जैन परंपरा में सम्‍यक ज्ञान का आशय
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जैन परंपरा में सम्‍यक ज्ञान का आशय

जैन दर्शन के तीन रत्न हैं, दर्शन, ज्ञान और चारित्र्य. हालांकि इन तीनों के आगे एक विशेषण के रूप में सम्यक लगा होता है. शायद ही कोई जैन आचार्य या साधु या विद्वान इस विशेषण को लगाए बिना त्रिरत्नों को बोलता हो. ज्ञान के आगे सम्यक लगाने की जरूरत क्यों पड़ी?

जैन परंपरा में सम्‍यक ज्ञान का आशय

लगभग हर धर्म में भक्ति और पूजा पाठ की प्रवृत्ति बढ़ रही है. जबकि हर धर्म के पास अपना अपना एक नैतिक पाठ भी होता है. इसी नैतिक पाठ में ज्ञान होता है. खासतौर पर जैन और बौद्ध परंपरा का प्रस्थान बिंदु ही नैतिक पाठ है. महावीर जयंती पर जैन दर्शन की किसी मूलभूत प्रतिस्थापना की चर्चा से ज्यादा सार्थक और क्या होगा. मसलन सम्यक ज्ञान. जैन दर्शन के तीन रत्न हैं, दर्शन, ज्ञान और चारित्र्य. हालांकि इन तीनों के आगे एक विशेषण के रूप में सम्यक लगा होता है. शायद ही कोई जैन आचार्य या साधु या विद्वान इस विशेषण को लगाए बिना त्रिरत्नों को बोलता हो. ज्ञान के आगे सम्यक लगाने की जरूरत क्यों पड़ी? इसे जानना इस आलेख को पढ़ने वालों के लिए रोचक तो होगा ही साथ ही आज की विकट परिस्थितियों में उपयोगी भी हो सकता है.

ज्ञान में सम्यकत्व यानी सहीपना देखने की जरूरत क्यों?  
कोई चार सौ साल पहले एक जैन साधु हुए तारण स्वामी. उन्होंने ज्ञान को तीन रूपों में वर्गीकृत किया. वैसे तीर्थंकरों, सिद्धों और पिछले ढाई हजार साल में हुए अनगिनत आचार्यों ने भी ऐसी ही बात कही होगी. लेकिन चार सौ साल पहले हुए उन जैन साधु ने तबकी लोकभाषा में जिस तरह से ज्ञान का वर्गीकरण और व्याख्या की, उससे ज्ञान के इन रूपों का वर्गीकरण ज्यादा लोकप्रिय हो गया.

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बहरहाल उन्होंने ज्ञान को तीन रूपों में देखा, एक सम्यक ज्ञान, दूसरा अज्ञान और तीसरा कुज्ञान. तारण स्वामी ने कुज्ञान को अज्ञान से भी ज्यादा घातक माना. उन्होंने अपने समय में आडंबरों और अंधविश्वासों का विरोध किया. तारण परंपरा में आज गिनती के साधु हैं. आजकल उनका ज्यादा जोर अपने धर्म के आध्यात्मिक पक्ष पर है. शायद इसीलिए वे अपने गुरू के दिए ज्ञान के सम्यकत्व पर ज्यादा कहते हुए नहीं सुने जाते. यह प्रवृत्ति आज सार्वभौमिक है.

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इधर यह एक प्रत्यक्ष अनुभव है कि मानव समाज की प्रवृत्तियां तेजी से बदल रही हैं. उसका विश्वास परिग्रह यानी जरूरत से ज्यादा संग्रह और हिंसा में बढ़ रहा है. अहिंसा और अपरिग्रह के लक्ष्य साधे नहीं सध रहे हैं. कैसे सधे? इसे जानने के लिए इस समय दुनिया में ज्ञान का टोटा पड़ा दिख रहा है. तरह-तरह के दावे लेकर लोग आते हैं लेकिन कोई भी कारगर नहीं होता. इसीलिए हो सकता है कि बढ़ती अकादमिक अराजकता के दौर में जैन साधुओं को ज्ञान के सम्यकत्व पर ही सबसे ज्यादा कहने की जरूरत पड़े.

ज्ञान और कुज्ञान के भेद पर विद्वानों की नज़र
यह विचारधाराओं के बीच हिंसक द्वंद्व का युग समझा जा रहा है. पहले शास्त्रार्थ हुआ करते थे. उन विमर्शों में निकल कर आ जाता था कि क्या सही यानी सम्यक है और क्या ग़लत यानी मिथ्या है. लेकिन शास्त्रार्थों के दौरान भाव हिंसा होनी शुरू हो गई. उसके बाद शास्त्रार्थों का चलन ही कम हो गया. आज तो राजनीतिक क्षेत्र में शास्त्रार्थ रूपी विमर्शों के दौरान ऐसा विवाद होने लगा कि हिंसा भड़क जाती है. आज प्राचीन काल जैसे शास्त्रार्थ होने जैसी स्थिति भले न हो, लेकिन विद्वान लोग अपनी जगह खड़े-खड़े सही गलत का अनुमान या निर्णय दे रहे हैं.

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मानव समाज में वैज्ञानिकता के युग में आज तर्कशीलता का हुनर जिस तेजी से बढ़ रहा है उसे देखते हुए हम अनुमान लगा सकते हैं कि वैज्ञानिक रुझान का जो भी व्यक्ति इन विद्वानों के तर्क सुन रहा है उसे सही और गलत यानी सम्यक और मिथ्या का फर्क करने में दिक्कत नहीं आती होगी. अब ये अलग बात है अपने हित या स्वार्थ के कारण वर्तमान काल में हम सम्यक को मिथ्या या मिथ्या को सम्यक कहने के लिए अभिशप्त हों. वैसे तीर्थंकर महावीर जिस ज्ञान परंपरा के हैं उसमें मिथ्याज्ञान यानी कुज्ञान को सारे दुखों और संकटों का कारण सिद्ध किया गया है.

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दर्शन, ज्ञान और चारित्र्य की प्राथमिकता को लेकर विवाद
ज्ञान जिसे अंग्रेजी में हम नॉलिज समझते हैं. दर्शन जिसे बोलचाल की भाषा में देखने का तरीका या सही देखने का नज़रिया मानते हैं और चारित्र्य जिसे समझ में आने लायक भाषा में हम आचरण या व्यवहार मानते हैं. प्राथमिकता अनुसार इन तीनों के महत्व को लेकर आजकल जैन विद्वानों में विवाद होता हुआ पाया जाता है. एक प्रकार के वे विद्वान हैं जो कहते हैं कि अगर हम किसी वस्तु को उसी रूप में देखेंगे नहीं जिस रूप में वह है तो उस वस्तु का सही ज्ञान पाने में अड़चन आएगी. यानी सबसे पहले सम्यक दर्शन है. दूसरे प्रकार के वे विद्वान हैं जिनका तर्क है कि किसी वस्तु को वास्‍तविक रूप में देखने के लिए भी ज्ञान चाहिए. इस तरह वे सम्यक ज्ञान को सबसे जरूरी मानते हैं. उनका तर्क यह है कि ज्ञान से ही अपने आग्रह या पूर्वाग्रह के नफे नुकसान का पता चल जाता है और उस ज्ञान के बाद सम्यक दर्शन का गुण अपने आप हासिल हो सकता है. उसके बाद सम्यक ज्ञान को विस्तारित करने की स्थिति बन जाती है.

इसी तरह चारित्र्य यानी मानव के व्यवहार के साथ होता है. एक वे हैं जो मानते हैं कि ज्ञान पाने के लिए आचार व्यवहार का सम्यक होना जरूरी है. इस तरह वे धार्मिक क्रियाओं को सम्यक आचरण मानते हैं. और सबसे पहले पूजापाठ या उपासना को जरूरी मानते हैं. दूसरे वे हैं, जो मानते हैं कि सम्यक ज्ञान और दर्शन हासिल हो जाए तो व्यवहार तो अपने आप सध जाएगा. कुछ आचार्य और जैन विद्वान ऐसे भी हैं जो इन तीनों को प्राथमिकता के क्रम में लगाने के पचड़े में नहीं पड़ते. वे कहते हैं कि मानव को अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए तीनों को एकसाथ साधना पड़ता है. क्या सही है?

इसके लिए जैन दर्शन का विश्वसनीय पाठ एक साधन हो सकता है. लेकिन दिक्कत ये है कि जैन परंपरा में विभिन्न आम्नाय या पंथ हैं. सबके पास अपने अपने पाठ और आग्रह हैं. उनके बीच संवाद नहीं हो पा रहा है. जैन लोग महावीर जयंती जैसे अवसरों पर अन्य अनुष्ठानों के साथ साथ जैन विद्या के पाठ पर भी विमर्शों के आयोजन करने लगें तो यह जैनत्व की रक्षा का ही उपक्रम होगा.

(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)

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