गांव अगर शहर से कहे अपनी व्यथा
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गांव अगर शहर से कहे अपनी व्यथा

ग्रामीण भारत का दर्द नहीं जान सका है शहरी भारत (सांकेतिक चित्रः फाइल फोटो)

‘किसान बदहाल है.'
'किसानी घाटे का सौदा है.'
'किसान आत्महत्या कर रहे हैं.'
'खेती में लागत तक नहीं निकल रही.'
'इस मौसम की फसल भी बर्बाद हो गई.' 

ये सब बातें रोज़मर्रा में इतनी ज़्यादा सुनाई देती हैं कि अब इनकी गंभीरता और तीव्रता महसूस होनी बंद सी हो गई है. कहा जाता है कि दो भारत हैं. एक गांव में एक शहर में. लेकिन हम बात सिर्फ एक भारत की सुनते हैं. शहरी भारत का वर्चस्व इतना ज़्यादा इसलिए भी है क्योंकि उसके पास ज़ुबान है. वह बोलता है. धारणा बनाने में अहम भूमिका निभाता है. वो पब्लिक ओपिनियन फॉर्म कराता है. इसीलिए उसे शांत रखना, खुश रखना, हर सरकार की प्राथमिकता बन जाती है. गांव वाला भारत चुप रहता है. हमेशा से चुप है. बोलना चाहे भी तो कोई माध्यम और मंच नहीं है. ऊपर से इतनी ज़्यादा दयनीय हालत में है के उसे अब सूझता भी नहीं कि क्या बोले. कहां से शुरू करे. वो अपनी खुद की बात ही नहीं बोल पाता तो देश की बात क्या करे. सो जनधारणा बनाने में उसका कोई योगदान नहीं. इसलिए उस पर किसी का ध्यान नहीं. 

इन्वेस्टमेंट और रिटर्न का पहलू
दो में से एक जो भारत प्रभावी वोट बैंक है. जो भारत माहौल, हवा, जनधारणा आदि आदि बनाने में अहम भूमिका में है उसी के फायदे और कल्याण की बात करना हर सरकार का लक्ष्य अगर है तो इसमें हैरानी की क्या बात? सत्ता में आने और बने रहने के लिए जहां से इनवेस्टमेंट आएगा रिटर्न भी वहीँ जाएगा. तार्किक बात है. गांव या किसान दिखने से छूट जाता हो तो क्या आश्चर्य.

ज़िम्मेदारी और किनकी
किसान और गांव की बदहाली के लिए सिर्फ सरकारों की ज़िम्मेदारी तय कर देना बहुत ही सुविधाजनक है. समाजशास्त्रीय लिहाज़ से ज़्यादा ज़िम्मेदारी क्या उस शहरी भारत की नहीं बनती जो गांव की कीमत पर फल फूल रहा है. गांव के हिस्से के संसाधन भी शहरों के सुख पर खर्च हो जाते हैं. और जब कभी अर्थशास्त्रीय नियमों के लिहाज़ से किसान के उत्पाद की कीमत बढ़ने को होती है तो शहरी तबका खाद्य महंगाई की गुहार लगा देता है और सरकारें तुरंत बाहर से गेहूं, दाल इत्यादि आयात कर लाती हैं. जिसका किसान का उत्पाद मुकाबला नहीं कर पाता. और कहीं पड़ा पड़ा या तो सड़ जाता है या लागत से भी कम दाम में बिक जाता है.

एक नज़र भारी मन से
यहां गांव के पक्ष में अगर तर्क ढूंढने निकलेंगे तो सिर्फ घाटे-मुनाफे की भाषा में बात करने वाले इस दौर में शायद ही कोई तर्क गांव के पक्ष में मिले. गांव और किसानी को बचा कर किसी का कोई सीधा सीधा मुनाफा है भी नहीं. कोई चाहे तो पूरी कृषि को आउटसोर्स कर ले. बाहर के देशों से सस्ता अनाज उपलब्ध भी है. लेकिन यहां बात सिर्फ और सिर्फ यह है की देश की आधी से ज़्यादा आबादी की तरफ हमारी कोई ज़िम्मेदारी है या नहीं.

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70 करोड़ की आबादी को अगर मरता छोड़ कर हम अपनी वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी कर लेते हैं और दुनिया की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हो जाते हैं तो ये अर्थतान्त्रिकीय लिहाज़ से तो बिलकुल ठीक है लेकिन नैतिकता और हमारी कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को ये सिरे से ख़त्म कर देता है.

तो फिर कौन सोचे 
सोचना शहरों को है, सोचना ग्राहक को है, शहर ही गांव के उत्पादों के सबसे बड़े ग्राहक हैं. हमारा स्वदेशी का नारा और मेक इन इंडिया अगर सिर्फ दीवाली की झालर तक सीमित है तो बात और है. लेकिन जब हम कहते हैं के भले ही अपने देश में बना माल महंगा हो लेकिन चीन के माल का बहिष्कार करेंगे और अपना ही खरीदेंगे तो ये ही बात कृषि उत्पाद पर क्यों लागू नहीं होती. किसान की जो बिजली, पानी, गोदाम, समर्थन मूल्य, बीमा आदि मुसीबते हैं उनके लिए सरकारें जवाबदेह हैं और रहेंगी भी. लेकिन उसके उत्पाद के मूल्य के लिए उसके ग्राहक को भी अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी समझनी पड़ेगी. क्योंकि ग्राहक के साथ साथ हम साथी नागरिक भी हैं. समावेशी विकास के लक्ष्य और देश की आमदनी व संसाधनों के समवितरण के सिद्धांत से भी किसान का जायज़ हक़ बनता है अपने हिस्से पर. 

(लेखिका, खेल विशेषज्ञ और सोशल इंटरप्रेन्योर हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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