'सरहुल' पर प्रकृति के रंग में रंग गया झारखंड, हर जगह निकल रही विशाल शोभा यात्राएं
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'सरहुल' पर प्रकृति के रंग में रंग गया झारखंड, हर जगह निकल रही विशाल शोभा यात्राएं

पूरे झारखंड में प्रकृति के स्वागत का पर्व सरहुल धूम-धाम से मनाया जा रहा है. जगह-जगह विशाल शोभा यात्राएं निकाली जा रही है. सखुआ के वृक्ष की पूजा की जा रही है. आपको बता दें कि यहा त्योहार केवल झारखंड ही नहीं बल्कि नेपाल, भूटान, बांग्लादेश के भी आदिवासी मनाते हैं.

(फोटो हेमंत सोरेन)

रांची: पूरे झारखंड में प्रकृति के स्वागत का पर्व सरहुल धूम-धाम से मनाया जा रहा है. जगह-जगह विशाल शोभा यात्राएं निकाली जा रही है. सखुआ के वृक्ष की पूजा की जा रही है. आपको बता दें कि यहा त्योहार केवल झारखंड ही नहीं बल्कि नेपाल, भूटान, बांग्लादेश के भी आदिवासी मनाते हैं. इस त्योहार में आदिवासियों का प्रकृति प्रेम देखते ही बन रहा है. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी प्रदेश के आवाम के साथ इस त्योहार के रंग में रंगे नजर आ रहे हैं. ढोल-नगाड़ों की थाप पर हेमंत सोरेन भी थिरकते नजर आए. 

'धरती और सूरज के विवाह' का उत्सव है सरहुल 
'धरती और सूरज के विवाह' का उत्सव सरहुल पूरे झारखंड में उत्साह-उल्लास के साथ मनाया जा रहा है. दिलचस्प मान्यताओं और परंपराओं वाले इस उत्सव को जनजातीय समाज सरहुल पर्व के रूप में मनाता है. इस मौके पर झारखंड की राजधानी रांची सहित विभिन्न शहरों-गांवों में शोभायात्राएं निकाली जा रही हैं. हजारों की तादाद में लोग इन शोभायात्राओं में शामिल हो रहे हैं. सरना धर्म के प्रतीक ध्वजों और पारंपरिक वाद्य यंत्रों ढोल-नगाड़े के साथ नाचते-गाते स्त्री-पुरुष और बच्चे सड़कों पर हैं. कोरोना की वजह से बीते दो वर्षों से जुलूस-शोभा यात्राओं पर प्रतिबंध था. ऐसे में इस वर्ष सरहुल को जबर्दस्त उत्साह और उल्लास का माहौल है. रांची में आयोजित सरहुल के मुख्य समारोह में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी शिरकत की. 

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सरहुल से जुड़ी ये है पौराणिक मान्यताएं
सरहुल त्योहार से जुड़ी मान्यताएं बेहद दिलचस्प हैं. जनजातीय परंपराओं के जानकार बताते हैं कि हमारी संस्कृति की मान्यताओं के अनुसार धरती कन्या है, जिसका विवाह सरहुल के रोज सूरज से होता है. शादी के पहले सूरज अपनी प्रिया धरती से प्रणय निवेदन करता है और खूब सारा धूप धरती पर उड़ेलता है. यह सूरज की ओर से धरती के लिए प्यार है. धूप के आने से धरती प्रसन्न हो जाती है और उसका रोम-रोम धन-धान और ऐश्वर्य से लद जाता है. इस अवसर पर पाहन (गांव का पुजारी) साल के पेड़ से फूल लेकर धरती का श्रृंगार करता है और धरती का हाथ उसके वर अर्थात सूरज को सौंपता है. पूर्व आईपीएस डॉ अरुण उरांव बताते हैं कि जब तक सरहुल अर्थात धरती का विवाह और साल वृक्ष की पूजा संपन्न नहीं हो जाती तब तक आदिवासी समुदाय के लोग नई फसल को चखते नहीं हैं. सारी फसलों पर पहले धरती और सूरज का हक माना जाता है. 

केकड़ा और मछली की कथा भी है प्रचलित
सरहुल को लेकर कई कथाएं भी प्रचलित हैं. उरांव समुदाय में केकड़ा और मछली की कथा बहुत प्रचलित है. यह समुदाय मानता है कि धरती और साल के पहले केकड़ा और मछली आए. केकड़ा ने ही समुद्र से माटी निकाल कर धरती का निर्माण किया और मछली ने उसको सहयोग दिया, इसलिए ये दोनों प्राणी हमारे आदि पुरखे हैं. जनजातीय समाज की परंपराओं के बारे में पूर्व आईपीएस डॉ अरुण उरांव बताते हैं कि ग्रीष्म ऋतु में जब पेड़ों पर नये पत्ते और फल-फूल आ रहे होते हैं, तब इस सुखद प्राकृतिक बदलाव का आदिवासी समाज नाचते-झूमते हुए स्वागत करता है. संथाली, मुंडा और हो आदिवासी समाज इसे बाहा पर्व के रूप में मनाता है, जबकि उरांव समाज सरहुल और खड़िया समाज जंकोर पर्व के रूप में मनाता है. यह मूल रूप से प्रकृति के प्रति आभार जताने का पर्व है. 

इस त्योहार में साल वृक्ष के पत्तों और फूलों से श्रृंगार का विशेष महत्व है. सर्वाधिक औसत उम्र वाले साल वृक्ष को पवित्र मानने की वजहें भी हैं. कहते हैं कि यह वृक्ष अकाल के समय भी अपने बीजों की संख्या बढ़ाकर अधिक पौधे उगाने में भी मदद करता है. बता दें कि साल वृक्षों का एशिया का सबसे बड़ा जंगल सारंडा झारखंड में ही है.

(इनपुट-आईएएनएस)

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