अमेरिका सरीखे विकसित देशों का तर्क रहा है कि जब सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य देकर किसानों से सीधे अनाज खरीदती है, तो इससे खुले बाजार में प्रतिस्पर्धा कमजोर पड़ती है.
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क्या किसानों को कर्ज से मुक्ति मिलेगी? क्या किसानों को उनकी उपज की लाभदायक कीमत मिलेगी? क्या किसान को खुले बाजार में राज्य का संरक्षण मिलेगा? और क्या अब किसानों को आत्महत्या नहीं करना पड़ेगी? ये सवाल अभी बहुत स्पष्ट हैं, किन्तु वैश्विक आर्थिक-राजनीति इन सवालों को हल नहीं होने देना चाहती है. वस्तुतः ये सवाल तब बहुत गहरे हो गए थे, जब 20 साल पहले भारत जैसे देशों ने खेती को डब्ल्यूटीओ के दायरे से बाहर रखने के विचार की वकालत नहीं की. अब यह सवाल भस्मासुर हो गया है. एक बार फिर विश्व व्यापार संगठन (WTO) में इस विषय पर वार्ता होगी, किंतु लगता है कि कोई सर्वसम्मत समाधान नहीं निकलेगा.
बहरहाल 28 नवंबर, 2017 को यानी डब्ल्यूटीओ की 11वीं मंत्री वार्ता (10-13 दिसंबर 2017) के लगभग दो हफ्ते पहले भारत में कृषि और खाद्य सुरक्षा के संबंध में लोक भंडारण, सब्सिडी और खाद्य कार्यक्रमों पर अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2001 में शुरू हुए दोहा विकास चक्र के तहत डब्ल्यूटीओ में यह तय किया गया था कि विकास के परिप्रेक्ष्य में कृषि के लिए दी जाने वाली घरेलू कृषि राज सहायता (सब्सिडी) में कमी लाई जाए. इसमें कहा गया था कि उर्वरक, फसल प्रोत्साहन, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी और सस्ते मूल्य पर अनाज का वितरण सरीखे कार्यक्रमों पर लगाम कसी जाए, क्योंकि कृषि को इस तरह की सब्सिडी दिए जाने से खुले बाजार को नुकसान पहुंचता है. वैसे अच्छी और बुरी सब्सिडी को परिभाषित करने का तरीका भी बहुत गड़बड़झाले वाला रहा है.
अमेरिका सरीखे विकसित देशों का तर्क रहा है कि जब सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य देकर किसानों से सीधे अनाज खरीदती है, तो इससे खुले बाजार में प्रतिस्पर्धा कमजोर पड़ती है. कीमतें तय करने में बाजार की भूमिका कम और सरकार की भूमिका ज्यादा हो जाती है. वस्तुतः कोशिश थी कि डब्ल्यूटीओ में विकसित देश अन्य देशों की कृषि राज सहायता कम करवा लेंगे ताकि वहां उत्पादन लागत बढ़ जाए और विकसित देशों में भारी राज सहायता से होने वाली औद्योगिक खेती के उत्पाद की विकासशील-अल्पविकसित देशों के बाजार में पूरी घुसपैठ हो जाए.
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डब्ल्यूटीओ में प्रस्ताव है कि खाद्य सुरक्षा के लिए लोक भंडारण पर दी जाने वाली अंबर-बॉक्स सब्सिडी विकसित देशों में सकल कृषि उत्पादन की कीमत के 5 प्रतिशत और विकासशील देशों में 10 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. यदि कोई देश इस सीमा को लांघेगा तो उस पर डब्ल्यूटीओ की अदालत में प्रकरण दर्ज किया जा सकता है और अन्य प्रतिबंधात्मक कार्यवाहियां की जा सकती हैं. इसका भारत में सीधा नकारात्मक असर किसानों से की जाने वाली अनाज खरीदी, राशन व्यवस्था, किसानों की कर्जमुक्ति, उपज के उचित मूल्य की व्यवस्था करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति सरीखे कदमों पर पड़ता है. भारत वर्ष 2001 से कह रहा है कि इस विषय पर वह अव्यवहारिक और आत्मघाती सहमति नहीं देगा. वर्ष 2017 में जबकि देश के लगभग सभी राज्यों में किसान बदहाली में है, किसान संगठन सरकार से टकराने के मुद्रा में हैं और 1995 से अब तक 3.35 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं, ऐसे में भारत के सामने एक ही विकल्प है कि वह इस विषय पर किसान-कृषि-नागरिक हित ध्यान में रखते हुए स्थायी समाधान के लिए डब्ल्यूटीओ पर दबाव बनाए. यह जानना जरूरी है कि डब्ल्यूटीओ में सब्सिडी को तीन वर्गों में बांटा गया है- ब्लू बॉक्स (बाजार को संतुलित बनाए रखने ने लिए जरूरत पड़ने पर उत्पादन कम करने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी. इसकी कोई सीमा नहीं है.) ग्रीन बॉक्स (ऐसी सब्सिडी, जो बाज़ार को कम या बिल्कुल नुकसान नहीं पहुंचाती है. मसलन फसल खराब होने पर मुआवजा, पर्यावरण बचाने के लिए किसानों-खेती को सहायता, फसल बीमा, गरीबी में रह रहे लोगों को खाद्यान्न, शोध और अनुसंधान के लिए सहायता आदि. इस पर भी कोई सीमा नहीं है). अंबर बॉक्स (सभी ऐसी सब्सिडी, जिनसे बाजार को नुकसान पहुंचता है. इसमें समर्थन मूल्य या उत्पादन की मात्रा तय करने के लिए दी जाने वाली सहायता शामिल है. इसे कम/खत्म किए जाने की वकालत डब्ल्यूटीओ में हो रही है).
18 जुलाई 2017 को भारत और चीन में डब्ल्यूटीओ में एक साझा प्रस्ताव रखा था कि सबसे पहले विकसित देशों को उस अंबर बॉक्स सब्सिडी को खत्म करना चाहिए, जो बाजार को नुकसान पहुंचाती हैं. इसमें उत्पादन बढ़ाने, लागत को कम करने, किसानों को उपज की कीमत देने, खाद, बीज, सिंचाई, बिजली, कृषि ऋण के लिए दी जाने वाली राज सहायता शामिल होती है. इस संयुक्त प्रस्ताव में कहा गया है कि दुनिया में बाजार को नुकसान पहुंचाने वाली वैश्विक सब्सिडी में 90 प्रतिशत हिस्सेदारी (160 बिलियन डॉलर) विकसित देशों की है, पर दबाव विकासशील देशों पर बनाया जा रहा है.
अमेरिका कहता है कि उसमें वर्ष 1995 में दी जाने वाली 6.1 अरब डॉलर की सब्सिडी को कम करके वर्ष 2014 में 3.8 बिलियन डॉलर कर दिया है. इसके उलट इसी अवधि में उसकी ग्रीन बॉक्स सब्सिडी 46 बिलियन डॉलर से बढ़कर 124.5 बिलियन डॉलर हो गई. साफ दिखाई देता है कि अमेरिका केवल सब्सिडी के डिब्बे बदल रहा है.
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भारत पर इसके गहरे असर होंगे, क्योंकि भारत वर्ष 2013-14 में किसानों को केवल 43.6 बिलियन डॉलर (प्रति किसान 228 डॉलर) की घरेलू सहायता दे रहा था, जबकि अमेरिका 146.8 बिलियन डॉलर (प्रति किसान 68,910 डॉलर), यूरोपियन संघ 130.4 बिलियन डॉलर (प्रति किसान 12,384 डॉलर) और जापान 33.9 बिलियन डॉलर (प्रति किसान 14,136 डॉलर) की सब्सिडी दे रहे थे. ऐसे में यदि भारत किसानों को घरेलू सहायता देना कम करता है, तो यह भारत के इतिहास का सबसे विकृत नीति का समय होगा.
दोहा विकास दौर के तहत खाद्य सुरक्षा और लोक भंडारण के मुद्दे पर पिछली दो मंत्रीवार्ताओं (बाली-वर्ष 2013, नैरोबी–वर्ष 2015) में बड़ी गहमागहमी रही थी किन्तु वहां इस पर कोई अंतिम निर्णय नहीं हो पाया था. तब बाली में “पीस क्लाज़” को स्वीकार किया गया था. जिसमें उल्लेख था कि जब तक इस विषय का स्थायी समाधान नहीं हो जाता, तब तक सदस्य देश खाद्य सुरक्षा के लिए जितना अनुपात व्यय कर रहे हैं, उसे वे जारी रख सकते हैं. उन पर डब्ल्यूटीओ में कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जाएगी. भारत ने अपने वक्तव्य में कहा है कि “स्थाई समाधान पीस क्लाज़ से बेहतर होना चाहिए और मौजूदा नियमों में बदलाव करके इसे स्थायित्व देने के लिए कानूनी स्वरूप दिया जाना चाहिए. यदि हम ब्यूनस आयर्स में समाधान नहीं खोज पाए, तो यह एक बड़ी असफलता और डब्ल्यूटीओ के लिए अपूर्णीय क्षति होगी. डब्ल्यूटीओ का मौजूदा कृषि समझौता कुछ चुनिंदा विकसित देशों को बाजार को नुकसान पहुंचाने वाली असीमित घरेलूसहायता देने की अनुमति देता है. बाजार में अनिश्चितता और असमानता की जन्मदाता का प्रावधान यही है”.
भारत ने व्यापार समझौता समिति और प्रतिनिधिमंडल प्रमुखों की बैठक में अपना वक्तव्य देते हुए कहा है, “ब्यूनस आयर्स की बैठक पर दुनिया की निगाहें हैं, यदि हम बहुपक्षीयता, विकास और समावेश के प्रति उत्तरदायी नहीं रहते हैं और अपने निर्णय में इन दिशा-निर्देशी सिद्धांतों का उल्लेख न करते हुए चुप्पी साध लेते हैं, तो वह चुप्पी किन्ही भी शब्दों से ज्यादा बोलने वाली होगी और इस संगठन की विश्वसनीयता खत्म हो जाएगी”. भारत ने साफ़ किया कि “खाद्य सुरक्षा के लिए लोक भंडारण पर स्थायी समाधान हमारे लिए प्राथमिकता है. इसके समाधान से ही सतत विकास लक्ष्य-2 यानी भुखमरी-कुपोषण की समाप्ति के लिए प्रतिबद्धता का सन्देश जाएगा.”
डब्ल्यूटीओ में यह तय किया गया था कि दिसंबर 2017 तक हम स्थायी समाधान पर पहुंच जाएंगे, पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है. खाद्य सुरक्षा पर स्थायी समाधान के लिए शर्त के रूप में पारदर्शिता के बहुत कठोर प्रावधान प्रस्तावित किए जा रहे हैं. जिनका विषय सूची में कोई वजूद नहीं था. उल्लेखनीय है कि अमेरिका ने 31 अक्टूबर 2017 को यह सन्देश दे दिए कि वह डब्ल्यूटीओ के दोहा विकास दौर को अब सदैव के लिए सुला देना चाहता है. अमेरिका ने संगठन के सदस्यों को अधिकारों को बेहद सीमित करने के लिए पारदर्शिता के प्रावधान और जानकारियों की अनिवार्य अधिसूचना जारी करने से संबंधित प्रस्ताव पेश कर दिया.
अमेरिका ने प्रस्तावित किया है कि व्यापार, कृषि, राज सहायता-सब्सिडी, व्यापार क्षेत्रों को संरक्षित करने से संबंधित सभी उपायों, लाइसेंसिंग, निरीक्षण, व्यापार के लिए निवेश से लेकर व्यापार में तकनीकी बाधाओं पर होने वाले अनुबंधों से संबंधित जानकारियां डब्ल्यूटीओ समिति, कार्यकारी समूहों या अन्य समूहों को उपलब्ध करवानी होगी. कोई देश निश्चित तारीख से एक वर्ष के भीतर पूरी जानकारी अधिसूचित नहीं करता है, तो उसे इसका कारण बताना होगा और समिति उससे जानकारी हासिल करेगी, लेकिन उसे ‘अपराधी देश” माना जाएगा. अमेरिका चाहता है कि सभी देश अपनी सब्सिडी, सहायता कार्यक्रम, नीतियां और उससे संबंधित सभी जानकारियां सामने लाएं ताकि वह डब्ल्यूटीओ या अन्य न्यायिक प्रक्रियाओं में उनका इस्तेमाल करके देशों पर दबाव बना सके. प्रस्ताव है कि जो देश तय तारीख से 2 साल के अंदर सभी जानकारियां नहीं देगा, उसे डब्ल्यूटीओ समितियों के प्रमुख पद नहीं दिए जाएंगे, उन्हें मुख्यालय से दस्तावेज नहीं दिए जाएंगे, वे संगठन की वेबसाइट का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे; यानी संगठन में उन्हें अपमानित किया जाएगा. यदि दो साल के बाद भी कोई देश जानकारी अधिसूचित नहीं करता है तो उसे “निष्क्रिय” सदस्य घोषित कर दिया जाएगा.
वास्तविकता तो यह है कि डब्ल्यूटीओ में कोई ‘विश्वसनीयता” नहीं है. इस मंच का इस्तेमाल विकसित देशों और “बड़े व्यापारिक समूहों और कॉर्पोरेट्स” ने अपने हित की नीतियां बनवाने में किया है. मसलन अमेरिका द्वारा पेश की जाने वाली जानकारियां भी “सही” नहीं मानी जाती हैं, लेकिन वह अपनी ताकत का इस्तेमाल करके दुनिया को धमकाने की प्रक्रिया में है. उसके साथ ही विकसित देश कोशिश कर रहे थे कि डब्ल्यूटीओ में केवल निर्यात प्रोत्साहित करने वाली सब्सिडी के साथ साथ घरेलू सब्सिडी (डोमेस्टिक सपोर्ट-उत्पादक के स्तर पर कीमतों को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार की कीमतों के समान रखने, किसानों को सीधी आर्थिक सहायता देने और उन्हें कम कीमत मिलने की स्थिति में हानि कम करने के लिए की जाने वाली सहायता) को भी समझौता वार्ता के केंद्र में ले आया जाए. भारत के मुख्य वार्ताकार ने साफ़ कर दिया है कि वह घरेलू सहायता के समझौतों को खाद्य सुरक्षा के लिए लोक भंडारण के विषय के जुड़ा हुआ नहीं मानता है.
इस तरह का प्रस्ताव लागू करवाकर और घरेलू सहायता को भी कम करने का दबाव बनाकर अमेरिका खाद्य सुरक्षा के लिए लोक भंडारण पर सब्सिडी के मुद्दे पर “मोलभाव” करना चाहता था, ताकि भारत, अफ्रीका सरीखे देश झुकें; लेकिन भारत ने अमेरिका की इस कोशिश को नकार दिया है. अभी थोड़ी उम्मीद है कि भारत खाद्य सुरक्षा के लिए लोक भंडारण के मुद्दे पर निर्णय लेते समय अपने किसानों और नागरिकों और भारत को भविष्य को ध्यान में रखेगा.
(लेखक विकास संवाद के निदेशक, शोधकर्ता और अशोका फेलो हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)