Zee Analysis : सरकार की पहल; बैंकों को दिया कर्ज ला सकता है सुधार
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Zee Analysis : सरकार की पहल; बैंकों को दिया कर्ज ला सकता है सुधार

प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकारों ने विकास तेज करने के लिए दस विषयों का चयन किया है. इसमें आर्थिक विकास दर, रोजगार से लेकर कृषि सेक्टर तक शामिल हैं.

Zee Analysis : सरकार की पहल; बैंकों को दिया कर्ज ला सकता है सुधार

भारत सरकार ने बजट से देश की अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए एक बड़ा कदम उठाने का फैसला लिया है. जिसके चलते अब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अर्थव्यवस्था में कर्ज उपलब्धता बढ़ाने और आर्थिक वृद्धि को तेज करने के लिए पब्लिक सेक्टर के 20 बैंको में 88,139 करोड़ रुपए की नई पूंजी डालने की घोषणा की है.

वित्त मंत्री अरुण जेटली का ये लगातार पांचवा बजट होगा. मोदी शासन का ये अंतिम पूर्णकालिक बजट है और जीएसटी लागू किए जाने के बाद पहला बजट है. स्वाभाविक रूप से इसका प्रभाव बजट पर होना लाजिमी है.

बीते कुछ समय से आर्थिक विशेषज्ञ देश की आर्थिक हालत को लेकर कई तरह की चिंता व्यक्त कर रहे हैं. और इसका असर देश की जीडीपी पर पड़ने की आशंका भी है. इसके पीछे नोटबंदी की वजह से पड़ा प्रभाव, बैंक क्रेडिट ग्रोथ में धीमी बढ़ोतरी, बैड लोन की समस्या और गुड्स एंड सर्विस टैक्स यानी जीएसटी की वजह से औद्योगिक क्षेत्र में आया अनिश्चित्ता का माहौल, छंटनी, बेरोजगारी, एक्सपोर्ट में कमी, इम्पोर्ट में वृद्धि, बैंकों के एनपीए में बढ़ोतरी, कोर सेक्टर की धीमी गति जैसे मुद्दों को कारण माना जा रहा है. ऐसे में सरकार चाहेगी कि वह हालात को काबू में लाए. अब बजट से पहले सरकार का यह कदम उसी कड़ी का एक हिस्सा है. ये भारत के आर्थिक भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिहाज से एक अहम फैसला है.

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बैंकों में फंसा कर्ज देश की आर्थिक व्यवस्था के लिए एक बहुत बड़ी समस्या बन गया है. वैसे नई पूंजी डालने से पहले वित्त मंत्री अरुण जेटली ने देश के पब्लिक सेक्टर बैंकों की बीते एक दशक में जो लचर हालत हुई है उसमें सुधार के लिए 2.11 लाख करोड़ रुपए की मदद की घोषणा भी की थी. इसके पीछे नॉन परफार्मिंग असेट्स को वजह बताया गया.

क्या होता है नॉन परफॉर्मिंग असेट्स : जब कोई कर्ज लेने वाला अपने बैंक को ईएमआई नहीं दे पाता है तो उसका लोन अकाउंट नॉन-परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) कहलाता है. जब किसी लोन की ईएमआई, प्रिंसिपल या इंटरेस्ट ड्यू डेट के 90 दिन के भीतर नहीं आती है तो उसे एनपीए में डाल दिया जाता है. इसे ऐसे भी लिया जा सकता है कि जब किसी लोन से बैंक को रिटर्न मिलना बंद हो जाता है तब वह उसके लिए एनपीए या बैड लोन हो जाता है. लोन पर डिफॉल्ट के चलते बैंकों पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़े, इसके लिए आरबीआई ने उसके लिए प्रोविजन करने का नियम बनाया है. बैंक को प्रोविजन के बराबर की रकम बिजनेस से अलग रखनी पड़ती है. एनपीए भी इकोनॉमिक स्लोडाउन में एक अहम भूमिका निभाता है.

गौरतलब है कि 2008 में अमेरिकी बैंकों पर इसी तरह से संकट उत्पन्न हो गया था. वहां लेहमन ब्रदर्स जैसी कंपनियों को बड़े ऋण दे दिए गए थे. लेहमन ब्रदर्स जब कर्ज को वापस नहीं कर पाई, तो इससे पूरी अमरीकी अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी. ऐसा ही संकट हमारे देश में न आ जाए इसलिए वित्त मंत्री ने ये फैसला लिया है.

ऐसा ही एक फैसला सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी ने सरकारी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके किया था. उनका ऐसा मानना था कि निजी बैंकों के जरिये केवल बड़े उद्यमियों को ही कर्ज मिल पाता है. आम आदमी को कर्ज देने में कोई रुचि नहीं लेता है. इसलिए उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. बैंकिंग सेवाओं को गांव की जनता के साथ जोड़ने का ये एक अभिनव प्रयास था ऐसा ही प्रयास वर्तमान सरकार का ग्रामीण जनता को लेकर नजर आता है. हाल ही में जिस तरह से जनधन योजना के तहत खाते खोलकर आम जनता को बैंकिग सेवाओं से जोड़ने की कोशिश की गई वो भी इसी तरह की एक सराहनीय पहल थी.

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इससे पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानि आईएमएफ ने भी भारत के लिए अनुमानित आर्थिक विकास दर को 0.5 प्रतिशत घटाकर 6.7 फीसदी कर दिया है और नोटबंदी और GST को इसकी वजह करार दिया है. गौरतलब है कि इससे पहले रिजर्व बैंक भी 2017-18 की अनुमानित आर्थिक विकास की दर को घटाकर 6.7 फीसद कर चुका है.

विकास तेज करने के लिए 10 विषय : प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकारों ने विकास तेज करने के लिए दस विषयों का चयन किया है. इसमें आर्थिक विकास दर, रोजगार से लेकर कृषि सेक्टर तक शामिल हैं. आर्थिक सलाहकारों ने प्राथमिकता सूची में असंगठित क्षेत्र, मौद्रिक नीति, लोक व्यय, आर्थिक संस्थानों और सोशल सेक्टर को भी शामिल किया है.

बताते चलें कि भारत में जीडीपी को मापने के तरीके में बदलाव आया है. पहले जीडीपी के आंकलन के लिए 2004-5 को बेस ईयर माना जाता था. बेस ईयर दरअसल कमोडिटीज की उस कीमत की गणना करने के लिए एक मानदंड का काम करता है जिसका लेखा-जोखा जीडीपी में होता है. हालांकि बीजेपी की सरकार आने के छह महीने बाद इस बेस ईयर को बदलकर 2011-12 कर दिया गया. इसी कड़ी में एक और बदलाव के तहत फैक्टर कॉस्ट को हटाकर मार्केट प्राइसिंग मॉडल लाया गया.
साधारण शब्दों में कहें तो देश में होने वाली आर्थिक गतिविधि की गणना अब उत्पादों के मौजूदा मार्केट प्राइस पर की जाने लगी जो कि पहले इन उत्पादों के उत्पादन में लगने वाले गुड्स और सर्विसेज की लागत पर की जाती थी. इस बदली हुई प्रक्रिया की वजह से विकास का कुल जोड़ बढ़कर दिखाई देने लगा जिसे लेकर मौजूदा सरकार और उसके आलोचकों के बीच खींचतान जारी है. तमाम विश्लेषण और आंकलन के बीच आने वाला बजट देखते हैं कि भारतीय अर्थव्यव्स्था को किस करवट बैठाता है.

2019 में देश में आमचुनाव हैं. और सरकार अपने लेखे-जोखे के साथ एक बार फिर जनता की अदालत में होगी, लिहाजा अब वह बैंकिंग सेक्टर की क्षमताओं को दोबारा मजबूत करने की योजना पर काम कर रही है ताकि आर्थिक विकास दर तेज हो सके.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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