Sarhul Story: जब नहीं हो पाई धरती की सूरज से शादी, जानिए सरहुल से जुड़ी ये लोककथा
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Sarhul Story: जब नहीं हो पाई धरती की सूरज से शादी, जानिए सरहुल से जुड़ी ये लोककथा

Sarhul Fest 2022 and story: झारखंड के उरांव और सरना समाज के लोगों के सरहुल बहुत बड़ा और पवित्र त्योहार है. यह उत्सव चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है. लेकिन इसकी तैयारी 15 दिन पहले से ही शुरू हो जाती है और चैत्र पूर्णिमा यानी कि 15 दिन बाद तक त्योहार मनाया जाता है. 

Sarhul Story: जब नहीं हो पाई धरती की सूरज से शादी, जानिए सरहुल से जुड़ी ये लोककथा

रांचीः Sarhul Fest 2022 and story: नई-नई कोपलें झूम रही हैं. उनमें सुर्ख लाल नए निकल रहे पत्ते देखकर ऐसा लग रहा है, किसी नई ब्याहता की मांग के बीच चमकदार सेनुर (सिंदूर) लगा हुआ है. अमलताश के गुच्छे में खिले फूल किसी जूड़े में फंसे गजरे जैसे लग रहे हैं. कनेर बन गई है कान की लटकन, गेंदे और गुलाब ने बाजूबंद बनाया हुआ है. चमेली का मांग टीका है और पीली बेल गले की हार जैसी लग रही है. यह रूपवती कोई और नहीं है, यह खुद प्रकृति है, धरती है. ये सारा नजारा जिसे दिख रहा है वह कोई आदिवासी है. शहरी 'सभ्यता' से दूर, झारखंड के गांव-जंगल का कोई मलंग. आज यह आदिवासी सरहुल मना रहा है. सरहुल, यानी धरती और सूरज के ब्याह का दिन. 

  1. आदिवासियों की पुरानी मान्यता है कि जो नाचेगा वही बचेगा
  2. सरहुल में होती है साल के पेड़ की पूजा, सूर्य-धरती का विवाह

धरती लेती है एक कन्या का रूप
बसंत आते ही झारखंड के उरांव, संथाल, मुंडा और खड़िया लोगों के दिलों में एक लहर सी दौड़नी लगती है. देश-दुनिया भर के लोग जब होली मना रहे होते हैं तो ये आदिवासी लोग अपने कटहल, कनेर, केले, आम, ढाक, पाकड़ और खास तौर पर साल के पेड़ को सजाने लगते हैं. उनकी देखभाल और करीने से होनी लगती है. इन पेड़ों को अबीर दी जाती है और तैयारी शुरू हो जाती है एक बेटी की शादी की. ये बेटी कौन है? ये बेटी है धरती मां. सरहुल के दिन धरती एक कुंवारी कन्या का रूप ले लेती है, जिसकी शादी सूरज से होती है. 

प्रकृति का सुंदर रूप है ये पर्व
प्रकृति का कितना सुंदर रूप है ये त्योहार, जहां धरती ही बेटी है, धरती ही मां और सूर्य पिता है. जहां माना जाता है कि पेड़ हमारे भाई हैं और फूलों के पौधे हमारी बहनें. इस तरह आदमी खुद ही प्रकृति के साथ मिलकर एक परिवार है. त्योहार तो परिवार वालों के साथ ही मनाते हैं, इसलिए सरहुल में पेड़-पौधे सब शामिल होते हैं. 

उरांव सरना समाज का प्रमुख त्योहार
झारखंड के उरांव और सरना समाज के लोगों के सरहुल बहुत बड़ा और पवित्र त्योहार है. यह उत्सव चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है. लेकिन इसकी तैयारी 15 दिन पहले से ही शुरू हो जाती है और चैत्र पूर्णिमा यानी कि 15 दिन बाद तक त्योहार मनाया जाता है. इसकी विधियां किसी विवाह की रीत जैसी ही लगती हैं. एक दिन पहले ही पहान, पुजार और पनभरा उपवास रखते हैं. इस दिन वे गांव वालों के साथ बांस की टोकरी, मिट्टी का तवा और तेल सिंदूर लेकर किसी बावड़ी के पास जाते हैं. बावड़ी को डाड़ी कहते हैं तो डाड़ी की सफाई की जाती है. इसमें साफ पानी भरा जाता है. इसके बाद पहान, पुजार और पनभरा बारी-बारी से नहाते हैं. स्‍नान के बाद वह डाड़ी में तेल-टिक्का और सिंदूर चढ़ाते हैं. इसके बाद सभी लौटकर पहान के घर जाते हैं. इस तरह सरहुल का स्वागत किया जाता है. सरहुल एक तरीके से दूल्हे का प्रतीक है. 

झारखंड से नेपाल-भूटान और बांग्लादेश तक सरहुल
अलग-अलग गांव और टोले में इसे मनाने की प्रथाएं अलग-अलग हैं. फिर झारखंड से निकलते-निकलते और ओडिशा, बंगाल से होकर बांग्लादेश और नेपाल-भूटान  तक पहुंचते हुए सरहुल की हर परंपरा बहुत अलग हो जाती है, लेकिन नहीं अलग होते हैं तो आदिवासी आदमी और उसकी प्रकृति के प्रति निष्ठा. सरहुल इसी निष्ठा को निभाने का नाम है. साल के पेड़ की पूजा हर विधि और रीति में खास तौर पर होती है. इस दौरान महिलाएं लाल साड़ी पहनती हैं और नृत्य करती हैं. 

नृत्य ही है संस्कृति
माना जाता है कि नृत्य ही संस्कृति है. वेद-पुराण में तो महादेव शिव के कॉस्मिक डांस तांडव का खासतौर पर जिक्र है. यह कहता है कि नृत्य से ही सृष्टि शुरू होती है और नृत्य से ही समाप्त. आदिवासियों की मान्यता है कि जो नाचेगा वही बचेगा. लाल रंग संघर्ष का प्रतीक है. सफेद सबसे बड़े देवता सिंगबोंगा और लाल बुरु बोंगा का प्रतीक है. इसलिए सरना का झंडा भी लाल और सफेद होता है.

सरहुल से एक दिन पहले उपवास और जल रखाई की विधि होती है. खास बात ये है कि इस पर्व में मुख्य रूप से साल के पेड़ की पूजा होती है. सरहुल वसंत के मौसम में मनाया जाता है, इसलिए साल की शाखाएं नए फूल से सुसज्जित होती हैं. इन नए फूलों से देवताओं की पूजा की जाती है.

जीवन का दूसरा नाम है सरहुल
सरहुल की एक कहानी भी है. लोकमान्यता में प्रचलित इस कहानी में धरती और सूरज प्रेम करते हैं, उनकी शादी होती है, लेकिन अपने बच्चों (पेड़-पौधे और मानुष) की भलाई के लिए धरती सूरज के पास नहीं जा पाती है. उधर सूरज धरती के प्रेम में दहकता है और धरती माता तपती है. नदी-समुद्र, ताल-तालाब से ये देखा नहीं जाता है तो वो बादल बन जाते हैं तो धरती को ठंडक देते हैं. सरहुल इसी त्याग और प्रेम को अपनाने का पर्व है. आदिवासियों के भोलेपन में ये त्याग और प्रेम ही तो समाया है. सरहुल केवल उनका त्योहार नहीं है, उनकी रोजमर्रा की जिंदगी है, जिसमें विकास छेड़छाड़ न करे तो वहां जीवन ही जीवन है. जीवन का दूसरा नाम है सरहुल. 

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