स्कूली बच्चों में क्यों पनप रही हिंसक प्रवृत्ति?
Advertisement
trendingNow1369074

स्कूली बच्चों में क्यों पनप रही हिंसक प्रवृत्ति?

हम लोगों के समय स्कूलों की होने वाली छुट्टियों की बात आज परी कथाओं की तरह अविश्वसनीय हो गई हैं. हम लोगों को अफसोस होता था कि इतनी छुट्टियां क्यों हो गईं. आज हमारे बच्चों को अपने ही साथियों की हत्या करनी पड़ रही है, ताकि छुट्टियां हो जाएं.

स्कूली बच्चों में क्यों पनप रही हिंसक प्रवृत्ति?

 

बच्चों के छोटे हाथों को, चांद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे

 

मशहूर शायर निदा फ़ाजली साहब की उंगलियां जब इन शब्दों को रच रही होंगी, तब निश्चित तौर पर उनके जेहन में आज की शिक्षा व्यवस्था के प्रति एक जबर्दस्त आक्रोश का भाव रहा होगा. उस शिक्षा के प्रति, जो बच्चों की कल्पना के पंखों को कतरकर उनसे उनको बचपने से महरूम करके हम जैसा परिपक्व और ठस्स बना रही है. नौ साल पहले सन 2009 में आई लगभग तीन घंटे की लंबी किंतु बेहद रोचक, अत्यंत चर्चित एवं सुपरहिट फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ ने भी कहीं न कहीं निदा साहब के इन विचारों के प्रति अपनी स्वीकृति का फिल्मी इज़हार किया था.

यहां मेरी बहुत गंभीर और एक अत्यंत संवेदनात्मक चिंता यह है कि क्या इनका कोई प्रभाव, तनिक भी प्रभाव समाज अथवा अभिभावकों की चेतना पर पड़ा. यदि पड़ा होता, तो मुझे नहीं लगता कि कुछ ही समय के अंतराल में हुई देश को दिल दहला देने वाली ये तीन मासूम किंतु अत्यंत क्रूर घटनाएं देश के कानों को सुनने को मिलतीं. अनेक अनजानी घटनाओं के अतिरिक्त ये तीन घटनाएं हैं -

लखनऊ की मात्र 11 साल की एक लड़की स्कूल के एक 7 साल के लड़के की चाकू मारकर हत्या कर देती है. क्यों? मात्र इसलिए, ताकि उस दिन स्कूल की छुट्टी हो जाए.

- गुरुग्राम स्कूल का लगभग इसी उम्र का एक छात्र एक छोटे से लड़के को इसलिए मार देता है, ताकि परीक्षा की तारीख टल जाए.

- हरियाणा के यमुना नगर का एक छात्र अपने ही स्कूल की प्राचार्य की छाती पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसा देता है, ताकि वह उसकी शिकायत करने के लिए बचे ही नहीं.

पढ़ाई के प्रति अरुचि और विद्रोह का एक अन्य रूप वहां दिखाई देता है, जब बच्चे खुद के प्रति हिंसक और निर्मम होकर स्वयं को ही खत्म कर रहे हैं. इस तरह की घटनाएं अभी तक अमेरिका में तो खूब होती थीं, अब अपने यहां भी शुरुआत हो गई है. भारत, अमेरिका बनने की राह पर है! हम विकसित हो रहे हैं(?).

पढ़ें : एक राजनेता का कमाल का कदम

महानगरों और उससे थोड़े छोटे नगरों की बात तो छोड़िए, आप डेढ़-दो लाख की आबादी वाले शहरों में सुबह-सुबह घूमने निकल जाइए. आपको पीले रंग की बड़ी-बड़ी बसें, काला धुंआ उगलते और भयानक शोर मचाते हुए ऑटो ऐसे बेतहाशा भागते हुए दिखाई देंगे, जिनमें ठूंसे हुए नन्हे बच्चे ऊंघते नजर आएंगे. इससे उनके दिन की शुरुआत होती है और होमवर्क करते-करते ही बिस्तर पर लुढ़क जाने से उनके दिन का अंत होता है. ऐसा इसलिए, सिर्फ इसलिए किया जाता है, ताकि स्कूल की बिल्डिंग का मालिक दो पालियों में स्कूल चलाकर अपनी लागत पर अधिक से अधिक लाभ कमा सके. अभिभावक इसके पक्ष में इसलिए रहते हैं, ताकि वे बच्चों से छुट्टी पाकर अपने-अपने कामों में लग सकें. 

हम लोगों के समय स्कूलों की होने वाली छुट्टियों की बात आज परी कथाओं की तरह अविश्वसनीय हो गई हैं. हम लोगों को अफसोस होता था कि इतनी छुट्टियां क्यों हो गईं. आज हमारे बच्चों को अपने ही साथियों की हत्या करनी पड़ रही है, ताकि छुट्टियां हो जाएं.

अभी जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनने वाली है, उसमें इस तथ्य पर भी विचार किया जाना चाहिए और पूरी गंभीरता से किया जाना चाहिए. मुझे यह समस्या एक ग्लेशियर की तरह मालूम पड़ रही है, जो दिखता तो बहुत कम है, लेकिन खतरनाक बहुत अधिक होता है. 'टाइटैनिक' को याद कर लीजिए.

(डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ लेखक और स्‍तंभकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

Trending news