Ajmer Dargah: राजस्थान के अजमेर में मौजूद ख्वादा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह को मानने वाले दुनिया भर में हैं. यहां तक कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा भी एक बार इस दरगाह के लिए चादर भेज चुके हैं. आज पीएम मोदी के ज़रिए भेजी चादर भी दरगाह पर चढ़ाई गई है.
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History of Ajmer Dargah: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब से पीएम बने हैं तब से हर साल अजमेर की दरगाह के लिए चादर भेजते आ रहे हैं. अब तक मुख्तार अब्बास नकवी हर वर्ष उनके ज़रिए भेजी जाने वाली चादर दरगाह पर चढ़ाकर आते थे लेकिन इस बार ये परंपरा टूट गई और केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने राजस्थान के अजमेर में ये चादर चढ़ाई. इस खबर में हम आपको बताएंगे कि राजस्थान के अजमेर में मौजूद इस दरगाह का क्या इतिहास रहा? क्योंकि यहां पर ना सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चादर भेजते हैं बल्कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, अमेरिका फ्रांस और जर्मनी जैसे देशों के सिसायतदान भी चादर चढ़ाने के लिए अलग-अलग समय पर पहुंचते रहे हैं.
मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म ईरान के संजर (सिस्तान) में हुआ था. ख्वाजा अपने समय के मशहूर सूफी संत ख्वाजा उस्मान हारूनी के शिष्य थे और 1192 में वह पहले लाहौर, फिर दिल्ली और फिर अजमेर पहुंचे. इससे पहले उन्हें बगदाद और हेरात होते हुए कई बड़े शहरों में सूफियों से आशीर्वाद मिल चुका था. ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ऐसे समय में हिंदुस्तान पहुंचे थे जब शहाबुद्दीन गोरी और पृथ्वीराज के बीच तारायण की जंग के बाद मुस्लिम शासन की शुरुआत हो रही थी. यह कुतुबुद्दीन ऐबक, अल-तमीश, आराम शाह, रुकनुद्दीन फिरोज और रजिया सुल्तान का दौर था.
कहा जाता है कि उनकी शोहरत के बारे में सुनने के बाद अल-तमीश खुद उनसे मिलने पहुंचे थे. इसके अलावा रजिया सुल्तान ने भी कई बार उनके दरबार में हाजिरी दी थी. ख्वाजा मुइनुद्दीन के अनगिनत हैरान कर देने वाले किस्से हैं. एक जगह दावा किया गया है कि ख्वाजा बहुत भूखे रहा करते थे. एक रोटी कई-कई दिन चलाते थे. जबकि उनके यहां जरूरतमंद और भूखों के लिए हर वक्त लंगर तैयार रहता था लेकिन वो खुद बहुत कम खाना खाया करते थे. रूहानियत के आखिरी हदों तक पहंचने की वजह से ही उन्हें इतनी शोहरत हासिल हुई. 1236 में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने इस दुनिया को अलविदा कहा.
ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के देहांत के तुरंत बाद से लोग उनकी जियारत के लिए नहीं जाते थे, बल्कि ये सिलसिला तो बहुत बाद में शुरू हुआ. उनके देहांत के बाद एक छोटी सी दरगाह जरूर बनवाई गई थी लेकिन उसके बाद लगभग 200 वर्षों तक इसकी तरफ किसा का ध्यान ही नहीं गया. मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी और उनके बाद गयासुद्दीन ने पहली बार यहां स्थायी मकबरा बनवाया और एक सुंदर गुंबद बनवाया. कहा जाता है कि 1325 में पहली बार मुहम्मद बिल तुगलक इस दरगाह पर जाने वाला पहला सुलतान था. इसके बाद जब खिलजी ने 1455 में अजमेर पर कब्जा कर लिया था तो उसने इस दरगाह पर एक ऊंचा दरवाजे के अलावा शानदार मस्जिद भी बनवाई.
इतिहासकार बताते हैं कि असली दरगाह पहले लकड़ी से बनी हुई थी, बाद में इसको पक्का करावा गया था. दरगाह की एक दीवार पर लिखे शिलालेख के मुताबिक 1532 में इस दरगाह में गुंबद बनाया गया था जो आजतक कायम है. यह गुंबद कमल से सजाया गया और इसके टॉप पर रामपुर के नवाब हैदर अली खान के ज़रिए पेश किया गया सुनहरा मुकुट भी है.
यह दरगाह वैसे तो बहुतों के लिए बेहद मुकद्दस है लेकिन मुगलों का इस पर खास 'करम' रहा है. शुरुआत करते हैं अकबर से. एक किताब के मुताबिक जब अकबर शिकार पर थे तो उन्होंने कुछ लोगों को ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की शान में गीत गाते हुए सुना था. जिसके बाद अकबर के मन दरगाह पर जाने की ख्वाहिश जगी. इसके बाद से अकबर हर अक्सर इस दरगाह पर पैदल जाया करते थे. अकबर इस दरगाह में एक मस्जिद का निर्माण भी करवाया, जिसे अकबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता है.
यहां बड़ी तादाद में लोगों की अकीदत को जुड़ा हुआ और लंगर खाते देख अकबर ने पीतल की कुछ देंग भी तोहफे में दी थी, ताकि ज्यादा तादाद में आसानी से लंगर बनाया जा सके. कुछ जगहों पर दावा किया जाता है कि दरगाह में अभी-भी वो देगें मौजूद हैं. जबकि कुछ जगहों पर दावा किया जाता है कि अकबर दी हुई देंगे अब खाना पकाने लायक नहीं रही हैं. इतिहासकारों का कहना है कि दरगाह का अहमियत ना सिर्फ अकबर के रूहानी फायदे के लिए थी बल्कि भारत में मुगल शासन की लोकप्रियता में भी मदद मिली थी.
शाहजहां और अन्य मुग़ल बादशाहों ने भी दरगाह से अकीदत बनाई रखी और दरगाह के निर्माण में योगदान दिया. शाहजहां ने यहां एक खूबसूरत संगमरमर की मस्जिद बनवाई जिसे शाहजहां मस्जिद कहा जाता है. मुगल शासक इस दरगाह से इतने करीब से जुड़े हुए थे कि इस दरगाह में भिश्ती की कब्र भी है, जिसने हुमायूं को गंगा में डूबने से बचाया था. बदले में हुमायूं ने भिश्ती को आधे दिन का शासन दिया, जिसके दौरान उसने चमड़े की मुद्रा मंगवाई थी.
ब्रिटिश शासन के दौरान भी यह दरगाह रूहानियत का केंद्र बनी रही. दरगाह सभी धर्मों के मानने वालों के लिए श्रद्धा का केंद्र बन गई. यहां आयोजित होने वाले सालाना उर्स और मेलों में लाखों लोग पहुंचते हैं.