Section 6A Of Citizenship Act: सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में पांच जजों की कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच सिटिजनशिप एक्ट की धारा 6-ए को चुनौती देने वाली 17 याचिकाओं पर अंतिम सुनवाई कर रही है. सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर कई याचिकाएं साल 2009 से ही पेंडिंग हैं. दो जजों की बेंच ने साल 2014 में इस मामले को आगे की सुनवाई के लिए कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच के पास भेज दिया था. असम के लोगों और कई संगठनों ने नागरिकता कानून में संशोधन कर जोड़े गए धारा 6 ए के विशेष प्रावधान की वैधता को चुनौती दी है. यचिकाओं में सिटिजनशिप एक्ट के सेक्शन 6-ए को मनमाना और संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया गया है. याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि नागरिकता कानून के इस विशेष प्रावधान के चलते असम के मूल निवासी लोग अपनी ही मातृभूमि में भूमिहीन और विदेशी बनने के लिए मजबूर हो रहे हैं. इसलिए सुप्रीम कोर्ट केवल पूर्वोत्तर राज्य पर लागू होने वाली नागरिकता अधिनियम की धारा 6-ए को निरस्त कर दे और केंद्र सरकार को 1951 के बाद असम आए भारतीय मूल के लोगों के पुनर्वास के लिए नीति बनाने का निर्देश दे. 


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असम के पूर्व राज्यपाल एस के सिन्हा की रिपोर्ट में खतरनाक चेतावनी


सुप्रीम कोर्ट में संवैधानिक पीठ का सामने याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट श्याम दीवान ने दलील दी कि नागरिकता अधिनियम, 1955 में असम समझौते के समय संशोधन कर विशेष प्रावधान यानी धारा 6-ए जोड़ा गया था. उन्होंने कहा कि नागरिकता कानून में इस संशोधन ने राष्ट्र की धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे पर आधारित संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन किया है. एडवोकेट दीवान ने बताया कि असम से ज्यादा अवैध अप्रवासी पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल में हैं, लेकिन यह विशेष प्रावधान असम के लिए इस तरह लागू किया गया जैसे कि यह बाहरी लोगों को भारत की सीमा के अंदर आने और यहां की नागरिकता हासिल करने का लाइसेंस हो. असम के पूर्व राज्यपाल एस के सिन्हा द्वारा बांग्लादेश से असम में घुसे लोगों की वजह से होने वाले खतरों पर तैयार रिपोर्ट के हिस्से को भी दीवान ने सुप्रीम कोर्ट के सामने रखा. एस के सिन्हा की रिपोर्ट के मुताबिक बांग्लादेशी अवैध प्रवासियों के आने से असम के कई जिले मुस्लिम बहुल इलाके में बदल रहे हैं. ऐसी हालत में कुछ समय बाद इन जिलों के बांग्लादेश के साथ विलय की मांग उठाई जा सकती है. 


नागरिकता कानून का विशेष प्रावधान पर क्या है सुप्रीम कोर्ट का सवाल


एडवोकेट दीवान ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि अवैध प्रवासियों के आने और नागरिकता कानून के विशेष प्रावधान के कारण असम के मूल निवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक समेत कई नागरिक अधिकारों पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है. आइए, जानते हैं कि इस दलील में कितना दम है? जो कानून असम के लिए लागू किया गया वो पश्चिम बंगाल के लिए क्यों नहीं लागू किया गया? जबकि अवैध बांग्लादेशी वहां भी आए. इसके अलावा सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में बनी जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पांच सदस्यीय कॉन्स्टिट्यूशनल बेंच के सवाल कि अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों से जुड़ा कोई मैटेरियल या सबूत नहीं होने से यह पता नहीं चल रहा है कि साल 1966 से 16 जुलाई 2013 तक सिटिजनशिप एक्ट की धारा-6 के तहत बड़ी संख्या में नागरिकता दिए जाने से असम की जनसंख्या और सांस्कृतिक पहचान पर कैसे और कितना फर्क पड़ा है का जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं.


सिटीजनशिप एक्ट की धारा 6-ए क्या है, पश्चिम बंगाल में क्यों नहीं लागू हुआ


असम में बांग्लादेश के अवैध प्रवासियों के घुसपैठ के खिलाफ छह साल के जारी आंदोलन को खत्म करने को लेकर असम एकॉर्ड या असम समझौता किया गया था. असम राज्य में उग्र प्रदर्शन कर रहे कई संगठनों और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव-गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के बीच असम समझौता या असम एकॉर्ड पर दस्तखत किया गया था. इसी दौरान भारत आ चुके बांग्लादेशियों की नागरिकता के मसले को सुलझाने के लिए नागरिकता अधिनियम, 1955 में एक विशेष प्रावधान के रूप में धारा 6-ए जोड़ी गई थी. इसमें स्पष्ट कहा गया है कि साल 1985 में बांग्लादेश समेत क्षेत्रों से जो लोग 1 जनवरी 1966 से 25 मार्च 1971 तक असम आए हैं और तब से वहां रह रहे हैं, उन्हें भारतीय नागरिकता प्राप्त करने के लिए सिटीजनशिप एक्ट की धारा 18 के तहत अपना रजिस्ट्रेशन कराना होगा. इस विशेष प्रावधान के चलते असम में बांग्लादेशी प्रवासियों को नागरिकता दिए जाने की अंतिम तारीख 25 मार्च 1971 तय कर दी गई. हालांकि, यह विशेष प्रावधान पश्चिम बंगाल में लागू नहीं किया गया. क्योंकि वहां कोई उग्र आंदोलन नहीं हो रहा था, जबकी पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के युद्ध और बांग्लादेश निर्माण के दौरान बड़ी संख्या में बांग्लादेशी लोग पश्चिम बंगाल में भी घुसपैठ कर गए थे. इसके बाद से असम में कई जिलों के मुस्लिम बहुल होने, मूल निवासियों की जनसंख्या और स्थानीय सांस्सृतिक पहचान पर संकट पैदा होने की चर्चाएं शुरू हो गईं.


असम में सीमापार घुसपैठ से किसी को इनकार नहीं, 1981 में नहीं हुई थी जनगणना


सुप्रीम कोर्ट में केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने राज्यसभा में एक सांसद द्वारा पेश आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि साल 1951 और 1966 के बीच 15 लाख अवैध अप्रवासी असम आए थे. इसके मुकाबले साल 1966 से 1971 तक यह आंकड़ा 5.45 लाख था. दूसरी ओर एक शुरुआती तथ्य यह भी है कि साल 1971 की जनगणना के दस साल बाद साल 1981 में देश की जनगणना में असम को शामिल नहीं किया गया था. 1971 के पूरे बीस साल बाद असम में साल 1991 में जनगणना हुई थी. साल 1971 में मेघालय और अरुणाचल प्रदेश जैसे कई ऐसे राज्य असम का हिस्सा थे. बीस साल बाद हुई जनगणना तक मेघालय और अरुणाचल प्रदेश को असम से अलग कर राज्य का दर्जा दिया जा चुका था. 1991 की जनगणना में असम में आनुपातिक तौर पर मुसलमानों की आबादी काफी बढ़ गई थी. इस बात को साल 2005 में सर्बानंद सोनोवाल बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा था कि असम विदेशी आक्रामकता का शिकार है. जजों ने स्वीकार कर लिया था कि तत्कालीन पूर्व पाकिस्तान और मौजूदा बांग्लादेश से बड़े पैमाने पर होने वाले अप्रावसन या घुसपैठ के कारण ही असम में जनसंख्या का चरित्र बदल गया है. वहीं, मौजूदा संवैधानिक पीठ की अध्यक्षता कर रहे सीजेआई चंद्रचूड़ ने भी सुनवाई के दौरान असम में सीमापार से होने वाली घुसपैठ को स्वीकार करते हुए कहा कि बांग्लादेश की मुक्ति के लिए 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के कारण अप्रवासी भी आए थे. हालांकि, इसे इतिहास से जुड़ा मानवीय पहलू बताया.


13वीं शताब्दी में पहुंचने के बाद इस्लाम असम में सबसे तेजी से बढ़ने वाला मजहब


मौजूदा समय में असम राज्य की कुल 3.12 से कुछ ज्यादा की जनसंख्या में मुसलमान दूसरी सबसे बड़ी आबादी है. जनगणना रिपोर्ट के अनुसार साल 1971 में असम की आबादी में 71.51 फीसदी हिंदू और 24.56 फीसदी मुस्लिम थे, लेकिन 2011 में हिंदू आबादी घटकर 61.46 फीसदी हो गई और मुस्लिम बढ़कर 34.22 फीसदी हो गए. वहीं, साल 1971 में राज्य में दो मुस्लिम बहुल जिले थे. 2011 आते-आते बढ़कर मुस्लिम बहुल जिले नौ हो गए. इनमें 1991 से 2011 की अवधि के दौरान असम के कुल 35 जिले में से सात निचले  जिले (बारपेटा, दारंग, मोरीगांव, नौगांव, बोंगाईगांव, धुबरी और गोलपारा) और मध्य असम के दो जिलों में हिंदू आबादी 6.41 प्रतिशत कम हो गई. इन जिलों में इसी अवधि में मुस्लिम आबादी 62.65 प्रतिशत बढ़ी. एक अनुमान के मुताबिक साल 2021 की जनगणना की अंतिम रिपोर्ट आने तक बराक घाटी में हैलाकांडी और निचले असम में दक्षिण सलमारा-मनकाचर भी हिंदू अल्पसंख्यक जिलों के दायरे में आ जाएंगे, वहीं राज्य में मुस्लिम आबादी 37 फीसदी को पार कर जाएगी. कई गैर-सरकारी संस्थाओं का मानना है कि बढ़ती आबादी के साथ बांग्लादेश मूल के मुसलमान स्थानीय लोगों के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकार को बायपास कर रहे हैं. असम के कम से कम 42 विधानसभा सीटों में प्रवासी मुसलमान बहुमत में हैं और विनिंग फैक्टर बने हैं. जबकि, ब्रिटिश काल यानी साल 1901 की जनगणना को देखें तो असम में हिंदू आबादी 90.02 प्रतिशत और मुस्लिम आबादी 9.50 प्रतिशत थी. 13वीं शताब्दी में इस क्षेत्र में पहुंचने के बाद इस्लाम असम में सबसे तेजी से बढ़ने वाला मजहब है. 


इंटरनेशनल बॉर्डर से लगे असम के जिले में डेमोग्राफी सबसे तेजी से बदली


दूसरी और बीते साल केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेजी गई पुलिस की चौंकाने वाली रिपोर्ट में कहा गया है इंटरनेशनल बॉर्डर से लगे उत्तर प्रदेश और असम के जिले में डेमोग्राफी सबसे तेजी से बदली है. बांग्लादेश से लगते असम के धुबरी, करीमगंज, दक्षिण सलमारा और कछार जिलों में मुसलमानों की आबादी में 30 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हो गया है. असम की पुलिस ने सरहद से लगते इलाकों में गैरकानूनी रूप से आए हुए घुसपैठियों के डेरा जमाने की आंशका जताई है. वहीं,  बॉर्डर पर तैनात सुरक्षा एजेंसियों ने अंतरराष्ट्रीय साजिश की तरफ इशारा करते हुए सरकार को आगाह किया है. असम के मुख्यमंत्री हिंमता बिस्वशर्मा ने बीते दिनों साफ तौर पर कहा था कि राज्य में मुसलमानों की संख्या 35 फीसदी है. इसके साथ ही उन्होंने मूल निवासी और बांग्लादेश से आए मुस्लिमों का सर्वे कराने की भी बात कही थी. इससे पहले एनआरसी और चुनाव आयोग के परिसीमन के दौरान विपक्षी दलों में मुस्लिमों को लेकर आशंका जताई थी कि उनके साथ भेदभाव हो सकता है. हालांकि, राज्य सरकार ने इस आरोप को खारिज कर दिया था.