'नीरज' ने भवानी प्रसाद मिश्र, शिवमंगल सिंह सुमन, गिरिजाकुमार माथुर, सोम ठाकुर जैसे कवियों के साथ मंच साझा किया. उसके बाद फिर नीरज तीसरी पीढ़ी के कवियों के साथ बैठे. कुवर बेचैन, अशोक चक्रधर, हास्यकवि अर्जुन अल्हड़ उनमें शामिल रहे हैं. उसके बाद वे मेरे जैसे नई पीढ़ी के कवियों के साथ भी आए हैं.
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गोपालदास नीरज एक सदी का इतिहास हैं. नीरज एक सेतु हैं हिंदी श्रेताओं के लिए. उन्होंने चार पीढ़ियों के साथ मंच साझा किया है. वे महाकवि निराला के साथ मंच पर बैठे, पंतजी के प्रिय कवि रहे, महादेवी जी के साथ बैठकर काव्य पाठ किया है. राष्ट्रकवि दिनकर ने उन्हें हिंदी की वीणा कहा था. वाचिक परंपरा के वे एक ऐसे सेतु थे जिस पर चलकर महाप्राण निराला, पंत, महादेवी, बच्चन, दिनकर, भवानी प्रसाद मिश्र की पीढ़ी के श्रोता मुझ जैसे नवांकुरों तक सहज ही पहुंच सके.
नीरज जी हमेशा रामधारी सिंह दिनकर जी का बड़ा सम्मान करते थे. दिनकर ने एक गीत लिखा था 'जब गीतकार मर गया, चांद रोने आया, चांदनी मचलने लगी कफ़न बन जाने को'. उसके प्रतिउत्तर में उन्होंने दिनकरजी को प्रणाम करते हुए 'जब गीतकार जन्मा' लिखा. वह गीत इस तरह है, 'जब गीतकार जन्मा, धरती बन गई गोद, हो उठा पवन चंचल, अना खुलने को पुत्रियों ने दिशि-दिशि गोरा, बजाई शहनाई आई गुठागिनी कोयल सोहर गाने को.'
उसके बाद वह दूसरी पीढ़ी के कवियों के साथ बैठे. भवानी प्रसाद मिश्र, शिवमंगल सिंह सुमन, गिरिजाकुमार माथुर, सोम ठाकुर जैसे कवियों के साथ मंच साझा किया. उसके बाद फिर नीरज तीसरी पीढ़ी के कवियों के साथ बैठे. कुंवर बेचैन, अशोक चक्रधर, हास्यकवि अर्जुन अल्हड़ उनमें शामिल रहे हैं. उसके बाद वे मेरे जैसे नई पीढ़ी के कवियों के साथ भी आए हैं. इस तरह नीरज का हमें छोड़कर चले जाने का मतलब है कि हिंदी की चार पीढ़ियों का पुल गिरा है.
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मुझे आशा थी कि जैसे हर बार वे सभी को चौंकाकर लौट आते हैं, इस बार भी वे मृत्यु को मात देकर लौट आएंगे. मैं उनका प्रिय मंच संचालक रहा हूं. जब मैं मंच का संचालन किया करता था, वे मुझे अपने साथ बैठाते थे. वह अक्सर एक गीत सुनाते थे. वह कहते थे कि जब मौत का दूत उन्हें बुलाए आया तो उन्होंने उसे एक गीत सुनाया. इस गीत को वह लगभग 75 वर्ष की आयु से सुनाते आ रहे थे. वह गीत है, 'ऐसी क्या बात है, चलता हूं अभी चलता हूं/ गीत एक और जरा झूम के गा लूं तो चलूं.'
इस पर मैं कहता था, देखों नीरज जी को, रोज मौत का देवता आता है इन्हें ले जाने के लिए और वे उसे गीत सुनाकर वापस भेज देते हैं... लेकिन इस बार यमराज ने शायद कोई ऐसा दूत भेज दिया जो संवेदना शून्य था और वह नीरज के इस गीत को समझ नहीं पाया. मैं उन्हें 'गीत-गन्धर्व' कहता था. जैसे किसी सात्विक उलाहने के कारण स्वर्ग से धरा पर उतरा कोई यक्ष हो. यूनानी गठन का बेहद आकर्षक गठा हुआ, किन्तु लावण्यपूर्ण चेहरा, पनीली आंखें, गुलाबी अधर, सुडौल गर्दन, छह फुटा डील-डौल, सरगम को कंठ में स्थायी विश्राम देने वाला मंद्र-स्वर, ये सब अगर भाषा के खांचे में ढलकर सम्मोहन की चांदनी में भू पर उतरे तो जैसे नीरज जी कहलाए.
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नीरज जी की लोकप्रियता फिल्मी गीतों की वजह से भी बहुत सही. सोचिए, क्या समय रहा होगा वह 60 और 70 के दशक के बीच का, जब देव आनंद भी उनके गीत गा रहे थे 'दिल की कलम से'. उधर, राजकपूर भी उनका गीत गा रहे थे, 'ऐ भाई जरा देख के चलो.'
'मेरा नाम जोकर' फिल्म का मुखड़ा जब उन्होंने लिखा, 'कहता है जोकर सारा जमाना.' इस पर और तमाम गीतकारों ने भी राजकपूर को अपने गीत भेजे थे. उनमें से कुछ गीतकार राजकपूर जी के पास गए और कहा कि ये गीत क्यों ले लिया. इस पर राज साहब ने कहा था कि नीरज ने गीत नहीं लिखा, बल्कि मेरे जीवन का पूरा दर्शन लिख दिया है. शोमैन राजकूपर कौन है, यही बात उन्होंने अपने गीत में कही थी.
मैं नीरज जी के साथ ही रहना चाहता था, जबकि अन्य कवि उनका सम्मान करते हुए उनसे दूरी बनाकर रहते थे, लेकिन मैं उनके साथ ही रहता था. मुझे पता था कि इससे मुझे थोड़ा बहुत कष्ट होगा और उन्हें भी कुछ परेशानी होगी, लेकिन उनके संस्मरण सुनने के लालच में मैं हमेशा उनके साथ लगा रहता था. एक संस्मरण में उन्होंने बताया कि एसडी बर्मन ने उनसे प्यार की परिभाषा लिखने के लिए कहा था, तब उन्होंने लिखा, 'शोखियों में घोला जाए फूलों का शबाब'.
'प्रेम पुजारी' फिल्म में नीरज अपने सभी रंगों में हैं. एक तरफ तो वह राष्ट्रीय अस्मिता का गीत 'ताकत वतन की हमसे है' लिखते हैं. उस गीत को सुनकर लगता है कि दिनकर की परंपरा का कवि भारतीय सैन्य अस्मिता का रेखांकित करता है. फिर एक फिल्म में लिखते हैं, 'ओ नीरज नैना सुन जरा' में एक प्रेमी कवि का आत्मविश्वास झलकता है.
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कैसा समय था जब 'ओशो' रजनीश अपने हर प्रवचन में, हर भाषण में नीरज का उल्लेख करते थे, 'सपना क्या है? नयन सेज पर, सोया हुआ आंख का पानी.' नीरज जी से मेरा पहला परिचय मेरे अपने ही गांव पिलखुवा में एक कवि सम्मेलन के दौरान हुआ था. उस समय मैं छोटा बच्चा था और कारवां गुजर गया रिलीज हो चुका था. यह मुझे समझ में आ गया था. कारवां गुजर गया कि तो बहुत पैरोडी बनी थीं. सत्यदेव शास्त्री भोपू ने लिखा था, चोर माल ले गए और हम देखते ही रह गए.
7वीं या 8वीं में एक हिंदी की किताब में एक कविता थी, 'जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए'. उसके नीचे गोपाल दास नीरज लिखा हुआ था. हमारे हिंदी के टीचर मुझसे हिंदी की कविता सुनवाते थे. मैं इस कविता को खड़े होकर जोर-जोर से सुनाता था. फिर नीरज जी से कवि सम्मेलनों में उनसे परिचय हुआ.
नीरज जी ज्योतिष के विद्वान, अंग्रेजी के विद्वान, उर्दू और फारसी के विद्वान थे. सड़क के किनारे गुब्बारे बेचे थे उन्होंने. 10वीं कक्षा में 65 फीसदी से ज्यादा नंबर आए थे उस जमाने में. यूपी बोर्ड में 16वीं रैंकिंग आने के बाद भी पढ़ाई छोड़नी पड़ी, क्योंकि घर में भीषण गरीबी थी. उन्होंने सड़कों पर चूरन भी बेचा. इसलिए उन्हें लोक की बहुत गहरी समझ थी. 'ओ मेरे भइया पानी दे, पानी दे गुड़धानी थे. चूल्हे में ना सिलगे गीली लकड़ियां, मुनवा को जल्द जवानी दे.'
मैं अक्सर उन्हें छेड़ता था. मुझे एक संस्मरण याद आता है. भोपाल में एक कवि सम्मेलन था. मैं कविता पढ़ रहा था और नीरज जी बैठे हुए कुछ लिख रहे थे. उनके सामने एक कवयित्री बैठी थी. इस पर मैंने मजाक में कहा, हमारे दादा को देखिए, इतने अद्भुत है और इतने पुराने हैं कि कवयित्री बगल में बैठी है फिर भी प्रेम पत्र लिख रहे हैं. इस पर बहुत हंसे. वे कहते थे, कुमार तू बहुत दुष्ट है.उनकी कविता, 'खुशबू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की, खिड़की खुली है गालिबन उनके मकान की' या फिर 'अब भी होती हैं कवियां उसके लिए पागल, ना जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में', प्रेम के प्रति उनके समर्पण और उसे लेकर आत्मविश्वास को दर्शाती हैं.
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4-5 साल पहले एक कवि सम्मेलन में उन्होंने कहा, 'अब भी होती हैं कवियां उसके लिए पागल, ना जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में' तो मैंने कहा कि कलियों को अब बुढ़िया कर दो. इस पर हंसकर उन्होंने कहा कि मेरे वक्त की कलियां तो कलियां ही रहेंगी. तुम्हारे लिए भले ही बुढ़िया हो गई हों. इतने जिंदादिल थे नीरज. उनके साथ जीना भी बड़े सौभाग्य भी बात है मेरे लिए. उनके चले जाने से समाज का हर वर्ग उन्हें याद कर रहा है. प्रधानमंत्री से लेकर, खिलाड़ी और एक मजदूरी करने वाला आदमी भी उन्हें याद कर रहा है. जहां तक लोकप्रियता की बात है. नीरज जी लोकप्रियता का एक पैमाना हैं. उस समय ना तो फेकबुक था, ना ट्विटर था, ना ही प्रकाशन की इतनी तकनीक थी. उस वक्त भी नीरज के फैन लालबहादुर शास्त्री भी थे. राजकपूर थे और ओशो.
नीरज का जाना एक युग का अंत है. उन्होंने कहा था कि सदियां लग जाएंगी तुम्हें भुलाने में. मुझे नहीं लगता कि ऐसा कभी हो पाएगा. नीरज इश्क के शायर रहे हैं. प्यार उन्होंने बांटा है. 'कांपती लौ, ये स्याही, ये धुआं, ये काजल उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी, कौन समझे मेरी आंखों की नमी का मतलब, ज़िन्दगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी'. वे कहते भी थे कि मेरी आत्मा योगी की है, मेरा मन भोगी का है और शरीर योगी का है. एक बार मैंने उन्हें आत्मकथा लिखने के लिए कहा तो उन्होंने कहा, नहीं अभी नहीं लिखूंगा, क्योंकि अभी उनमें से बहुत से लोग जिंदा हैं.
बालकवि बैरागी उनके बहुत बड़े प्रशंसक थे. बैरागी जी कहते थे, 'नीरज जी आपकी शव यात्रा में हम नहीं जाएंगे, क्योंकि पूर्वजों की शव यात्रा में वंशजों को नंगे पैर चलना पड़ता है और आपकी शव यात्रा में तो इतनी चूड़ियां टूटेंगी कि चलना मुश्किल हो जाएगा.' इस पर वह खुद भी बहुत हंसते थे. वे प्रेम को त्योहार की तरह जीने वाले थे. इश्क को एक फकीरी की तरह जीया उन्होंने. कवि सम्मेलनों में व्यावसायिकता का जो दौर आया, उसे भी नीरज जी ने कभी नहीं छूआ.
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उनके काव्य पाठ की एक खासियत यह थी कि नीरज जी ने कविता सुनाते समय यह ध्यान नहीं रखा कि श्रोताओं में कौन बैठा है. वे हमेशा उसी आस्था, उसी गति से और उसी समर्पण से अपने गीत सुनाते थे, जितना उन्हें सुनाना चाहिए. मैंने लिखा था, नीरज को ले जाने वालों, नीरज नहीं मरा करता है.
जो नीरज को ले गए हैं यमराज के दूत, आशा है कि उनकी यह यात्रा भी बहुत आनंदपूर्वक बीती होगी. रास्ते भर दादा ने गीत सुनाए होंगे, गज़लें सुनाई होंगी. वे कहते भी थे कि जो मोल है वह आत्मा का है. शरीर का नहीं है. उनका एक दोहा भी है 'आत्मा के सौन्दर्य का, शब्द रूप है काव्य मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य.'
मैं उसे यूं पढ़ना चाहता हूं कि 'कवि होना तो भाग्य है, कवि होना सौभाग्य.'
(डॉ. कुमार विश्वास जाने-माने कवि और लेखक हैं.)