पुराने घावों की नई परख: रेत समाधि
कथा सार संक्षेप यह है कि कथा के केंद्र में दो औरतें हैं एक बड़ी हो रही हैं और दूसरी छोटी. दोनों रिश्ते में मां बेटी हैं
नई दिल्ली: कुछ किताबें जब पूरी हो जाती हैं तो अपने पाठक को उदास कर जाती हैं, खासतौर से उपन्यास. सिर्फ इसलिए नहीं कि उनका अंत बहुत दुखद है, बल्कि इसलिए कि उनके साथ पाठक एक पूरी दुनिया जीने लगता है और किताब के अंतिम पृष्ठ को पलटते हुए वह दुनिया भी समेट देनी पड़ती है. गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत समाधि को पूरा करते हुए पाठक इसी भाव से भर जाता है. अपनी खूबियों और कमियों के साथ एक पूरा परिवार, उसका देश काल था उसके साथ, जिसकी हलचलों में वह शामिल रहा है और अब वही हलचलें अपने कथा कह चुकी हैं. किसी भी उपन्यास या किताब की यह पहली सफलता भी कही जा सकती है.
कथा सार संक्षेप यह है कि कथा के केंद्र में दो औरतें हैं एक बड़ी हो रही हैं और दूसरी छोटी. दोनों रिश्ते में मां बेटी हैं. बड़ी हो रही स्त्री यानी बेटी हर सीमा को लांघ जाना चाहती है पर हर सरहद से डरती है. और छोटी हो रही स्त्री यानी मां उम्र भर सीमाओं में बंधी रहती है पर अंत में कोई सरहद उसे रोक नहीं पाती. पर यह छोटी सी कथा इतनी विराट, इतनी वृहत है कि कई परतों के साथ पाठक के सामने खुलती है और पाठक उसमें बिना दिशा भान के बहता चलता है - कि जैसे रेत का कोई समुद्र हो, जिसमें नहीं पता कि कब, कहां, कौन सा टीला बन जाएगा और दर्द, जीवन, नजर और अनुभव का एक नया शिखर पाठक के सम्मुख खड़ा हो जाएगा. छोटी हो रही स्त्री जब देह, मन, वर्जनाओं की सब सीमाएं लांघ रही होती है वहां एक तीसरा पात्र भी है, रोज़ी बुआ का. बिना किसी लेन देन, या स्वार्थ के केवल स्नेह की डोर से बंधी यह बेहद खूबसूरत प्रेम कथा भी है. इसी कथा की डोर के आगे तय होता है सरहदें लांघ लेने का विराट प्रयास.
बंटवारे को केंद्र में रखकर साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है, अभी और बहुत लिखा जाना है. यह बंटवारे की मार झेलने वाली तीसरी पीढ़ी की आंख कहा जाए तो गलत नहीं होगा. जिसकी कथा गमंचीय भाषा में आगे बढ़ती है. इसे गीतांजलि श्री का विशेष शिल्प भी कहा जा सकता है, जिसमें केवल पात्र ही नहीं बोलते, वहां मौजूद प्रत्येक प्रॉपर्टी (मंच पर मौजूद सामान), ध्वनि, प्रकाश और अंधेरा भी बोलता है. खूबसूरती यह कि जब नहीं बोल रहा होता, तब चुप्पियों के लिए भी लेखिका विशेष अर्थ में संवाद करती हैं. खुद पुस्तक के शब्दों में कहें तो हर पृष्ठ एक रंगमंच है.
तीसरी पीढ़ी किस अविस्मय, किस अचरज और किस रोमांच से उस खूनी बंटवारे की स्मृतियों को देखती है, उसे समझा जाना इस उपन्यास की खासियत है. सरहद पार धर दबोची गई या कैंपों तक बमुश्किल पहुंची हुई लड़कियों की तीसरी पीढ़ी जब अपनी दादियों की इस कथा को सुनती होगी, तो किस अहसास से भरती होगी, इसे समझने और समझाने का सफल प्रयास भी है.
उपन्यास के तीन अध्याय हैं, जिनमें पहला अध्याय ‘पीठ’ है. पति की मृत्यु के बाद कैसे एक गृहस्थ स्त्री सब तरफ से पीठ होती जाती है, इस अध्याय में बहुत सूक्ष्मता और तीक्ष्णता से प्रस्तुत किया गया है. वह इस कदर सबसे पीठ मोड़ चुकी है कि दीवार में जा चिपकी है और लगभग दीवार की भी पीठ ही उग आई है.
दूसरे अध्याय ‘धूप’ में पीठ हो चुकी स्त्री के अरमानों के फिर से खिल उठने की कथा है. जीने का वह बोहेमियन अंदाज जिसे लिए बेटी संयुक्त परिवार से अलग हो गई थी उसी अंदाज में मां ऐसे ढलती और खिल उठती है कि बेटी को खुद के गृहस्थ होने का अहसास होने लगता है. यहीं मां और रोजी बुआ के बीच के खूबसूरत प्रेम को देखने और महसूसने का मौका मिलता है. किसी किन्नर और एक स्त्री के प्रेम का इससे खूबसूरत रिश्ता साहित्य में अभी तक तो याद नहीं आता. इस प्रेम की स्वीकार्यता इतनी उन्मुक्त है कि रोजी बुआ रजा टेलर मास्टर हो जाएं, तो भी कथा और स्नेह में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती.
उसी रोजी बुआ के निर्मम अंत के बाद शुरू होता है उपन्यास का तीसरा और महत्वपूर्ण हिस्सा ‘हद-सरहद’. जब मां रोजी बुआ की आखिरी ख्वाहिश पूरी करने के लिए पाकिस्तान जाने का निश्चय करती हैं, क्योंकि रोजी को उनके किसी रिश्तेदार को चिरौंजी पहुंचानी थीं, जो वे नहीं पहुंचा सकीं. चिरौंजी की वही पोटली और एक पुरानी खंडित मूर्ति लिए छोटी हो रही स्त्री सरहद पार पहुंच जाती है. वहां, जिसकी गलियां, चौक, चौराहे, बाजार, खंडहर और पेड़-पौधे गली-नालियां तक उसकी खास दोस्त रोजी ने उसे दिखाए हैं. जिन रास्तों पर आंखें बंद किए वे आगे बढ़ती हैं, क्योंकि आंखे खोल देने से स्मृतियों के ‘बैंक’ को वर्तमान दृश्य बाधित करते हैं. बाधाएं आती हैं और निरंतर बनी रहती हैं, अब भी बनी हुईं हैं. यही बाधाएं प्रेम को असामयिक मौत मरने पर मजबूर कर देते हैं. शिल्प की बात करें तो रंगमंचीय और कलात्मक भाषा होने के बावजूद लेखिका कहीं भी नाटकीय नहीं होती हैं. वहां कोई मेलोड्रामा नहीं है, बस सीधी सी बात है कि यह सरहद कितनी बुरी है, जहां दो प्रेमियों को एक-दूसरे से ‘सॉरी’ कहना पड़ा कि सरहदों के बंटवारे के कारण उन्हें अलग-अलग घर बसाने पर मजबूर होना पड़ा.
एक बार जानी-मानी पेंटर अर्पणा कौर ने निजी बातचीत में कहा था कि सोहणी कोई ऐसी थोड़े ही थी, जैसी लोग तस्वीरों में बना देते हैं ‘प्लग्ड आइब्रो’ वाली. अर्पणा कौर के इस कथन का जवाब गीतांजलि श्री के उपन्यास में मिलता है, जहां खैबर में कैद में बैठी बेटी की नाक का बाल बढ़ आया है, वह अपने प्रेमी और उसकी कैंची दोनों को एक साथ याद करती है. कम उम्र के बिन दाढी वाली सिपाही को देखकर वह सोचती है कि असल में शेव की जरूरत तो उसे खुद को है, जहां होंठों के उपर उसकी मूंछें उग आईं हैं, पता नहीं इस हालत में केके (उसका प्रेमी) उसे पहचान भी पाएगा कि नहीं. बोहेमियन जिंदगी जीने
वाली लड़की यहां गैर मुल्क में चुन्नी से सिर ढंके रहती है कि शायद वह उनकी परंपराओं का सम्मान करे, तो वह भी उनका यानी कैदियों का सम्मान करें, जबकि सरहदों को धता बताती मां न सिर ढकती है, न बड़े अफसर से बात करते हुए कोई लिहाज करती है. हालांकि शब्दों और दृश्यों की धड़ाधड़ आमद कहीं कहीं पाठ को बाधित भी करती है, पर कथा नहीं रुकती और वह उपसंहार तक पहुंचती है. जहां फिर वही संयुक्त परिवार है अपनी खूबियों और कमियों के साथ, वहीं सरकारी दांवपेंच हैं, वहीं अखबारी कतरनें हैं, और वही लच्छेदार, रस लेती बातें हैं.
बंटवारे में अपना घर बार ही नहीं अपना दिल और अहसास भी पीछे छोड़ देने वाले प्रेमियों की कथा को पढ़ने के लिए इस उपन्यास को पढ़ा जाना चाहिए. आपने अपने देश का स्वाद नहीं चखा है या साड़ियों के बारे में आपका ज्ञान कम है, या आपकी भाषा आपको अन्य जीवों से दूर कर देती है, तो भी आपको इस उपन्यास को पढ़ना चाहिए. यह जिंदगी को थोड़ी और तमीज से जीने की समझाइश देता है.
कृति – रेत समाधि
लेखिका – गीतांजलि श्री
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन
मूल्य – 795 रुपये