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निर्देशक: आकाशादित्य लामा
स्टार कास्ट: अंकुर अरमान, सुरभि, फलक राही, अनिल रस्तोगी, ओंकार मानिकपुरी, आदित्य लखिया, अतुल गंगवार आदि
कहां देख सकते हैं: सिनेमाघरों में
स्टार रेटिंग: 3
Bengal 1947 Movie Review: अनिल शर्मा के साथ ब्लॉक बस्टर मूवी गदर के असिस्टेंट डायरेक्टर रहे आकाशादित्य लामा ने जब अपनी मूवी बनाई तो वो कहानी को पंजाब के बजाय पूर्वी पाकिस्तान यानी बंगाल ले गए. हालांकि विभाजन की त्रासदी और प्रेमिका के सरहद पार चले जाने के अलावा इस मूवी में और गदर से कोई और बड़ी समानता नहीं है. ना प्रेमी प्रेमिका अलग अलग धर्मों के हैं, ना हीरो सरहद पार जाता है, ना ही प्रेमिका का बाप अमरीश पुरी जैसा कद्दावर विलेन या नेता है. ना ही फिल्म में कोई बड़ा सितारा या फार्मूलों की भरमार है, बावजूद इसके ये मूवी देखने वालों पर असर छोड़ती है.
बंगाल 1947 आपको गदर का रियलिटी वर्जन लगता है, विभाजन पर तमाम अतिश्योक्ति पूर्ण फिल्में देखने के बाद युवा अगर उस वक्त के समाज की सच्चाई देखना चाहते हैं तो ये मूवी आईने का काम करती है. कम बजट होने के बावजूद टेक्निकली मूवी किसी भी मोर्चे पर कमजोर नहीं लगती. डायलॉग्स से लेकर म्यूजिक तक, एडिटिंग से लेकर बैकग्राउंड स्कोर तक की मेहनत आपको दिखती है और बिना एंटरटेनमेंट फार्मूलों के इस्तेमाल के भी मूवी आपको अंत तक बांधे रखती है.
'बंगाल 1947' कहानी
कहानी शुरू होती है आजादी मिलने से ठीक पहले और भारत विभाजन के लिए बने रेडक्लिफ आयोग की रिपोर्ट के इंतजार बैठे, बंगाल के दो तालुकों की, जहां के बहुत लोग पाकिस्तान जाने की उम्मीद लगाए बैठे हैं तो दूसरी ओर वो लोग भी हैं, जिनको इस बात का ही सबसे ज्यादा डर है. दोनों के जमींदार परिवारों के बीच एक रिश्ता होना है, लंदन से पढ़कर आया मोहन (अंकुर अरमान) अपनी होने वाली पत्नी से मिलने नाव से जाता है, लेकिन उतरता है अछूत डोम परिवारों की बस्ती में. जहां इंतजार था लंदन से ही आए उन्हीं की बिरादरी के युवक चंदन का, जो उनके बच्चों को पढ़ाने आने वाला था.
मोहन पढ़ाई को लेकर उनकी आकांक्षा को देख खुद ही चंदन बन जाता है और उनके बच्चों के साथ साथ शबरी की भी पढ़ाने लग जाता है. शबरी के मन में उठा प्रेम मोहन को भी इश्क करने पर मजबूर कर देता है, उधर उसकी होने वाली पत्नी को भी उसका इंतजार था, लेकिन बिना टेलीफोन वाले उस दौर में लोगों को इंतजार की भी आदत थी. प्रेम कहानी के साथ साथ मूवी में एक और कहानी आगे बढ़ रही है, गांव का एक दमदार मुस्लिम 40 प्रतिशत मुस्लिमों के दम पर बाकी को दबाना चाहता है, तो 25 प्रतिशत दलित भी जिन्ना के पिछलग्गू बने जोगेंद्र नाथ मंडल के कहने पर पाकिस्तान में मिलना चाहता है.
ऐसे में प्रेम कहानी और दलित मुस्लिम की इस राजनैतिक समस्या को एक साथ आकाशादित्य लामा ने उस दौर के एजेंडे को उजागर करते हुए फिल्म को किस खूबसूरती के साथ आगे बढ़ाया है, यही देखने लायक है. आधी मूवी के बाद टीवी एक्ट्रेस देवोलीना भट्टाचार्य एक तवायफ के किरदार में अवतरित होती हैं, उन पर फिल्माया गया गाना ए री सखी..हम सौतन के घर जायिएं.. बहुत ही उम्दा बन पड़ा है. दूसरा गीत 'मिलन कब होगा जाने' भी अच्छा बन गया है.संगीतकार अभिषेक रे ने एक गाने को अपनी आवाज भी दी है.
दोनों जमींदार परिवारों के मुखिया के तौर पर अनिल रस्तोगी और सोहिला कपूर, शबरी के पिता के तौर पर आदित्य लखिया और एक अहम किरदार में पीपली लाइव वाले ओंकार मानिकपुरी किसी परिचय के मोहताज नहीं, और उनकी एक्टिंग पर सवाल करना भी ठीक नहीं. हालांकि ओंकार के हिस्से में इस मूवी में कई बेहतरीन दृश्य आए हैं, कमाल तो पत्रकार से प्रोड्यूसर और एक्टर बने अतुल गंगवार ने भी किया है, एक मुस्लिम दबंग के रोल में कई बार बिना बोले भी भंगिमाओं के जरिए वो बोलते नजर आए. लीड रोल में अंकुर एक खोज साबित हो सकते हैं, अगर उन्हें आगे भी अच्छे रोल मिले तो, लंबे लंबे डायलॉग को सहजता से बोला उन्होंने तो डोम की बेटी शबरी के रोल में सुरभि और जमींदार की बेटी के रोल में फलक राही ने भी निराश नहीं किया.
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'बंगाल 1947' रिव्यू
फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष है डायलॉग्स के जरिए उस एजेंडे या नरेटिव को तोड़ना, जो उस दौर में दलितों को भरमाने के काम आया था. वेदों से लेकर शास्त्रों तक का जो व्हाट्स एप व ट्विटर (एक्स) में जो हवाला दिया जाता है, वो सरल अंदाज में इस मूवी में खारिज किया जाता रहा. और दिलचस्प बात ये थी कि कहीं से भी वो आपको थोपा हुआ नहीं लगता, बल्कि कहानी में ही पिरोया गया है. कहानी के अंत में जिस तरह जोगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान से निराश होकर वापस लौटते हैं, ये सभी डायलॉग्स सामयिक भी लगते हैं. बहुत जल्द ये सोशल मीडिया पर वायरल हो जाएं तो कोई बड़ी बात नहीं.
लेकिन मूवी के लंबे क्लाइमैक्स के अलावा एक कमजोर पक्ष ये भी है कि मूवी के पास बजट की कमी थी, जिसके चलते बड़े सितारे नहीं लिए जा सके और इसी की वजह है कि ये हर सिनेमा हॉल में दिखेगी भी नहीं. फिल्म निर्माताओं सतीश पांडे, ऋषभ पांडे और यहां तक की आकाशादित्य लामा की ये जिद ही थी कि फिल्म बनकर रिलीज हो गई, सो जो सच्चे सिनेमा लवर हैं, इतिहास या राजनीति के छात्र हैं, सामाजिक सरोकारों से जिनका वास्ता है, उनको तो ये फिल्म देखनी ही चाहिए.