'पद्मावती' के बहाने पनपते ढेरों सवाल
Advertisement
trendingNow1351993

'पद्मावती' के बहाने पनपते ढेरों सवाल

साहित्य का एक रूप हिस्टोरिक फिक्शन भी होता है. हिस्टोरिक फिक्शन यानी वह रचना जो इतिहास के किरदारों को लेकर एक कथा का रूप धारण करती है. 

'पद्मावती' के बहाने पनपते ढेरों सवाल

पद्मावती का किस्सा उलझता जा रहा है. फिल्म की बात है. इस तरह यह कथा साहित्य का मामला है. लेकिन इस फिल्मी कथा में इतिहास के पात्र हैं सो इतिहास की बात भी होने लगी है. यानी चक्कर कथा साहित्य और इतिहास का है. वैसे साहित्य का एक रूप हिस्टोरिक फिक्शन भी होता है. हिस्टोरिक फिक्शन यानी वह रचना जो इतिहास के किरदारों को लेकर एक कथा का रूप धारण करती है. फिल्म अभी रिलीज़ नहीं हुई. रिलीज तो अभी दूर की बात है. अभी यह फिल्म मंजूरी के लिए सेंसर बोर्ड के यहां एक चक्कर लगा आई है. सेंसर बोर्ड ने कहा है कि इस फिल्म के साथ और दूसरी जानकारियां नहीं दी गई हैं. 

इसके बहुत पहले फिल्म के प्रोमो पर ही विरोध शुरू हो गया था. फिल्म के निर्माता को घेरकर पीटने तक की वारदात हो गई. हिंसक शिकायत में अंदेशा यह जताया गया कि रानी पद्मावती के चरित्र चित्रण में गड़बड़ी हो जाएगी. वैसे फिल्म के कथानक की विश्वसनीय जानकारी अभी औपचारिक रूप से उपलब्ध नहीं है. इसी बीच निर्माताओं ने पत्रकारों को यह फिल्म दिखा दी है. इस काम पर सेंसर बोर्ड ने अपनी नाराज़गी जताई है. इसके पहले इस फिल्म पर रोक के लिए दायर याचिका भी नामंजूर हो गई थी. लेकिन सड़कों पर और मीडिया के ज़रिए गैरअदालती मुकदमा कौन रोक सकता है?  

किस तरह का होगा गैरअदालती मुकदमा
फिल्म का जो सुना सुनाया कथानक विवाद में है वह अंदाज़ा भर है. यह भी अनुमान ही है कि नई कथा की कल्पना पुरानी साहित्यिक रचनाओं के आधार पर की गई है. मसलन जायसी के कथा काव्य के आधार पर. यानी आगे विवाद होगा तो कथा साहित्य और इतिहास के मायनों को लेकर होगा. हालांकि फिल्म मेकर संजय लीला भंसाली बार-बार यह कह रहे हैं कि इतिहास के तथ्यों को भी बड़ी सतर्कता और जिम्मेदारी के साथ पेश किया जा रहा है. उन्होंने किसी की भावनाओं को समझने की अपनी जिम्मेदारी का अहसास भी कराया है. पत्रकारों को फिल्म दिखा भी दी गई है. बात फिर भी न बनी तो आगे भंसाली और सिनेमा जगत के दूसरे लोग यह बात भी याद दिलाएंगे कि इतिहास और कथा साहित्य को जोड़कर कथा का एक रूप हिस्टोरिक फिक्शन के नाम से पूरी दुनिया में स्वीकृत है. खैर इस पर जब बहस होगी तो होगी बहुत रोचक.

पढ़ें- पर्यावरण सुधार कर दो फीसदी जीडीपी बढ़ाने का खर्चा क्या बैठेगा?

इतिहास के स्रोत का सवाल
भविष्य में काम आने लायक विगत की घटनाओं का लेखाजोखा इतिहास बनता चलता है. इसके लिए तारीखें जरूरी होती हैं. इतिहास को हमने तारीखों के हिसाब से तीन भागों में बांट रखा है. प्राचीन, मध्ययुगीन और आधुनिक काल. प्राचीन इतिहास की विश्वसनीयता के लिए तारीखों का टोटा पड़ जाता है. मध्ययुगीन इतिहास के पास तारीखों और भौतिक साक्ष्य ज्यादा हैं. लेकिन पूरा और विश्वसनीय इतिहास अभी भी नहीं बन पाया है. दरअसल कोई भी इतिहास बिना साक्ष्यों के बन ही नहीं पाता. इतिहास के स्रोत के बारे में कहा जाता है कि अगर भौतिक साक्ष्य उपलब्ध न हों तो उस कालविशेष के परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर ही इतिहास निर्मित हो जाता है. परिस्थतिजन्य साक्ष्य हमें कथा साहित्य से उठाने पड़ते हैं. कई कथाएं इतनी जानदार शानदार और रोचक होती हैं कि ऐसा लगता है जैसे सच्चीमुच्ची की घटनाएं हों. वैसे गंभीर प्रकृति के इतिहासकार भी किसी कालविशेष की अज्ञात परिस्थितियों का हिसाब बनाते रहते हैं और अपना लिखा इतिहास छोड़ते रहते हैं. बाद के इतिहासकार उसकी जांच पड़ताल करते रहते हैं. और वाद विवाद होते रहते हैं.

पढ़ें- स्मॉग : स्वच्छता अभियान की समीक्षा की दरकार

इतिहासरूपी कथा साहित्य या कथारूपी इतिहास
अंग्रेज़ी में इसे हिस्टोरिक फिक्शन के नाम से जाना जाता है. इसका कोई सरल सा हिंदी शब्द सूझता नही है. आमतौर पर माना जाता है कि जिस कथा में पात्र तो इतिहास के हों लेकिन कथा का कथानक काल्पनिक हो उसे हिस्टोरिक फिक्शन कहते हैं. प्राचीन काल की प्रसिद्ध साहित्यिक रचनाओं के बाद उपजी ऐसी ढेरों रचनाएं उपलब्ध हैं जिन्हें पार्श्‍व कथाओं का नाम दिया गया है. उन्हें भी मूल कथा जितने चाव से पढ़ा जाता है. लेकिन अब तक का अनुभव यही है कि वही रचना लंबे समय तक जीवित रह पाती है जो विवादों से बची रहती है. 

तो फिर समस्या क्या होने लगी है
रट्टा वहां हो जाता है जब कथा को इतिहास समझा जाने लगे. और तब भी जब अपने लिए अप्रिय इतिहास को कथा कहकर उसे खारिज किया जाने लगे. बहुत से लोगों के लिए उनका इतिहास गर्व करने का एक माध्यम होता है. सो इसीलिए अपने इतिहास को वे अपनी धरोहर मानते हैं. बहुत से लोगों को ज्ञान के भंडार के रूप में अपना इतिहास प्रिय है. इस हद तक कि वे ज्ञान के विकास को घातक मानते हैं. लेकिन यह बात पद्मावती प्रकरण की समीक्षा में बिल्कुल फिट नहीं होती क्योंकि यह प्रकरण साहित्यिक कथा को लेकर है. लेकिन इतना तय है कि पद्मावती के बहाने साहित्य और इतिहास और साथ ही हिस्टोरिक फिक्शन को लेकर विद्वानों में विमर्श जरूर शुरू हो जाएगा. 

पढ़ें- तिनका तिनका: अमानवीय होती जेलों को अब सुधरना ही होगा

विवाद का आगा पीछा
पद्मावती के निर्माता पर भारी दबाव बन रहा है कि यह फिल्म पहले उस तबके को दिखाई जाए जिसे इस फिल्म में कुछ गड़बड़ होने का अंदेशा है. इसी बीच सेंसर बोर्ड ने आपत्ति जता दी है कि सेंसर के पहले किसी को फिल्म नहीं दिखाई जा सकती. सेंसर बोर्ड की आपत्ति भी जायज़ लगती है क्योंकि ऐसा होने लगा तो सेंसर बोर्ड तो बैठे-बिठाए दबाव में आने लगेगा. वैसे सेंसर बोर्ड की व्यवस्था बनी ही इसीलिए थी कि समाज के लिए आपत्तिजनक सामग्री का प्रसार न हो सके. सरकार देख समझ के सेंसर बोर्ड में नियुक्तियां करती है. आखिर लोकतांत्रिक सरकार जनता की आकांक्षा से ही बनती है. सो क्यों न माना जाए कि सेंसर बोर्ड का फैसला अधिकांश जनता का ही फैसला है. यही अब तक होता आया है. और मज़े से होता आया है. लेकिन अब तो आसार ये बन रहे हैं कि सेंसर बोर्ड की बजाए अलग-अलग तबकों की राय लेना पड़ेगी. हर बात पर जनता की राय लेने का तंत्र हमारे पास नहीं है. अपने लोकतंत्र में इसका उपाय सिर्फ चुनाव होते हैं. यानी अभी से सोचकर रखना चाहिए कि 'पद्मावती' का मसला बढ़ते-बढ़ते अगर राजनीतिक व्यवस्था को ही अपने आगोश में ले लेगा तब हम क्या करेंगे.   

(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

Trending news