरित होने लगते हैं. बीते कुछ सालों से समुद्री पौधों में इस तरह का बर्ताव देखा गया जिसमें वो टॉक्सिन यानि ज़हर छोड़ने लगे हैं. उनकी इस प्रक्रिया को रेड टाइड सिंड्रोम के नाम से जाना जाता है. इसके पीछे प्रकृति में हो रहे लगातार बदलाव को कारण बताया गया है.

अभी हाल ही में अमेरिका के टेक्सास में आये भयंकर तूफान हार्वे ने काफी तबाही पहुंचाई. इसे पिछले 13 सालों में आया सबसे शक्तिशाली तूफान माना जा रहा है. देखा जाए तो तूफान, बारिश औऱ हर तरह की प्राकृतिक आपबेदाएं लगातार शक्तिशाली होती जा रही है. भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर सदी की सबसे भयानक बाढ़ से जूझ रहे हैं. इन तीन राज्यों में बाढ़ की वजह से होने वाले हादसों में मरने वालों की संख्या 90 को पार कर गई है. 18 लाख से अधिक लोग इसकी जद में आ गए हैं. खेतों में हुए नुकसान का तो अभी आंकलन भी नहीं लग सका है.

कोसी नदी में हर साल बाढ आती है और अपने साथ फसल ले जाती है औऱ तबाही दे जाती है. गंगा की सहायक नदी कोसी जो नेपाल के पहाड़ो से निकलकर बिहार में बहकर राजमहल के निकट गंगा में मिल जाती है. 2008 में जो बाढ़ आई थी उसने बिहार के सैंकड़ों गांव को डुबो दिया था. नेपाल के कुसाहा बांध के टूट जाने के बाद बेकाबू हुई कोसी ने करीब 30 लाख लोगों को प्रभावित किया था.

अगस्त 2010 में जब जम्मू कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में बादल फटे तो उसने ऐसी तबाही मचाई जिसने 113 लोगों की जान ले ली. लेह में बादल फटने से जो भूस्खलन हुआ था उसमें 160 से अधिक लोग घायल हो गए थे. 2004 में आई सुनामी तो कोई भूला नहीं होगा जिसने पूरे विश्व में करोड़ों लोगों को प्रभावित किय था. 9.3 तीव्रता के इस भूकंप के चलते हिंद महासागर में थरथराहट पैदा हुआ और तबाही के मंजर पैदा कर दिये.

बद्रीनाथ केदारनाथ में आई आपदा में देखते देखते गांव के गांव और कई निर्माण बह गए.

नेशनल ज्योग्राफिक पर ‘इयर्स ऑफ लिंविंग डेंजरस्ली’ नाम से प्रसारित डॉक्यूमेंट्री फिल्म की श्रंखला में बताया गया है कि किस तरह क्लाइमेट चेंज हमारे जीवन पर प्रभाव डाल रहा है. तापमान में होती बढ़ोतरी ने दुनिया के कई देशों को सूखे की चपेट में ला दिया है. इंडोनेशिया में तो पाल्म ऑइल के उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रकृति को दोहरी मार मारा जा रहा है. पहले तो पेड़ काटे जा रहे हैं फिर उन्हें जलाया भी जाता है.

अनाज उत्पादन का गढ़ माने जाने वाले टेक्सास में अब कुछ नहीं बचा है, वहां लगातार कई सालों तक सूखा पड़ता है और फिर भयानक बाढ आती है. यहां तक की सीरिया में होने वाला आंदोलन औऱ क्रांति की वजह भी यही ग्लोबल वार्मिंग है जिसकी वजह से वहां लगातार सूखा पड़ रहा है और लोगों के पास खाने को नहीं था जिसने यह नौबत ला दी कि लोग सड़कों पर उतर आए.

अल नीनो और सुपर स्टॉर्म सैंडी जैसे तूफान समुद्र के आने वाले वो तूफान हैं जो हैं तो प्राकृतिक लेकिन लगातार गहराते जा रहे हैं. इनसे होने वाली तबाही लगातार बढ़ती जा रही है . दरअसल वातावरण में जो

कार्बन की मात्रा है उसमें होती लगातार बढ़ोतरी ने जिस तरह समुद्र के स्तर को बढ़ाना शुरू किया है वो इन तूफानों का एक बहुत बढ़ा कारण है. इंच दर इंच समुद्र का स्तर जहां एक फुट से अधिक बढ़ गया है, वहीं ग्लेशियर का पिघलना ये सब मिलकर प्रकृति को गुस्सा दिलाने पर मजबूर कर रहे हैं. ये गुस्सा हमें महाभारत में कृष्ण और शिशुपाल की कहानी याद दिलाता है जहां कृष्ण ने शिशुपाल की मां को ये वचन दिया था कि वो शिशुपाल की 100 गलतियों को माफ कर देगा लेकिन 101 वीं गलती होने पर उसे उसका वध करना होगा. जब भरे दरबार में शिशुपाल ने भूल पर भूल करी थी तो कृष्ण ने 101 वीं गलती होते ही उसकी गर्दन उतार दी थी. आज हम लोग भी जिस तरह भूल पर भूल किये जा रहे हैं गोया हमारा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता है ऐसे में प्रकृति का चक्र कहीं हमारे साथ ऐसा ही बर्ताव ना कर डाले .

समुद्र के अंदर पाए जाने वाले कोरल्स एक प्रकार के जीव होते हैं जो एक ही जगह मरकर चिपकते जाते हैं और एक लेयर सी बनाते जाते हैं जिसे रीफ कहते हैं. कोरल की हर लेयर में एक साल के क्लायमेट की सूचना की भरमार होती है. वैज्ञानिकों ने जब इसे ड्रिल किया तो मालूम चला की बीते सालों में समुद्र का तापमान लगातार बढ़ा है.

‘ दि हेपनिंग’ फिल्म में पेड़ जिस वजह से गुस्से में आकर बदला लेने पर उतारू हो जाते हैं उसके पीछे वजह जगह है, पेड़ों से लगातार जो जगह छीनी जा रही है वो उसे ऐसा करने पर मजबूर कर रही है. इस साइंस फिक्शन फिल्म के पीछे भले ही एक कपोल कल्पना हो लेकिन वैज्ञानिक इस बात को मानते हैं कि पेड़ एक दूसरे से केमिकल की लड़ाई लड़ते हैं क्योंकि धरती या समुद्र में मौजूद जो पोषक तत्व है उसकी ज़रूरत दोनों को ही है. डार्विन ने भी अपने संघर्ष के सिद्धांत (सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट ) में इस बारे में बताया है. जैसे रेड टाइड सिंड्रोम के तहत ये देखा जाता है कि अगर समुद्र में पौधों की संख्या बढ़ जाती है तो दूसरे जीवधारी ज्यादा घातक हो जाते हैं. वो खुद को जीवित ऱखने के लिए लड़ाई लड़ते हैं .

एशिया के सबसे बड़े डेल्टा सुंदरबन में बाघों के हिंसक होने के पीछे की वजह भी यही जगह का मामला है. सुंदरबन में रहने वाले जीव बहुत विकट परिस्थितियों में जीवन यापन करते हैं. दलदली ज़मीन, तैरते मैंग्रूव्स के जंगलों के बीच कहीं कही पर मीठे पानी के स्रोत होते हैं जिस पर पहला हक जंगल में रहने वाले जानवरों का होता है लेकिन जब उनसे ये हक छीन लिया जाता है तो मजबूरीवश वो खारा पानी पीने को मजबूर हो जाते हैं. इस खारे पानी के बढ़ने की वजह भी समुद्री स्तर का बढ़ना है. तो एक तरफ इंसान जगह छीन रहे हैं दूसरी तरफ समुद्र का स्तर सब कुछ लेने पर आमादा है ऐसे में जीने के लिए संघर्ष करने का सिद्धांत बाघों को हिंसक बनने पर मजबूर कर देता है. वैसे भी खारा पानी पीने से जानवर की हिंसक प्रवृत्ति ज्यादा उग्र हो जाती है.

‘प्लेनेट ऑफ दि एप्स’ फिल्म भी इसी बात की तरफ इशारा करती है कि किस तरह हम जानवरों को एक प्रयोग की वस्तु मान कर बैठे हैं. जो प्रकृति के सबसे ज्यादा करीब है हम उसे लगातार प्रकृति से दूर करते जा रहे हैं जिसकी वजह से फिल्म में बंदर अपनी सेना बनाते हैं औऱ इंसानों के खिलाफ युद्ध छेड़ देते हैं . अगर हम देखें तो ये युद्ध हर स्तर पर जारी है . प्रकृति बार बार हमें आगाह कर रही है लेकिन हम इसे समझने को तैयार नहीं है. भारत में जब बद्रानाथ केदारनाथ जैसा हादसा होता है तो समझ में आता है कि इसके पीछे की वजह नदी पर किया गया निर्माण था. दरअसल इंसानों ने जो नदी की ज़मीन हड़प ली थी नदी ने बस अपनी वो ज़मीन वापस ली, इंसान बीच में आ गए. कोसी में आई आपदा में भी यही हुआ, नदी की ज़मीन को लोगों ने कब्ज़ा लिया. नदी ने अपनी ज़मीन वापस ले ली . इसी तरह भारत में हुए जाट आंदोलन में सड़कों पर जाम लगाने के लिए 70 हज़ार पेड़ों को काट दिया गया था .

‘दि हैपनिंग’ फिल्म में जिस तरह से अचानक वातावरण में ज़हर घुल जाता है औऱ कई सैंकड़ों लोग मर जाते हैं फिर सब कुछ ऐसे सामान्य हो जाता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं था . अगर हम गौर से देखें तो हर प्राकृतिक आपदा भी ऐसा ही कुछ नज़ारा पेश करती है. वो हर बार हमें चेताती है लेकिन होता क्या है. बद्रीनाथ –केदारनाथ हादसे के बाद देश की ज़िम्मेदार सरकार की मंत्री जिन्हे गंगा मत्रालय जैसे अहम विभाग की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है वो बयान देती हैं कि नदी से मंदिर को हटवाना इस आपदा की वजह है. उत्तराखंड में सबको दिखता है कि किस तरह आश्रमों का कचरा सीधे गंगा में मिला दिया जाता है लेकिन निर्मल गंगा की गाना गाने वाले मंत्री इस मुद्दे पर आंख बंद कर लेते हैं. मुहाने से जिस गंगा को बांधो में बांध कर रख दिया है वो जब तक अविरल नहीं रहेगी तब तक निर्मल होगी कैसे. फिर जब हम उसे बांधते हैं तो वो अपनी जगह तलाशती है औऱ इसकी वजह से गंगा बेल्ट पर लगातार भूमि कटान देखने को मिल रहा है.

हाल ही में आई शॉर्ट फिल्म ‘कार्बन’ 2067 की स्थिति बताती है कि किस तरह पूरी धरती पर ऑक्सीजन एक इंडस्ट्री प्रोडक्ट बन कर रह गया है. अगर धरती पर मुफ्त में कुछ मौजूद है तो वो है कार्बन . यहां पर या तो सरकारी राशन से ऑक्सीजन मिलती है जिसकी क्वालिटी पूरी तरह से गई गुजरी है या फिर ब्रांडेड ऑक्सिजन जिसकी कीमत बहुत ज्यादा है. इसके अलावा हिमालयन ऑक्सिजन भी है जिसकी तस्करी होती है. मार्स से पैसे वाले लोग इसे ड्रग्स की तरह लेने आते हैं. मार्स से आए नवाजउद्दीन जो धरती पर हिमालय की शुद्ध ऑक्सीजन का सेवन करने आए हैं जब वो जैकी भगनानी को पानी का ऑफर देते हैं तो जैकी बोलते हैं कि पहली मुलाकात में पानी दे रहे हो पक्का मार्स से आए हो. नवाज उन्हें बोलते हैं तुम लोगों के लड़ने की फितरत तो कमाल की है लेकिन तुम लोग इतने उलझे हुए थे कि प्रकृति की चेतावनी को समझ नहीं पाए. माहौल तो तब ही खराब हो गया था जब पहली फैक्ट्री लगी थी. और जब दिल्ली की नदियों से झाग निकलने लगा वो ताबूत में आखरी कील था.

इस कार्बन को नियंत्रित रखने के लिए ही 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल प्रस्तुत किया गया था. इसके तहत वातावरण में मौजूद ग्रीन हाउस गैस को नियंत्रित रखना ज़रूरी है . इस संधि के प्रावधानों में कुछ फेरबदल करने के बाद इसे 2002 में जर्मनी में जलवायु पर हुई वार्ता के दौरान अंतिम रूप दिया गया. इस संधि के तहत औद्योगिक देश ग्रीन हाउस समूह की गैसों से होने वाले प्रदूषण को ख़त्म करने के लिए जिम्मेदार होगा . इसके अनुसार संधि में शामिल देशों को इन गैसों, विशेष तौर पर कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को अगले दस साल में पाँच प्रतिशत के स्तर से नीचे लाना है. इन गैसों को जलवायु के परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है. इस संधि को सबसे पहले तब धक्का लगा जब सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ने 2001 में इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था . इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सीरिया की राह पर चलते हुए पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था .

दुनिया के लगभग 200 देशों ने 2015 में पेरिस में जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले अमेरिका और चीन भी इसमें शामिल थे. यह समझौता दुनिया भर के तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस पर रोकने की बात करता है. लेकिन बाद में अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति ने इससे अपने हाथ खींच लिए.

डॉक्यूमेंट्री ‘इयर्स ऑफ लिविंग डेंजरस्ली’ में बताया गया है कि किस तरह रिपब्लिकन पार्टी शुरू से ही तमाम प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं, ग्रीन हाउस गैस और धरती के

तापमान में होती लगातार बढोतरी के पीछे मौसम में बदलाव को सरे से नकारती आ रही है. यही नहीं रिपब्लिकन पार्टी ने एक चुनाव के दौरान एक होर्डिंग लगवाया था जिसमें क्लाइमेट चेंज की बात करने वालों की तुलना आतंकवादियों से की गई थी .

‘डे ऑफ्टर टुमारो’ फिल्म क्लाइमेट चेंज को बहुत गंभीरता से दिखाती है. उस फिल्म में बताया गया है कि किस तरह धरती के तापमान में बढ़ोतरी होने के बाद समुद्र का स्तर बढ़ेगा औऱ धरती पर आइस एज यानि हिमयुग लौट आयेगा. फिल्म में ये सब कुछ फटाफट हो जाता है. हो सकता है असलियत में ये सब इतना जल्दी ना हो लेकिन फिल्म में जिस तरह वैज्ञानिक बना हीरो बोलता है कि दुनिया का कोई भी मौसम विज्ञान आपको मौसम की सही जानकारी नहीं दे सकता है. ये सब अनुमान है औऱ अनुमान ज्यादा या कम हो सकता है. जिस तरह से प्रकृति गुस्से में है उससे ये लगता है कि अगर हम नहीं चेते तो ये अनुमान फिल्म की तरह ही हमें कुछ सोचने समझने का मौका नहीं देगा और फिल्म की तरह यहां अंत हमारे हाथ में भी नहीं होगा .

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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